Thursday 24 May 2018

बिरयानी के बदले पत्थर !

खबर बहुत छोटी सी लेकिन चौंकाने वाली है। रमजान के मद्देनजर कश्मीर घाटी में राज्य की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती के आग्रह पर सुरक्षा बलों ने युद्धविराम किया हुआ है। अतीत में भी ऐसा होता रहा है। इसका उद्देश्य पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि करना है। यद्यपि सीमा पार से हो रहे पाकिस्तानी हमले का भारतीय सेना माकूल जवाब दे रही है लेकिन घाटी के भीतर सक्रिय आतंकवादियों और अलगाववादियों के विरुद्ध सुरक्षा बल पूरी तरह से ठंडे पड़ गए। हालांकि पूरे देश में इस इकतरफा युद्धविराम का विरोध हुआ लेकिन केंद्र सरकार ने अपना निर्णय नहीं बदला। लेकिन गत दिवस जो घटना घटी उससे साबित हो गया कि सांप को दूध पिलाने से उसका ज़हर कम नहीं होता। घाटी के सोपिया नामक स्थान के एक ग्राम में सेना ने रमजान के अंतर्गत रोजा रखने वालों के लिए इफ्तार पार्टी आयोजित की। सैनिक बिरयानी के साथ और भी व्यंजन गांव वालों के लिए ले गए किन्तु इस सौजन्यता के लिए शुक्रिया अदा करने के स्थान पर गांव वालों ने सेना के जवानों पर पत्थरबाजी शुरू कर दी। हालात बेकाबू होने पर सैनिकों को गोली चलानी पड़ी। उक्त वारदात के बाद सेना को निर्देश दे दिए गए हैं कि वह विरोध की संभावना वाले इलाकों में रोजा इफ्तार का आयोजन नहीं करे। उसी तरह इकतरफा युद्धविराम के बावजूद यदि कहीं कोई हमला होता है तो सेना जवाबी कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र रहेगी। इसे  एक साधारण स्थानीय घटना कहकर उपेक्षित भी किया जा सकता है लेकिन ऐसा करना अपने आपको धोखा देने जैसा होगा। कश्मीर घाटी रूपी हांडी का ये एक चावल देखकर काफी कुछ अंदाज लगाया जा सकता है। सीमा पार से तो रमज़ान के शुरू होते ही जबरदस्त गोलाबारी की जा रही है। सैन्य सूत्रों के मुताबिक युद्ध जैसी हालात से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन घाटी के भीतर सुरक्षा बलों द्वारा अपना अभियान बंद कर देने के बाद भी यदि अलगाववादी इफ्तार दावत को ठुकराकर पत्थरबाजी जैसा टुच्चापन करते हैं तब सुरक्षा के लिए तैनात जवानों के हाथ बांधने का कोई लाभ या अर्थ नहीं है। वैसे ये पहला अवसर नहीं है जब सेना द्वारा बढ़ाए गए दोस्ती के हाथ के उत्तर में देश विरोधी ताकतों ने ज़हर बुझे तीर छोड़ दिये हों। इस्लाम के अनुयायियों के लिए रमज़ान सबसे पवित्र महीना माना जाता है। भरी गर्मी में रोज़ा रखकर अपने मन को शुद्ध करने का प्रयास मुसलमान करते हैं। इस अवसर पर इफ्तार पार्टियां भी आयोजित होती हैं। गैर मुस्लिम भी अपने मुसलमान मित्रों के लिए इफ्तार आयोजित करते हैं। इनके जरिये साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। कश्मीर के उपद्रवग्रस्त इलाकों में सेना की तरफ  से इफ्तार पार्टी रखना इसी दिशा में बढाया कदम था लेकिन सद्भावना के उत्तर में फूल की बजाय पत्थर मिलना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। घाटी के भीतर रमज़ान के दौरान सुरक्षा  बलों को संयम बरतने का सख्त निर्देश दिया जाता है। सही मायनों में उनकी इच्छा के सर्वथा विरुद्ध होने के बाद भी वे उसका ईमानदारी से पालन करते हैं। वैसे भी अनुशासन और आदेशों के पालन में भारतीय सेना बेमिसाल है वरना कश्मीर घाटी में आतंकवादियों को बचाने के लिए पत्थरबाजी करने वालों की लाशें बिछा दी जातीं। ताजा उदाहरण तमिलनाडु के तूतीकोरिन का है जहां प्रदर्शनकारियों द्वारा पत्थरबाजी किये जाने पर वहां मौजूद बल ने गोलियां चला दीं। जिसमें दर्जन भर से ज्यादा लोग मारे गए । कश्मीर घाटी में तो सुरक्षा बलों को आए  दिन पत्थरबाजी झेलनी पड़ती है परंतु वे कभी आपा नहीं खोते। लेकिन सोपिया के ग्राम में इफ्तार पार्टी के आयोजन पर जिस तरह पत्थरबाजी हुई उसके बाद तो केंद्र सरकार को भी अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। किसी भी धर्म के पवित्र अवसरों पर उनकी गरिमा और सम्मान बनाए रखना सभ्य समाज का लक्षण है लेकिन कश्मीर में पल रहे पाकिस्तान के मानसपुत्रों में चूंकि खुद भी इस्लाम के प्रति कोई आदरभाव नहीं है तब उनके साथ रहम करना सिवाय मूर्खता के और कुछ भी नहीं है जो आज़ादी के बाद से शुरू होकर आज भी जारी है। वर्तमान केंद्र सरकार ने काफी सख्ती दिखाते हुए घाटी के हालात बहुत हद तक सुधारे लेकिन कुछ ज्ञात और कुछ अज्ञात कारणों से उसे बार-बार कदम पीछे खींचना पड़े। रमज़ान में युद्धविराम के माध्यम से कश्मीर घाटी की मुस्लिम आबादी के प्रति जो मोहब्बत दर्शाई गई यदि उसका जवाब पत्थर है तब बिरयानी की जगह अलगाववादी मानसिकता से लबरेज ऐसे लोगों को उनकी माकूल सजा मिलनी ही चाहिए। अपने ऊपर हमला होने पर सुरक्षा बलों को समुचित जवाब देने की जो छूट दी गई वह पूरी तरह उचित है। यदि सोपिया जैसी कोई घटना दोहराई जाती है तब इकतरफा युद्धविराम को भी वापिस ले लेना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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