Friday 27 April 2018

बहुमत की तानाशाही और न्यायपालिका की स्वछंदता दोनों अस्वीकार्य

सतही तौर पर देखें तो लगता है उत्तराखंड विधानसभा सम्बन्धी निर्णय की खुन्नस निकालते हुए मोदी सरकार ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसेफ  को सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त करने सम्बन्धी कॉलेजियम की सिफारिश को वापिस लौटा दिया । उनके साथ भेजी गई एक अन्य सिफारिश मंजूर करते हुए केंद्र सरकार ने वरिष्ठ अधिवक्ता इंदु मल्होत्रा के नाम पर स्वीकृति प्रदान कर दी जिस पर 100 अधिवक्ता सर्वोच्च न्यायालय गए । उनका कहना था कि सरकार कॉलेजियम से भेजी गईं सिफारिशों पर अलग-अलग विचार नहीं कर सकती । उसे या तो दोनों स्वीकार करनी चाहिए थीं या दोनों नामंजूर । मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अधिवक्ताओं की दलील रद्द करते हुए सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि एक साथ भेजी गईं कॉलेजियम की सिफारिशों पर वह अलग-अलग विचार कर सकती है । इस फैसले की जहां कांग्रेस एवं वाम दलों ने आलोचना की है वहीं याचिका लगाने वाले भाजपा विरोधी खेमे के अधिवक्ताओं को भी ये गले नहीं उतर रहा। आज इंदु मल्होत्रा को बतौर न्यायाधीश शपथ दिलाने का निर्णय भी कल ही हो गया था । कॉलेजियम प्रणाली के अनुसार यदि दोबारा श्री जोसेफ  के नाम की सिफारिश भेजी गई तब सरकार के पास उसे मंजूर करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बच रहेगा लेकिन उसके लिए कोई समय सीमा नहीं होने से वह उसे असीमित समय तक ठन्डे बस्ते में डालकर रख सकती है । दूसरी तरफ  केंद्र सरकार  की तरफ  से कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आलोचनाओं का जवाब देते हुए जो बातें कहीं उनके अनुसार श्री जोसेफ  का नाम वरिष्ठता क्रम में 45 वें स्थान पर है वहीं उच्च न्यायालयों के 11 मुख्य न्यायाधीश भी उनसे वरिष्ठ हैं । केंद्र सरकार ने श्री जोसेफ  के नाम को मंजूरी नहीं देने के पीछे क्षेत्रीय असंतुलन को भी एक वजह बताया है । वे केरल के हैं जिसका प्रतिनिधित्व सर्वोच्च न्यायालय में है जबकि कुछ राज्यों से कोई न्यायाधीश नहीं है । कानून मंत्री ने उत्तराखंड सम्बन्धी निर्णय को आधार बनाने के आरोप का खंडन करते हुए कहा कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को रद्द करने वाले श्री जे एस केहर को भी मुख्य न्यायाधीश बनाने में सरकार ने कोई संकोच नहीं किया था । श्री प्रसाद ने उल्टे कांग्रेस पर अतीत में न्यायाधीशों की नियुक्ति में पक्षपात करने और वरिष्ठता को नजर अंदाज किये जाने का आरोप लगाया । इस विवाद को दो विभिन्न कोण से देखने पर अलग-अलग बातें मन में आती हैं। दोनों पक्षों के तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन झगड़े की जड़ कॉलेजियम प्रणाली ही बनी हुई है। न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच नियंत्रण और सन्तुलन रूपी आदर्श व्यवस्था होनी चाहिए । दोनों में से किसी के भी द्वारा मर्यादाओं का उल्लंघन प्रजातन्त्र की नींव को कमजोर करता है । जब न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी कानून संसद से पारित हो गया तब उसे सिरे से रद्द करने का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इस बात का संकेत था कि वह अपने एकाधिकार को किसी भी स्थिति में छोडऩा नहीं चाहता । बीती जनवरी में सर्वोच्च न्यायालय के जिन चार न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के ऊपर आरोपों की झड़ी लगाते हुए न्यायपालिका के भीतर सब कुछ गड़बड़ होने की बातें सार्वजनिक कीं उनमें एक एतराज ये भी था कि महत्वपूर्ण प्रकरणों की सुनवाई हेतु आवंटन करते समय मुख्य न्यायाधीश वरिष्ठ न्यायाधीशों की उपेक्षा करते हैं। बाद में भी रोस्टर तय करने के मुख्य न्यायाधीश के अधिकार पर उंगलियां उठाई जाती रहीं । इससे ये साफ  होता है कि वरिष्ठता क्रम का उल्लंघन उन न्यायाधीशों को भी नागवार गुजरता है जो मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध खुलकर मैदान में उतर आए । उस आधार पर अगर केंद्र सरकार ने वरिष्ठता क्रम को मुद्दा बनाकर श्री जोसेफ  सम्बन्धी  कॉलेजियम की सिफारिश को लौटा दिया तो वह अपनी जगह सही लगती है । लेकिन कानून मंत्री की दलील को भी आंख मूंदकर स्वीकार नहीं किया जा सकता। बेहतर हो न्यायपालिका को  लेकर विभिन्न स्तरों और मंचों पर चल रही फुटकर-फुटकर बहस को एक स्थान पर केंद्रित करते हुए संविधान सभा की तर्ज पर संसद का विशेष संयुक्त अधिवेशन बुलाकर इस पर सार्थक विमर्श किया जाए। क्योंकि संसदीय प्रणाली का अर्थ यदि बहुमत की तानाशाही नहीं है तो न्यायपालिका की स्वच्छन्दता भी स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। 45 वरिष्ठ न्यायाधीशों की उपेक्षा करते हुए किसी नाम की अनुशंसा करने का औचित्य कॉलेजियम को भी साबित करना चाहिए । उच्च न्यायालयों में पदस्थ 11 मुख्य न्यायाधीशों को लांघकर श्री जोसेफ  को ही सर्वोच्च न्यायालय क्यों भेजा जाए इस सवाल का सन्तोषजनक उत्तर दिए बिना कॉलेजियम यदि दोबारा उनके नाम की अनुशंसा भेजता है और उससे असंतुष्ट होने पर केंद्र सरकार उसे दबाकर बैठी रहती है तो वह स्थिति भी अच्छी नहीं होगी । ये सब देखते हुए उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में  न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी कोई पारदर्शी व्यवस्था कायम करना सर्वोच्च प्राथमिकता है । न्यायपालिका के प्रति देश भर में चाहे-अनचाहे सम्मान रहा है । लेकिन जब उसी के भीतर से उस पर सवाल उठ रहे हों तब विधायिका और कार्यपालिका हाथ पर हाथ धरे बैठी रहें ये किसी भी लिहाज से देशहित में नहीं होगा । जिस तरह न्याय में विलम्ब को न्याय से इंकार कहा जाता है ठीक वैसे ही इस तरह के विवादों को टालते रहना बीमारी को लाइलाज बनाने जैसा होगा।
-रवीन्द्र वाजपेयी

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