Monday 30 April 2018

किम जोंग का नया रुख बड़े बदलाव का संकेत


जो लोग अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर नजर रखते हैं उन्हें 1972 में अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर की गुप्त चीन यात्रा की याद जरूर होगी। पाकिस्तान के जरिये बीजिंग पहुंचे किसिंजर की उस यात्रा को पिंगपाँग कूटनीति का नाम दिया गया। दो जानी दुश्मनों के बीच रिश्तों की बर्फ  पिघलने की उस शुरुवात ने 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में ही विश्व राजनीति के संतुलन को पूरी तरह बदल डाला। दो धु्रवों में बंटी दुनिया में चीन के रूप में एक नई महाशक्ति का उदय हुआ जिसे प्रारंभिक तौर पर हल्के में लेने वाले भी अब उसका लोहा मानने लगे हैं। उसके काफी बाद जब सोवियत संघ विघटित हुआ और उसके शिकंजे से निकलकर पूर्वी यूरोप के तमाम साम्यवादी देश भी नई राह पर चल पड़े तब दुनिया में फिर उथलपुथल मची लेकिन चीन उससे भी अछूता रहा। जर्मनी का एकीकरण और बर्लिन की दीवार का अस्तित्वहीन हो जाना भी बीती हुई सदी के यादगार ऐतिहासिक लम्हों में से था। ऐसा लगने लगा था कि उन सबके बाद दुनिया में अमेरिका का इकतरफा दबदबा हो जाएगा लेकिन चीन के निरन्तर ताकतवर होते जाने से वह उम्मीद पूरी नहीं हो सकी और अमेरिका सहित जो पश्चिमी मुल्क चीन से राजनयिक सम्बन्ध रखने तक से परहेज करते थे वे ही अपनी पूंजी लेकर चीन जा पहुंचे और इस तरह लौह आवरण से घिरा यह एशियाई देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए एक बड़े आश्रय स्थल के तौर पर स्थापित हो गया। आज की दुनिया आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी या साम्यवादी की बजाय चीनी मॉडल से प्रभावित होती जा रही है। विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए तो चीन की प्रगति अध्ययन और अनुसरण दोनों का विषय बन गई है। न सिर्फ सामरिक और वैज्ञानिक अपितु आर्थिक मोर्चे पर भी चीन ने विश्व बिरादरी के बीच महाशक्ति का दर्जा हासिल कर लिया। लेकिन उसकी कूटनीति का जो मॉडल है उसे लेकर पूरी दुनिया आशंकित और काफी हद तक भयभीत रहती है। धर्म को अफीम मानने वाला चीन जब कट्टरपंथी पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध संरक्षण देता है तो वह विरोधाभास लगता है। उसी तरह उसने साम्यवादी तानाशाही के नए प्रतीक उत्तर कोरिया को बढ़ावा देकर अमेरिका को चुनौती देने वाले एक अन्तर्राष्ट्रीय गुंडे के तौर पर किम जोंग सरीखे बिगड़ैल राष्ट्रप्रमुख को खड़ा कर दिया। बीते साल भर से किम जोंग धड़ाधड़ परमाणु परीक्षण करते हुए अमेरिका और उसके बेहद निकट रहने वाले जापान को धमकाने वाली भाषा बोलते रहे। तमाम प्रतिबंधों के बावजूद भी किम जोंग उत्तर कोरिया को विश्व युद्ध की राह पर आगे बढ़ाते नजर आ रहे थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका को जिस प्रकार की धमकियां किम जोंग ने दीं उतनी तो कभी सोवियत संघ और क्यूबा के तानाशाह मरहूम फिदेल कास्त्रो तक ने नहीं दी होंगी। इसकी वजह उत्तर कोरिया की सामरिक ताकत कम और चीन का संरक्षण ज्यादा था। अपने पड़ोसी दक्षिण कोरिया से उत्तर कोरिया का जन्मजात बैर रहा है। बीते कई दशक से दोनों के बीच युद्ध के हालात बने हुए थे। ये भी सही है कि उत्तर की अपेक्षा दक्षिण कोरिया ने आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में ज्यादा तरक्की कर ली। इन  दोनों के बीच का फर्क  ठीक वैसा ही है जैसा एकीकरण के पूर्व पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी के बीच दिखाई देता रहा। किम जोंग के पिता भी साम्यवादी तानाशाही के प्रतीक रहे किन्तु बहुत ही कम उम्र में सत्ता संभालने वाले किम जोंग ने तो सनकीपन की पराकाष्ठा कर दी। अपने निकट रिश्तेदारों और सहयोगियों को जरा से शक पर बेरहमी से मरवा देने वाले किम जोंग जीते जी एक किंवदन्ती बनते जा रहे थे। अमेरिका को वे जिस जुबान में धमकाते थे उसे देखकर हिटलर की स्मृतियां सजीव हो जाती थीं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा परिणाम भुगतने की चेतावनी के जवाब में परमाणु बम पटकने की धमकी देने का दुस्साहस करने वाले किम जोंग की गतिविधियां विश्व युद्ध के आसार उत्पन्न करने लगी थीं। अचानक ट्रंप और किम के बीच वार्ता की खबरें आने लगीं। दोनों तरफ से कूटनीतिक प्रयास चले। हाल ही में किम जोंग ट्रेन से चीन जा पहुंचे। उसी दौरान उन्होंने परमाणु परीक्षण नामक पागलपन को रोकने की घोषणा भी कर डाली। यही नहीं तो वे परमाणु परीक्षण केंद्र को नष्ट करने के साथ ही अमेरिका और दक्षिण कोरिया को उसका निरीक्षण करने की अनुमति देने तक को राजी हो गए। ऐसा लगता है इस बदलाव के पीछे भी चीन की समझाईश ही है जिसका अमेरिका के साथ व्यापार को लेकर जबर्दस्त टकराव चल रहा है। ज्योंही चीन को लगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और किम दोनों के सनकीपन में कहीं उसके हित प्रभावित न होने लगें त्योंही उसने स्थितियों को पूरी तरह उलट पुलट दिया। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अनौपचारिक शिखर वार्ता को भी चीन, उतर कोरिया और अमेरिका के बीच चल रहे तनाव से जोड़कर देखने वाले भी कम नहीं हैं। दक्षिण कोरिया के साथ अचानक मतभेद सुलझाकर शांति और सहयोग के जिस नए युग की शुरुवात किम जोंग और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रप्रमुख के बीच हुई वार्ता के बाद होती दिखाई दे रही है वह कोई साधारण बात नहीं हो सकती। किम जोंग का ये बयान कि अमेरिका यदि उनके देश पर हमला न करने का वचन दे तब वे सभी आण्विक हथियार नष्ट करने राजी हैं और उसी के साथ दक्षिण कोरिया के साथ पुश्तैनी तनाव खत्म कर शांति और सहयोग का दौर शुरू करने जैसी ख़बरें न सिर्फ  दक्षिण एशिया वरन पूरे विश्व के लिए राहत का पैगाम है। ट्रंप के साथ अपनी भेंट के पहले किम जोंग का ये नया अवतार अक्लमंदी का परिणाम है या भय का ये फिलहाल कह पाना तो कठिन है लेकिन यदि माहौल इसी तरह सौजन्यतापूर्ण बना रहे तो 21 वीं सदी के एशिया की सदी बनने का अनुमान यथार्थ में बदलते देर नहीं लगेगी। किम जोंग के बदलते रुख की वजह से कोरिया के एकीकरण की सम्भावना भले नहीं बने किन्तु उस क्षेत्र में मंडराने वाले युद्ध के बादल जरूर बिना बरसे लौट सकते हैं जो दोनों कोरिया और चीन के अलावा भारत सहित अन्य एशियाई देशों के लिए भी राहत का बड़ा सन्देश होगा। इस यू टर्न के पीछे किम जोंग की आर्थिक मजबूरियां भी हो सकती हैं क्योंकि लगातार परमाणु परीक्षण की वजह से लगे अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों से उनके देश की आर्थिक स्थिति गड़बड़ाने के साथ ही दक्षिण कोरिया की आर्थिक प्रगति और समृद्धि भविष्य में किम जोंग के प्रति नाराजगी की वजह भी बन सकती थी। ये भी सम्भव है कि चीन की यात्रा के दौरान किम जोंग को चीन की तरफ से वैसा आश्वासन नहीं मिला जैसा उन्हें अपेक्षित रहा होगा। जो भी हो एशिया का राजनयिक माहौल अचानक जिस तरह से बदलता दिखाई देने लगा है वह एक शुभ संकेत है। उल्लेखनीय है भारत और उत्तर कोरिया के बीच काफी व्यापार होता है। यद्यपि दक्षिण कोरिया और अमेरिका से रिश्ते सुधरने के बाद उत्तर कोरिया को भारत से होने वाले निर्यात पर विपरीत असर होगा लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भारत के लिए लाभदायक ही रहेंगे। उस दृष्टि से ट्रंप और किम जोंग की मुलाकात विश्व राजनीति में बहुत बड़े बदलाव का आधार बन सकती है। 1972 में किसिंजर की चीन यात्रा और जर्मनी के एकीकरण सदृश ऐतिहासिक घटना की पुनरावृत्ति भले न हो लेकिन किम जोंग का दक्षिण कोरिया के साथ शांति वार्ता के साथ ही परमाणु परीक्षण रोकने और अमेरिका से आक्रमण न होने का आश्वासन मिलने पर आण्विक जखीरा नष्ट करने पर सहमति देने जैसी बातें यदि वास्तविकता में बदल सकीं तो पूरी दुनिया राहत की सांस ले सकेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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