Tuesday 10 April 2018

दलित और सवर्ण दोनों समझदारी दिखाएं वरना ...

आज आरक्षण के विरोध में भारत बंद का आयोजन किसके आह्वान पर हो रहा है ये किसी को नहीं पता । फेसबुक और सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों से प्रसारित संदेशों से आरक्षण का विरोध करने वाला तबका भी मैदान में कूद पड़ा है । ये आयोजन शायद न हुआ होता यदि गत 2 अप्रैल को दलित संगठनों द्वारा आयोजित बंद के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से हिंसा की खबरें नहीं आईं होतीं। पूरे विवाद की जड़ है सर्वोच्च न्यायालय का वह फैसला जिसके अंतर्गत अनु.जति/जनजति कानून के उस प्रावधान को बदल दिया गया जिसमें दलित उत्पीड़न की शिकायत पर आरोपी को तत्काल गिरफ्तार करने की बजाय प्रकरण की जांच उपरांत आगे की कार्रवाई करने की व्यवस्था रहेगी । दलित संगठनों ने इसे कानून को कमजोर करने की कोशिश बताते हुए सरकार पर दबाव बनाया कि वह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को बदलवाने हेतु या तो कानूनी रास्ता अपनाए या फिर अध्यादेश निकालकर उसे निष्प्रभावी करे । केन्द्र सरकार ने समय रहते दलित समुदाय को ये आश्वासन भी दे दिया था कि वह कानून को कमजोर नहीं होने देगी । बाद में उसने पुनर्विचार याचिका भी पेश की किन्तु दलित राजनीति के संचालकों ने अपनी रोटी सेंकने के लिए बंद भी करवाया और उस दौरान हुए उपद्रव के लिए केंद्र सरकार और भाजपा को जिम्मेदार ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी । कानून से होते-होते बात आरक्षण खत्म करने तक आ पहुंची । इस अचानक आई मुसीबत से घबराई भाजपा ने आरक्षण खत्म करने की किसी भी आशंका से इंकार करते हुए उसे जारी रखने की कसमें भी खाईं किन्तु जिस तरह दो वर्ष पूर्व असहिष्णुता को लेकर देश में एक सुनियोजित माहौल बना दिया और एक लॉबी विशेष ने सरकारी पुरुस्कार और सम्मान लौटाने की मुहिम छेड़ दी ठीक वैसी ही झलक मौजूदा माहौल में भी महसूस की जा सकती है । कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 2 अप्रेल का भारत बंद करवाने वालों का अभिननदन कर ये साफ कर दिया कि जाति की राजनीति करने में उन्हें भी कोई परहेज नहीं है और सियासी लाभ के लिए वे कुछ भी करने तैयार हैं । आज जो बंद आहूत किया गया उसका समर्थन करने की हिम्मत किसी पार्टी की नहीं पड़ी क्योंकि आरक्षण प्राप्त जातियों के वोट गंवाने का लालच कोई पार्टी छोड़ना नहीं चाहती । बावजूद इसके सोशल मीडिया पर चली मुहिम ने तेजी पकड़ी और सवर्ण समाज के भीतर आरक्षण को लेकर उबल रहा ग़ुस्सा बाहर आ गया । वीपी सिंह की सरकार के समय जब मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं थीं तब आरक्षण के विरुद्ध देशव्यापी बवाल हुआ था । उसके बाद सम्भवतः ये पहला अवसर है जब आरक्षण खत्म करने की मांग इतनी तेजी से जोर पकड़ने लगी है । हालाँकि 2 अप्रैल की चूक के बाद केंद्र और राज्य सरकारें सतर्क हो गईं जिससे कोई अप्रिय स्थिति न बने लेकिन दलित समुदाय के तथाकथित हितचिंतकों ने सर्वोच्च न्यायालय के साधारण से फैसले को आरक्षण हटाने से जोड़कर जो उपद्रव मचाया उसकी वजह से ही सवर्ण समाज के भीतर दबा आक्रोश बाहर आ गया। यद्यपि आज के बन्द के आयोजक भी जानते हैं कि आरक्षण को समाप्त करने की हिम्मत किसी में नहीं है । इस सम्बंध में सर्वोच्च न्यायालय निर्णय दे भी दे तो फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि सरकार  चाहे किसी की भी क्यों न हो आरक्षण हटाना तो दूर रहा उसके बारे में सोचने का साहस तक वह नहीं कर सकेगी । इसलिए आज का बंद चाहे सफल हो या नहीं किन्तु आरक्षण को लेकर समाज की एकता को हुए नुकसान की भरपाई आसान नहीं होगी । आरक्षण भारतीय राजनीति का वह हथियार है जिसका उपयोग हर छोटी - बड़ी पार्टी करती है । कभी उच्च जातियों की समझी जाने वाली भाजपा के लिए भी आरक्षण गले में फंसी हड्डी जैसा हो गया है जिसे न तो वह निगलने की स्थिति में है और न ही उगलने की । यही स्थिति कांग्रेस की है । बसपा तो खैर है ही घोषित रूप से दलित आधारित पार्टी किन्तु अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भी आरक्षण के साथ छेड़छाड़ करने की हिम्मत नहीं दिखा सकतीं लेकिन समय आ गया है  जब इस मसले का कोई न कोई समाधान निकाला जाए क्योंकि 21 वीं सदी के किशोर और युवाओं में अपने भविष्य को लेकर जो आशंकाएं और भय व्याप्त है वह इस विवाद की तह में है । भले ही सर्वोच्च न्यायालय सरकार की पुनर्विचार याचिका को स्वीकार करते हुए सन्दर्भित कानून में किये हुए बदलावों को वापिस ले ले परन्तु आरक्षण के विरोध का जो जिन्न लम्बे अरसे बाद बोतल से बाहर आया है वह आसानी से भीतर नहीं जाने वाला क्योंकि लगभग सभी राजनीतिक दल अपने नफे नुकसान के आधार पर दलित और पिछड़े समाज को दिए जा रहे आरक्षण पर अपना रवैया सुनिश्चित करेंगे । चूंकि आगामी डेढ़ वर्ष तक देश चुनावी मोड में रहने वाला है इसलिए ये आग ऊपर से भले ठं लगे परन्तु भीतर - भीतर तो वह सुलगती ही रहेगी । जिन्हें इस पर पानी डालना चाहिए वे ही जब पेट्रोल छिड़कने पर आमादा हों तब क्या होगा इसका अंदाजा सहज रूप से लगाया जा सकता है  । यदि राजनीतिक पार्टियां चाहती हैं समाज में एकता बनी रहे तो उन्हें चुनावी जीत हार से ऊपर उठकर नीति बनाने और तदनुसार निर्णय करने की प्रतिबद्धता दिखानी होगी । आरक्षण जारी रखते हुए भी बहुत कुछ ऐसा किया जाना चाहिए जिससे सवर्ण समाज के मन में व्याप्त असन्तोष और आक्रोश कम किया जा सके । जाति भारत की एक ऐसी सच्चाई है जिसे चाहकर भी कोई नहीं झुठला सकता । ऐसे में संघर्ष को समन्वय और समरसता में किस तरह बदला जा सकता है ये सर्वाधिक महत्व का विषय है । चुनाव आते-जाते रहेंगे , पार्टियों की भी जीत हार होती रहेगी लेकिन सामाजिक ढांचा बिखर गया तो हर गली  - चौराहे पर बलवे होंगये । दलित समाज में भी जो समझदार लोग हैं उन्हें भी अपने समुदाय के भीतर फैलाई जा रही गलतफहमियों को दूर करते हुए ये बताना चाहिए कि आरक्षण मिल जाने मात्र से सफलता नहीं मिलेगी जब तक वे प्रतिस्पर्धा में खुद को साबित नहीं कर देते । सवर्ण समाज में आरक्षण से भी ज्यादा गुस्सा पदोन्नति में भी आरक्षण की व्यवस्था को लेकर है । राजनीतिक विमर्श को भी अब केवल चुनावी गणित से ऊपर उठकर सोचना होगा वरना दलित-सवर्ण संघर्ष से देश का जो नुकसान होगा उसका अंदाजा आज लगाना कठिन है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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