Friday 6 April 2018

मानसून और विकास दर : अच्छे संकेत

आर्थिक जगत में व्याप्त अनिश्चितता और काफी हद तक अफरातफरी के माहौल में नए वित्तीय वर्ष के दौरान विकास दर के बढ़कर 7.4 प्रतिशत पहुंचने की संभावना अर्थव्यवस्था में अच्छे दिन आने की  गारंटी भले न दे लेकिन कम से कम बुरे दिनों की विदाई का आश्वासन तो दे ही रही है। नोटबन्दी और जीएसटी रूपी दोहरी मार से अर्थव्यवस्था में ठहराव ही नहीं आया वरन वह पीछे की तरफ  चल पड़ी। हालांकि इसके पीछे कुछ अन्य कारण भी थे जिनमें कमजोर मानसून भी रहा लेकिन ठींकरा फूटा मोदी सरकार की नीतियों और निर्णयों पर।  दरअसल सरकार उनका क्रियान्वयन जिस सरकारी मशीनरी के भरोसे करवाना चाहती थी, उसके रवैये में लेश मात्र का परिवर्तन नहीं होने से अच्छे फैसले भी आलोचना और आक्रोश का कारण बन गए। बहरहाल प्रधानमंत्री के धैर्य और आत्मविश्वास की तारीफ  करनी होगी कि वे विचलित हुए बिना अपने निर्णयों पर कायम रहे। इसका सुपरिणाम ये निकला कि अर्थव्यव्यस्था पूरी तरह पटरी से उतरने के बजाय धीरे-धीरे ही सही लेकिन सही दिशा में लौटती दिखाई दे रही है, जिसके संकेत गत 31 मार्च को समाप्त वित्तीय वर्ष की अंतिम दो तिमाही में मिलने लगा था। हालांकि बीते दो वर्ष में जो झटके लगे वे काफी तगड़े थे लेकिन नीतिगत दृढ़ता की वजह से  स्थिति में सुधार परिलक्षित होने लगा है। वैश्विक परिस्थितियाँ यद्यपि अभी भी उथलपुथल के संकेत दे रही हैं लेकिन भारतीय माहौल कुछ अलग है। इस वर्ष मानसून के अच्छे रहने की भविष्यवाणी ने भी उम्मीदें जगाई हैं। आगामी डेढ़ वर्ष पूरे समय चुनाव का माहौल रहेगा लिहाजा केन्द्र सरकार की तरफ  से भी कारोबारी जगत को राहत की उम्मीदें हैं। मोदी सरकार अपना आखिरी बजट पेश कर चुकी है। 2019 में आने वाला बजट तो कामचलाऊ रहेगा इसलिये किसी बड़े नीतिगत निर्णय की उम्मीद तो न के बराबर है किन्तु अभी तक जो कुछ भी किया गया उसके बेहतर नतीजे कैसे हासिल हों इस पर सरकार का ध्यान रहेगा। ये कहना गलत नहीं होगा कि जीएसटी की विसंगतियां धीरे-धीरे दूर होने लगी हैं। व्यापार जगत को इस नई कर प्रणाली से उतनी दिक्कत नहीं हुई जितनी कि उसके साथ जुड़ीं व्यवहारिक परेशानियों से। ढेर सारे रिटर्न और ऐसी ही कुछ अन्य पेचीदगियों के अतिरिक्त ऑन लाइन सेवाओं की अक्षमता ने एक अच्छे फैसले को भी विवादग्रस्त बनाकर रख दिया। चूंकि काले धन से व्यापार करना दिन ब दिन कठिन होता जा रहा है इसलिए भी सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ी। खासतौर पर जमीन-मकान का धंधा तो ठप्प होकर रह गया। नोटबन्दी और सरकार द्वारा नगदी रहित अर्थव्यव्यस्था के प्रति आग्रह ने भी कारोबारी गिरावट की स्थितियाँ उत्पन्न कर दी थीं। लेकिन गत छह माह के दौरान हालात थोड़े ही सही लेकिन सुधरे हैं। निर्माण क्षेत्र के अलावा औद्योगिक उत्पादन की स्थिति में भी आशाजनक सुधार होने से ही नए कारोबारी साल में अर्थव्यवस्था के पुन: रास्ते पर आने के संकेत मिले हैं। जिसके आधार पर विकास दर के 7.4 फीसदी रहने की आशा व्यक्त की जा रही है। अगर मानसून जैसी कि भविष्यवाणी की गई वैसा ही रहा तब उक्त आंकड़ा और ऊपर चला जाए तब अचरज नहीं होगा क्योंकि ले देकर भारतीय अर्थव्यव्यस्था का आधार खेती ही है जो काफी हद तक वर्षा आधारित है। यद्यपि अभी भी अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की चाल-ढाल पर काफी कुछ निर्भर करेगा किन्तु ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं है कि बीते वर्षों की तुलना में आने वाले वित्तीय वर्ष में कारोबार की सेहत अच्छी रहेगी। यदि अर्थव्यवस्था 7.4 प्रतिशत के आंकड़े को छू गई तब निश्चित रूप से ये बड़ी उपलब्धि होगी। हालांकि इससे नरेंद्र मोदी द्वारा किये गए अच्छे दिनों के वायदे के अनुरूप कुछ खास तो नहीं होने वाला किन्तु इतना जरूर है कि नोटबन्दी और जीएसटी के तात्कालिक नुकसान से उबरकर सरकार द्वारा दीर्घकालीन परिणाम देने वाली नीतियों के फायदे सामने आने का समय आ गया है। इनकी मात्रा कितनी होती है उसी पर देश का राजनीतिक भविष्य निर्भर करेगा। सबसे अच्छी बात ये है कि अब अर्थव्यवस्था और विकास दर भी राजनीतिक विमर्श के विषय बनने लगे  हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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