Tuesday 3 April 2018

प्रतिक्रिया स्वरूप सवर्ण गोलबंदी की आशंका

गत दिवस देश के कुछ हिस्सों में भारत बंद के दौरान हुई हिंसा में 14 लोगों की मौत हो गई। वाहन और दुकानें जलाई गईं  तथा रेलों को  भी रोका गया । सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनु.जाति/जनजाति कानून के कुछ प्रावधानों में हल्के से बदलाव से नाराज दलित संगठनों ने अपना गुस्सा जिस तरह निकाला उसने जातीय संघर्ष की नई पटकथा लिख दी है । किसी भी पार्टी और नेता ने आंदोलन के स्वरूप की आलोचना करने का दुस्साहस नहीं किया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो भाजपा और रास्वसंघ पर दलितों को दबाने का आरोप लगाकर हिंसक आंदोलन का अप्रत्यक्ष तौर पर समर्थन कर दिया । भाजपा भी अपने ही दलित सांसदों के दबाव में थी। इसीलिए केंद्र सरकार ने  बिना देर किये सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका पेश कर दी लेकिन उससे दलित संगठनों के गुस्से पर कोई असर नहीं हुआ वरना बन्द वापिस लिया जा सकता था । न्यायालय अपने फैसले को बदलेगा या नहीं ये तो वही जाने लेकिन इस विवाद ने आरक्षण के विरोध में नए सिरे से माहौल बना दिया है । सोशल मीडिया पर जिस तरह से सवर्ण समुदाय मुखर हो उठा उसने भविष्य में नये आंदोलन की बुनियाद तैयार कर दी है। दलित समाज की आबादी के आंकड़े सामने आने से सुगबुगाहट और बढ़ गई है । क्रीमी लेयर वाला सवाल भी उठने लगा है । आरक्षण के कारण होने वाली योग्यता की उपेक्षा और प्रतिभा पलायन की चर्चा भी चल पड़ी है । पाटीदार और जाट आंदोलन के संचालक भी पसोपेश में हैं क्योंकि दलित समुदाय के गोलबंद हो जाने से ओबीसी वर्ग की चिंताएं बढ़ चली हैं। कुल मिलाकर धजी का सांप बनाने में दलित नेता कामयाब तो हो गए लेकिन जल्दबाजी और अति उत्साह में उन्होंने जो गलती कर दी वह उनके विरुद्ध सवर्ण समुदाय की गोलबंदी का कारण बन सकती है । दरअसल दलित समुदाय की सबसे बड़ी समस्या उसमें सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव है । द. आंबेडकर के पौत्र प्रकाश आंबेडकर भले ही दलित राजनीति के चेहरे हों किंतु उनकी राजनीतिक वजनदारी न के बराबर है । महाराष्ट्र में कई दिग्गज दलित नेता हुए किन्तु एक भी राष्ट्रीय स्तर पर  स्वीकार्यता नहीं बना सका । बसपा के संस्थापक कांशीराम ने जिस चतुराई से कर्मचारी संगठन को राजनीतिक दल में तब्दील किया वह राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेतृत्व की श्रृंखला तैयार करने की बजाय मायावती के राजतिलक में उलझ गया जिसकी परिणिति ये हुई कि मायावती के बाद बसपा के दूसरे बड़े नेता के तौर पर मनुवादी सतीशचन्द्र मिश्रा स्थापित हो गए और लगातार राज्यसभा में जमे हुए हैं । बसपा चाहती तो श्री मिश्रा जो कि स्वयं बड़े वकील हैं , के जरिये सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका लगवाकर वैधानिक लड़ाई लड़ सकती थी लेकिन वैसा नहीं किया गया और पूरे देश में सामाजिक संघर्ष के नए हालात उत्पन्न कर दिए जो कालांतर में विभाजनकारी शक्तियों के लिए मददगार बने बिना नहीं रहेंगे । देश का दुर्भाग्य है कि दलितों के उद्धार की जो समन्वयवादी और समरसता के भाव से प्रेरित सोच थी वह वोट बैंक का रूप ले बैठी जिसे सुरक्षित रखने के लिए घृणा का बीज बोया जा रहा है। आरक्षण को लेकर समाज के एक बड़े वर्ग में जो असंतोष था वह अब आक्रोश में बदलने लगा है तो उसके पीछे वही राजनीति है जो बजाय जातिगत भेदभाव को मिटाने के उल्टे उसे खाद पानी देकर  समाज को खण्ड - खण्ड करने का षड्यंत्र रच रही है । शिक्षित हो रही नई पीढ़ी में जाति के प्रति पहले जैसा आग्रह नहीं होने के बावजूद दलित आंदोलन के नाम पर किये गए उपद्रवों से हालात सुधरने की जगह बदतर होने का भय बढ़ गया है । सोशल मीडिया पर प्रसारित कतिपय संदेशों के मुताबिक सवर्ण जातियों द्वारा शीघ्र ही आरक्षण के विरोध में भारत बंद का आयोजन होने वाला है । ऐसे में डॉ. आंबेडकर की छवि समाज सुधारक की  बजाय खलनायक की बनने के  आसार भी बन सकते हैं । संविधान निर्माता के तौर पर प्रतिष्ठित डॉ. आंबेडकर ने भी आरक्षण को स्थायी प्रावधान नहीं माना था । बावजूद उसके उसकी समयावधि खत्म होने के पहले ही उसे आगे बढ़ाया जाता रहा तथा किसी राजनीतिक दल ने उसका विरोध नहीं किया । लेकिन दलित समुदाय के आधुनिक रहनुमाओं की करतूतों को देखते हुए कहा जा सकता है कि ये लोग डॉ. अंबेडकर के प्रति जो सम्मान का भाव है उसे नष्ट करने पर आमादा हैं। दुर्भाग्य से चाहे कांग्रेस और भाजपा हो या क्षेत्रीय पार्टियां , सब दलित वोट बैंक के मोहपाश में बंधकर रह गई हैं वरना मोदी सरकार इतनी जल्दी सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार हेतु अर्जी नहीं लगाती। इतने संवेदनशील अवसर पर राहुल गांधी द्वारा भाजपा और रास्वसंघ पर तोहमत लगाना भी गैर जिम्मेदाराना कृत्य है । दलितों से सभी को हमदर्दी है । इतिहास की गलतियों को सुधारकर एक समतामूलक समाज की स्थापना भला कौन नहीं  चाहेगा? लेकिन आरक्षण की मौजूदा स्थिति को देखते हुए ऐसा कर पाना कठिन दिख रहा है क्योंकि दलित समुदाय की दयनीय स्थिति को सुधारने की बजाय मायावती और प्रकाश आंबेडकर जैसे नेता अपना महिमामंडन करने में जुटे हुए हैं। दलित समाज के शिक्षित  वर्ग को ये समझना चाहिये कि उनके नेता कितने ईमानदार हैं ? जिस तरह से मुसलमानों को महज मतदाता मानकर 70 साल तक उनका शोषण किया जाता रहा वही हालत दलित समुदाय की बनती जा रही है। उसे आरक्षण नामक जो झुनझुना पकड़ा दिया गया है उसकी आवाज भी दिन ब दिन कर्कश होती जा रही है । माना कि राष्ट्रीय जीवन नें 70 साल बहुत नहीं होते और सदियों से चली आ रही बुराई को आसानी से खत्म कर पाना भी कठिन है किंतु दलित नेताओं को ये नहीं भूलना चाहिए कि ज़हर के बीजों से आम के पेड़ नहीं उगेंगे । यदि वे भी वही करने का प्रयास करेंगे जो उनके साथ होता रहा तब वह अपनी आने वाली पीढ़ी को फिर से उसी खाई में धकेलने का अपराध होगा जिससे वे खुद अभी तक बाहर नहीं निकल सके ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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