मप्र के आदिवासी बहुल जिले मंडला में आज राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस पर हो रहे विशाल जलसे में शरीक होने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आए हुए हैं। बड़ी संख्या में पंचायतों के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को सरकारी खर्चे पर ढोकर लाया गया है। महीनों से मप्र सरकार का अमला इस आयोजन की तैयारियों में जुटा हुआ था। प्रधानमंत्री की मौजूदगी से कार्यक्रम की भव्यता भी निश्चित तौर पर बढ़ गई। कुछ घण्टे के आयोजन पर व्यय होने वाली राशि जाहिर तौर पर करोड़ों में होगी। सुरक्षा पर ही बेतहाशा खर्च हो जाता है। और फिर मंडला सरीखे आदिवासी जिले में वीवीआईपी के लिए इंतजाम करना भी आसान नहीं होता। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर इतनी भीषण गर्मी में सरकार को क्या सूझी जो मंडला जैसे सुदूर अंचल में इतना बड़ा जमावड़ा करे। और इसका सीधा-सहज उत्तर है राजनीतिक लाभ। ये बात तो किसी से छिपी नहीं है कि राजनेता चाहे सत्ता से जुड़े हों या विपक्ष से, उनकी समस्त गतिविधियों का लक्ष्य वोट बटोरने पर केंद्रित होता है। मंडला का यह आयोजन भी मप्र विधानसभा के आगामी चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है। आदिवासी अंचल में पिछली मर्तबा भाजपा को अच्छी सफलता मिल गई थी किन्तु फिलहाल वह स्थिति नहीं है। इसलिए पार्टी के रणनीतिकारों ने आदिवासी पट्टी में राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के नाम पर बड़ा जमावड़ा करवा दिया। मंडला से छत्तीसगढ़ की सीमा भी सटी है। वहां भी इसी वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं। वैसे वास्तविकता के धरातल पर उतरकर सोचें तो पंचायती राज एक आदर्श व्यवस्था है जिसका उद्देश्य संसदीय प्रजातांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत सत्ता का विकेंद्रीकरण करना है। भारत में तो प्राचीनकाल से पंचायत व्यवस्था अत्यंत समृद्ध रही है। महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज का समूचा विचार पंचायती राज से ही प्रेरित और प्रभावित था। जब से पंचायती राज की व्यवस्था को संवैधानिक रूप दे दिया गया तब से सत्ता का विकेन्द्रीकरण करने का काम काफी हद तक पूरा हो सका किन्तु शिक्षा और जागरूकता के अभाव की वजह से यह आदर्श व्यवस्था, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के मकडज़ाल में फंसकर रह गई है। महिला एवं अनु.जति/जनजाति के लिए आरक्षित सीटों के नाम पर जिस तरह के जनप्रतिनिधि चुनकर आते हैं उसकी वजह से पंचायती राज सत्ता से ज्यादा भ्रष्टाचार के विकेंद्रीकरण का प्रतीक बन बैठा है। हालांकि इस अंधेरी कोठरी में कुछ रोशनदान भी हैं। देश में अनेक पंचायतें ऐसी हैं जिन्होंने सुशासन और सुनियोजित विकास का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण पेश करते हुए इस व्यवस्था की सार्थकता को साबित किया किन्तु राज्य और केंद्र सरकार चाहे जो भी कहें लेकिन पंचायती राज व्यवस्था के जो भी परिणाम देखने में आये वे किसी भी स्तर पर सन्तोषजनक नहीं कहे जा सकते। कहीं जनप्रतिनिधियों की अनभिज्ञता तो कहीं बेईमानी की वजह से नौकरशाही को जनता के धन की लूटपाट और बर्बादी का समुचित अवसर मिल जाता है। ग्रामीण विकास की शासकीय योजनाएं निश्चित रूप से स्वागत योग्य हैं। गांवों के विकास के बिना देश को आगे लाना नामुमकिन है। इसीलिए हर सरकार ग्रामों को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए भरसक प्रयास करती है। इस विभाग के पास भारी-भरकम बजट भी होता है। बावजूद उसके यदि अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहे तो ये मानकर चलना होगा कि क्रियान्वयन में कहीं न कहीं कमी या गड़बड़ है जिसे दूर किये बिना चाहे दावे कितने भी कर लिए जावें लेकिन पंचायती राज अपने सही स्वरूप में लागू नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी परेशानी है पंचायती राज का राजनीतिकरण। भले ही पंचायतों के चुनाव गैर दलीय आधार पर होते हों किन्तु राजनीतिक दलों का भरपूर दखल रहने से पंचायतें भी चाहे-अनचाहे सियासत के अखाड़े में तब्दील होकर रह गईं जिसका स्वाभाविक परिणाम भ्रष्टाचार, परिवारवाद और अयोग्य व्यक्तियों के निर्णय प्रक्रिया में शामिल होने के तौर पर देखने मिल रहा है। पंचायतें भारत के गांवों की शासन व्यवस्था ही नहीं वरन सामाजिक व्यवस्था की भी रीढ़ रही हैं किंतु जब से वे संसदीय प्रणाली के अंतर्गत आईं तबसे उनका स्वरूप विकृत होता चला गया और अन्य सरकारी महकमों की तरह पंचायती राज के साथ भी वे बुराइयां और बदनामियां अनिवार्य रूप से जुड़ गईं जो हमारे प्रजातन्त्र की पहिचान बन चुकी हैं। प्रधानमन्त्री श्री मोदी और मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दोनों ग्रामीण विकास में काफी रुचि लेते हैं। श्री मोदी तो उन्नत तकनीक से ग्रामीण विकास के पक्षधर हैं लेकिन सरकार की समूची सदिच्छाएँ राजनीतिक जोड़ तोड़ और भ्रष्टाचार के स्थायी गठबंधन के आगे बेअसर होकर रह जाती हैं। यद्यपि अब ग्रामीण भारत पहले सरीखा नहीं रहा लेकिन आज भी वहां शहरों की तुलना में यदि विकास सम्बन्धी असंतुलन है तब ये कहना सही रहेगा कि ग्राम विकास की पूरी कल्पना तब तक अधूरी रहेगी जब तक उसे राजनीति और भ्रष्टाचार के चंगुल से न निकाला जाए। प्रधानमंत्री के मंडला आगमन की सार्थकता तभी है जब पंचायती राज को सरकारी कर्मकांड से मुक्त करवाकर उसका सही स्वरूप प्रदान किया जाए। वरना ले देकर वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती रहेगी।
-रवीन्द्र वाजपेयी
No comments:
Post a Comment