Thursday 19 April 2018

सिंगापुर और क्योटो छोड़ो : भारत से नाता जोड़ो

हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र अमेठी के दौरे में उसे आगामी कुछ वर्षों में सिंगापुर जैसा बनाने की घोषणा क्या की उस पर टीका-टिप्पणी शुरू हो गई । सोशल मीडिया पर तरह-तरह के कटाक्ष भी देखने मिल रहे हैं । राहुल विरोधी वर्ग इसे लेकर उनका मजाक बनाने में जुट गया । इस बात पर भी सवाल उठने लगे कि तीन बार से अमेठी के सांसद चुने जाने के बाद भी अमेठी इतना पिछड़ा क्यों रह गया। लगे हाथ उनकी माँ सोनिया गांधी की लोकसभा सीट रायबरेली के अविकसित रहने का मुद्दा भी उठ खड़ा हुआ । जब एक तरफ  से हमले हुए तब दूसरी तरफ  से भी मोर्चा खुलने लगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी की दुर्दशा पर भी चर्चा होनेे लगी जिसे उन्होंने जापान की धार्मिक नगरी क्योटो की तर्ज पर विश्वस्तरीय बनाए जाने के ख्वाब दिखाए थे । इसी कोशिश में वे जापान के प्रधानमंत्री को वाराणसी भी लाए और खुद जापान यात्रा के दौरान क्योटो देखने गए । ये विषय केवल गांधी परिवार और श्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों को सब्ज़बाग दिखाने तक सीमित नहीं है । अन्य दिग्गजों के चुनाव क्षेत्रों में भी विकास के नाम पर जो लीपापोती हुई वह भी बहस का मुद्दा बनने लगा । अमेठी और रायबरेली गांधी परिवार की पुश्तैनी सीटें रही हैं। दोनों से प्रधानमंत्री बने । लेकिन पिछड़ेपन के लिहाज से उप्र के शेष इलाकों के तरह से ही यहां के हालात भी हैं। सोनिया जी और  राहुल चाहते तो यूपीए के राज में अपने निर्वाचन क्षेत्रों को विकास का मॉडल बनवा सकते थे किंतु राहुल का ताजा आश्वासन ही उनकी विफलता का प्रमाणपत्र है । कुछ दिखावटी प्रकल्पों को छोड़ दें तो रायबरेली और अमेठी में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे देखकर ये कहा जा सके कि यहां के सांसद देश के शीर्षस्थ नेता हैं । वाराणसी में श्री मोदी को चुनाव जीते 4 साल होने जा रहे हैं । इस दौरान कुछ नहीं हुआ ये भले न कहा जा सके लेकिन जितनी उम्मीद थी उसके मुताबिक परिणाम नहीं आये, ये नि:संकोच कहा जा सकता है । यद्यपि मुलायम सिंह यादव ने अपने गृह ग्राम सैफई का कायाकल्प तो जमकर किया किन्तु सम्भल और कन्नौज जैसे निर्वाचन क्षेत्रों के प्रति उनका वह लगाव नहीं रहा जहां से वे स्वयं और फिर उनका बेटा-बहू जीतकर लोकसभा पहुंचते रहे । दरअसल विकास की जो परिभाषा नेताओं ने गढ़ ली है वह पूरी तरह से आयातित है जिसमें चमक-दमक तो होती है किंतु भारतीय परिस्थितियों में उनका रखरखाव न हो पाने से अनाप-शनाप पैसा तो खर्च होता है लेकिन हालात न बदलते और न ही सुधरते हैं ।  वैसे भी पश्चिमी शैली के विकास को जबरन लादने की कोई जरूरत ही नहीं है । अमेठी उप्र के सामान्य जिलों से कुछ बेहतर भले हो लेकिन ऐसा कुछ भी आभास वह क्षेत्र नहीं देता जिससे उसके ताकतवर सांसद की प्रशंसा की जा सके । उस दृष्टि से श्री गांधी द्वारा उसे सिंगापुर बनाने जैसी बात पर यदि लोग हंस रहे हैं तो उसे गलत नहीं मानना चाहिए । भारत को इंडिया बनाने की तमाम कोशिशें अब तक सफल नहीं हो सकीं तो उसकी वजह देश की तासीर और जरूरतों की अनदेखी करना ही रही । बीते कुछ वर्षों में बिजली, पानी और सड़क जैसी मूलभूत जरूरतें उभरकर सामने आईं । आज भी देश के हजारों न सही तो सैकड़ों ग्राम होंगे जहां उक्त तीनों सुविधाओं का पूरी तरह से अभाव है । पीने का पानी और बिजली का संकट देश के बड़े शहरों तक में अनुभव किया जा सकता है । प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा से भी आबादी का बड़ा हिस्सा वंचित है। ऐसे में सिंगापुर और क्योटो बनाने जैसी बातें अनावश्यक, निरर्थक और अविश्वसनीय लगती हैं । 70 के दशक में खाद्यान्न संकट को दूर करने के लिए स्व. इंदिरा गांधी ने कृषि विशेषज्ञ एम एस स्वामीनाथन को बुलाकर आत्मनिर्भरता लाने कहा जिसके बाद हरित क्रांति अभियान चला जिसकी वजह से अब देश में अन्न का वैसा संकट नहीं रहा । हालांकि हम अभी भी कई चीज़ों का आयात करते हैं किंतु शर्मनाक स्थिति से देश उबर चुका है । इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने  राजमार्गों को विकसित करने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज प्रकल्प शुरू किया वहीँ उन्होंने ग्रामीण भारत को भी पक्की सड़क से जोडऩे का महत्वाकांक्षी अभियान चलाया। उस कारण गांवों तक आवागमन सुलभ हो सका जिसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभ किसी से छुपा नहीं है । आंध्र की नई राजधानी अमरावती का निर्माण भी सिंगापुर की तरह करने की बात चंद्राबाबू नायडू कर रहे हैं । मोदी सरकार से तेलुगु देशम के अलगाव की एक वजह इस परियोजना के लिए मुँहमांगा धन न देना भी रही । प्रश्न ये है कि वीआईपी कहलाने वाले ये नेता केवल अपने क्षेत्र को सिंगापुर, क्योटो, लंदन और न्यूयार्क बनाने की बजाय अगल.बगल के बड़े इलाके के सामान्य विकास की बात सोचकर उस पर काम क्यों नहीं करते? मुलायम सिंह और अखिलेश ने सैफई में जो कर दिखाया यदि उसे मॉडल बनाकर वे उप्र के कुछ और शहर या कस्बों का कायाकल्प कर देते तब उन्हें विकास पुरुष कहने में हिचक नहीं होती। बेहतर है विकास के नाम पर होने वाली शोशेबाजी बन्द हो । न अमेठी, सिंगापुर बने और न वाराणसी को क्योटो बनाने के ढोल पीटे जाएं । विदेशी पैसे से किये जा रहे विकास की आड़ में नेता और नौकरशाह मिलकर तो अपना घर भरने में जुटे हैं वहीं भावी पीढ़ी पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। देश में सड़क,पुल और इसी तरह के विकास कार्य तेज किये जाएँ तथा पिछड़े क्षेत्रों में बिजली, सड़क, पेयजल, उच्चतर माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के साथ प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं सर्वोच्च प्राथमिकता के तौर पर उपलब्ध करवाईं जाएं तो यही बहुत बड़ी उपलब्धि होगी ।  विकास के पश्चिमी मॉडल के ठीक विपरीत आज भी गांधी जी, डॉ. लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने विकास का जो रास्ता सुझाया वही सर्वथा उपयुक्त है वरना ख्वाबों का जो सिलसिला 70 सालों से चला आ रहा है वही आगे भी चलता रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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