Wednesday 4 April 2018

साधु-संतों को राज्यमंत्री का दर्जा देना निरर्थक

मप्र सरकार द्वारा कुछ संतों को राज्यमंत्री का दर्जा देने के फैसले पर टीका-टिप्पणी हो रही है। मुख्यमंत्री  शिवराज सिंह चौहान द्वारा चलाये जा रहे नर्मदा संरक्षण अभियान को मजबूती देने  के उद्देश्य से कतिपय साधु-संतों को सरकारी हैसियत दिए जाने के पीछे आगामी विधानसभा चुनाव बताया जा रहा है। सही बात तो ये है कि मुख्यमंत्री का वह महत्वाकांक्षी अभियान करोड़ों रुपये की बर्बादी के बाद भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे सका। 6 करोड़ पौधे लगाने के दावे भी फुस्स होकर रह गए। न तो नर्मदा का प्रदूषण दूर हुआ और न है अवैध रेत उत्खनन रुका। चुनाव करीब आने से श्री चौहान के पास नर्मदा अभियान के लिए समय नहीं  है लिहाजा उन्होंने कुछ बाबाओं को उस काम में लगा दिया। साधु-संतों को राजगुरु बनाने की प्राचीन परंपरा तो रही है लेकिन राज्यमंत्री जैसा दर्जा देना अटपटा लगता है क्योंकि इस तरह के ओहदे से तो सत्ताधारी पार्टी के तमाम छुटभैये तक नवाजे जा चुके हैं। चुनाव जीतकर तो अनेक साधु-संत मंत्री बन जाते हैं। लेकिन ये दर्जा जैसी बात उन्हें शोभा नहीं देती । हो सकता है ऐसा करने के पीछे श्री चौहान की मंशा बाबाओं को सरकारी सुविधाएं एवं प्रशासन का सहयोग दिलवाने की हो लेकिन ये बात भी सत्य है कि नर्मदा का सत्यानाश करने में साधु-संतों का भी कम हाथ नहीं है जो अपना आभामंडल बनाने के फेर में नदी के किनारों पर कांक्रीट के ढांचे खड़े कर बैठ गए हैं। यदि इन भगवाधारी बैरागियों में वाकई नर्मदा के संरक्षण का भाव है तो यह काम वे बिना सरकारी रुतबा लिए करें तब समाज भी बिना संकोच किये उनके साथ खड़ा हो जाएगा। विनम्रता की प्रतिमूर्ति शिवराज सिंह जिन संतों की सार्वजनिक रूप से चरणवंदना करते हैं उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा देना पूरी तरह अव्यवहारिक है क्योंकि ये ओहदा शासकीय शिष्टाचार में मुख्यमंत्री से नीचे होता है। इससे भी बड़ी बात ये है सच्चे साधु-सन्त फक्कड़ ही अच्छे लगते हैं। मंत्री पद उनके सामने लगता कहाँ है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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