Monday 16 April 2018

अध्यादेश : गलती दोहराने की कोशिश


खबर है केंद्र सरकार अध्यादेश लाने जा रही है जिसके जरिये सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय को निष्प्रभावी कर दिया जावेगा जिसमें अनु.जाति/जनजति कानून में परिवर्तन करते हुए दलित उत्पीडऩ की शिकायत पर तत्काल गिरफ्तारी किये जाने  को रोककर विवेचना उपरांत कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया है। राजनीतिक दबाव और दलित विरोधी छवि से बचने के लिए अव्वल तो सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका पेश करते हुए स्थगन की मांग की लेकिन जब न्यायालय ने उसे ठुकराते हुए बाद में सुनवाई की बात कही तब केंद्र सरकार के हाथ बंध गए। इधर भाजपा विरोधी सभी पार्टियां उस पर सवर्ण जातियों की समर्थक होने की तोहमत जडऩे में जुट गईं। शायद मोदी सरकार इस मामले में जल्दबाजी न करते हुए गालियां खाती रहती लेकिन कर्नाटक चुनाव ने उसका मनोबल गिरा दिया। ऊपर से 2 अप्रैल के भारत बंद के दौरान हुई हिंसक घटनाओं ने भी पार्टी और सरकार की चिंताएं बढ़ा दीं। अध्यादेश लाकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को बेअसर करने की मांग भी फैसले के तुरंत बाद उठी थी किन्तु उस समय सरकार को लगा कि शायद पुनर्विचार याचिका के जरिये वह निर्णय को रुकवा लेगी जब काम नहीं बना तब उसे वैकल्पिक उपाय तलाशने मजबूर होना पड़ रहा है। उसे यह भय भी सता रहा है कि कहीं मामला लम्बा खिंचा और ग्रीष्मावकाश की वजह से सर्वोच्च न्यायालय में अवकाश हो गया तब उसकी मुसीबतें और बढ़ती जायेंगीं। सबसे बड़ी बात ये है कि भाजपा के भीतर भी आरक्षण समर्थक लॉबी बहुत ताकतवर है। महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करने वालों में उमाश्री भारती भी सबसे अग्रणी रहीं क्योंकि उसमें पिछड़ी जातियों के लिए अलग से आरक्षण नहीं था। स्मरणीय है  शरद यादव और मुलायम सिंह जैसे नेता भी  विधेयक का उसी आधार पर विरोध करते आए हैं। दलित एवं आदिवासी नेताओं का भी भाजपा में वजन काफी तेजी से बढ़ा है। इस वर्ग से भी उसके काफी सांसद और विधायक जीतकर आए हैं। इस तरह भाजपा भले ही मुस्लिम तुष्टीकरण का विरोध करे लेकिन वोट वैंक की खातिर जातियों के तुष्टीकरण में वह अन्य पार्टियों से पीछे नहीं है। यही वजह है डॉ. आम्बेडकर जयंती पर नरेंद्र मोदी यहां तक कह गए कि बे बाबासाहब की वजह से ही प्रधानमन्त्री बन सके। इसके पूर्व भी जब-जब आरक्षण का विरोध हुआ श्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गला फाड़-फाड़कर कहा कि भाजपा आरक्षण को बरकरार रखेगी। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के सम्बन्धित निर्णय को आरक्षण खत्म करने की दिशा में उठाए जा रहे कदम के तौर पर प्रचारित किये जाते ही भाजपा और सरकार एक तरह से अपराधबोध से ग्रसित हो गर्इं। अब सवाल ये उठता है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बेअसर करने के लिए अध्यादेश लाना सही कदम होगा? यद्यपि पहले भी सरकारों ने सर्वोच्च न्यायालय के अनेक फैसलों को अध्यादेश के जरिये पलटा है लेकिन फिलहाल जिस मामले में अध्यादेश की संभावना बताई जा रही है उससे मोदी सरकार और भाजपा दोनों एक बड़े वर्ग की सहानुभूति और समर्थन खो देंगीं। कांग्रेस भी इसी तरह के दबावों में आकर लोगों की नाराजगी की वजह बनी। भाजपा को ये बात समझ लेनी चाहिए कि वह भी यदि इसी तरह दबाव में आकर तात्कालिक लाभ वाले निर्णय लेगी तब उसे भी वही परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा जो शाह बानो मामले में दिए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संसद में उलट देने के बाद स्व.राजीव गांधी को भोगने पड़े थे। सवर्ण जनमानस में दलित और आदिवासियों के प्रति जो भी गुस्सा है वह केवल इस बात पर है कि उन्हें जरूरत से ज्यादा सुविधाएँ और सरंक्षण दिया जा रहा है। जिस कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने संशोधित करने का दुस्साहस किया उसका दुरुपयोग होने पर ही उस प्रकार का निर्णय उसे करना पड़ा। ऐसे में सरकार ने अध्यादेश के माध्यम से उक्त निर्णय पर रोक लगवा दी तो भविष्य में न्यायपालिका कोई भी साहसिक फैसला लेने से बचेगी। पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने तो यहां तक नसीहत दे डाली कि न्यायालयों को फैसले करते समय ये ध्यान रखना चाहिए कि उससे जनता नाराज न हो जाए। यदि सरकार ने इस निर्णय को पलटने के लिए अध्यादेश निकाला तब बड़ी बात नहीं कल को मुस्लिम समुदाय तीन तला$क पर अदालती फैसले को पलटने के लिए भी ऐसी ही मांग करने लग जाए और उसे न मानने पर धर्म निरपेक्ष ढांचे को कमजोर करने का आरोप मढ़ा जाने लगे। बेहतर हो मोदी सरकार और भाजपा के नीति-नियंत्रक इस तरह की गलतियां करने से बचें वरना उन्हें जो फायदा-नुकसान होगा वह उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना न्यायपालिका की सर्वोच्च आसंदी के अवमूल्यन होने का खतरा है। क्षणिक राजनीतिक लाभ हेतु गलत मांगों के सामने घुटने टेकने की प्रवृत्ति की वजह से ही देश अनेक ऐसी समस्याओं मे उलझकर रह गया है जिनका समाधान दूरदराज तक नजर नहीं आ रहा। अध्यादेश लाकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निष्प्रभावी करने का अर्थ होगा सवर्ण और दलित समुदाय  बीच की खाई को और चौड़ा करना ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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