Friday 20 April 2018

न्यायालयीन फैसलों का सियासी विश्लेषण उचित नहीं


महाराष्ट्र के न्यायाधीश बी एच लोया की मौत की जांच को लेकर प्रस्तुत जनहित याचिका को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो टिप्पणियाँ कीं वे कई मायनों में विचारणीय हैं । उल्लेखनीय है स्व. लोया भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर चले सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले की सुनवाई कर रहे थे । हालांकि उनकी मृत्यु एक निजी पारिवारिक आयोजन के दौरान हुई थी लेकिन काफी समय बाद उनके किसी परिवारजन द्वारा एक पत्रिका को दिये गए साक्षात्कार में मृत्यु को संदिग्ध बताए जाने से विवाद उठ खड़ा हुआ । कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों को भी इस कारण भाजपा को घेरने का एक अच्छा अवसर  मिल गया । सर्वोच्च न्यायालय के जिन चार  न्यायाधीशों ने मुख्य  न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध मोर्चा खोला उनमें स्व. लोया की मृत्यु सम्बन्धी जांच का जिक्र भी था । इसे लेकर एक जनहित याचिका सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश हुई जिसमें उनकी मृत्यु को अस्वाभाविक मानते हुए विशेष जांच दल से दोबारा जांच की मांग शामिल थी । मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायाधीश द्वय श्री खानविलकर और श्री चंद्रचूड़ भी उस पीठ में शामिल थे। तीनों ने एक स्वर से जनहित याचिका को न सिर्फ  खारिज कर दिया अपितु जनहित के नाम पर न्यायपालिका का समय खराब करने पर लताड़ भी लगाई। फैसला आने के बाद प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने ठेठ राजनीतिक शैली में फैसले की आलोचना की । उधर कांग्रेस ने भी सवाल उठाने में देर नहीं लगाई । सरकार विरोधी अन्य खेमों से भी न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्न दागे गए । इसके पहले हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए बम विस्फोट सम्बन्धी प्रकरण में असीमानंद सहित अन्य चार आरोपियों के बरी हो जाने पर भी भाजपा विरोधी शिविर ने खूब बवाल मचाया। मामले को कमजोर करने का आरोप एनआईए पर लगाने का सिलसिला अब भी चल रहा है । ऊपर से फैसला देने वाले न्यायाधीश द्वारा इस्तीफा दिए जाने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए गए। यद्यपि उनका त्यागपत्र नामंजूर हो गया और वे काम पर लौट भी आए लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद एनआईए द्वारा आरोपियों को बचाने के लिए मामले में ढील देने जैसे आरोपों की बौछार लगी हुई है । उसके बाद स्व. लोया की मौत पर व्यक्त सन्देह के निराकरण हेतु विशेष जांच दल के गठन की मांग सम्बन्धी जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले ने एक तरफ  जहां भाजपा को बड़ी राहत प्रदान की वहीं विपक्ष को न्यायपालिका पर अविश्वास करने का एक मौका और दे दिया।  मुख्य न्यायाधीश के साथ दो अन्य न्यायाधीशों ने भी ये स्वीकार किया कि जनहित याचिका स्वीकार करने योग्य नहीं थी। अदालत में प्रशांत भूषण के आचरण को अवमानना मानने लायक बताते हुए पीठ ने यद्यपि मानहानि प्रकरण दर्ज नहीं किया किन्तु याचिकाकर्ता के वकीलों को जमकर फटकारते हुए जनहित याचिका जैसे साधन का दुरुपयोग होने पर भी नाराजगी जताई । कांग्रेस और भाजपा में उक्त फैसले के उपरांत हमेशा की तरह जुबानी जंग शुरू ही गई है । ऐसा ही मक्का मस्जिद प्रकरण सम्बन्धी फैसले को लेकर भी हुआ था । इस सम्बन्ध में विचारणीय मुद्दा ये है कि क्या न्यायालयों के फैसलों पर इस तरह की बहस उचित है? किसी निर्णय के कानूनी पहलू पर न्याय क्षेत्र के जानकार अपनी राय व्यक्त करें ये तो समझ में आता है लेकिन उसे शुद्ध सियासी मसला बना दिया जाए वह किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है । बीते कुछ सालों में संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता को नुकसान पहुंचाने का सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है । जो निर्णय पक्ष में आ जाये उसे न्याय की जीत और जो विरुद्ध हो उस पर न्यायपालिका की निष्पक्षता पर उंगली उठा देने का चलन समूची व्यवस्था पर संदेह करते हुए अराजकता की राह प्रशस्त करने में ही सहायक होगा । चार न्यायाधीशों का बगावती अंदाज में पत्रकार वार्ता करना और उसके बाद भी पत्र लिखकर उसकी सार्वजनिक चर्चा करने जैसे कदम ये साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि न्यायपालिका भी राजनीति का अखाड़ा बन चुकी है । स्व. लोया की मौत विषयक जनहित याचिका पर या अन्य फैसलों में निष्पक्षता का अभाव देखना कानून के जानकारों का अधिकार है लेकिन इसके चलते समूची न्याय व्यवस्था पर सन्देह व्यक्त करना खतरनाक संकेत है । प्रशांत भूषण और अभिषेक मनु सिंघवी खुद भी बड़े वकील तो हैं ही उससे भी बढ़कर वे क्रमश: शांतिभूषण और स्व. लक्ष्मीमल सिंघवी जैसे नामी.गिरामी न्यायविदों के पुत्र भी हैं और इस नाते उन्हें न्यायपालिका के प्रति बोलते समय मर्यादाओं का ख्याल रखना चाहिए । स्वस्थ आलोचना का तो सदैव स्वागत होता है किंतु न्यायपालिका के बारे में कुछ भी बोलने से विश्वास का संकट और गहराने का खतरा है । किसी ने सही सवाल उठाया है कि कल को राम मंदिर सम्बन्धी प्रकरण पर यदि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय मंदिर के पक्ष में गया तब  भी  यदि इसी तरह की आलोचनाएं और सन्देह व्यक्त किये गए तब देश का माहौल बिगड़ते देर नहीं लगेगी । ऐसा लगता है मुख्य न्यायाधीश के बहाने एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है जिसके निहित उद्देश्य धीरे .धीरे उजागर भी होने लगे हैं । जिस तरह अनुकूल परिणाम नहीं मिलने पर सीबीआई को लपेटे में ले लिया जाता है वैसा ही अब अदालतों को लेकर भी होने लगा है। ऐसा करने से भले ही क्षणिक राजनीतिक लाभ प्राप्त हो जाते हों किन्तु इसके दूरगामी परिणाम देश के लिए शुभ नहीं हैं । न्यायपालिका तमाम अंतर्विरोधों के बाद भी उम्मीद का दीपक जलाए रखने में सफल रही है । कार्यपालिका को हड़काए रखने में भी वही सक्षम है । उस पर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर आकर कार्य करने के आरोप भी अक्सर लगा करते हैं । खुद सत्ता पक्ष भी कई मर्तबा न्यायालयीन सक्रियता को बेजा हस्तक्षेप बता चुका है लेकिन  न्यायालय से जुड़े मामलों पर यदि सड़कों पर निरर्थक बहस हो और वह भी राजनीतिक स्वार्थवश तब उसकी गम्भीरता और महत्व दोनों खत्म हो जाते हैं । कम से कम भाजपा और कांग्रेस सदृश राष्ट्रीय पार्टियों को तो अपनी जिम्मेदारी समझनी ही चाहिए ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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