Thursday 5 April 2018

जनता ही क्यों, सांसद भी तो कुछ त्याग करें

चारों तरफ  हिंसा, घृणा और आरोप-प्रत्यारोप के बीच गर्मी में भी ठंडक का एहसास करवाने वाली एक खबर आई। वैसे इसे मुखपृष्ठ पर प्रमुखता मिलना चाहिए था लेकिन यह साधारण समाचार बना दिया गया। संसदीय कार्य मंत्री अनंत कुमार ने गत दिवस बताया कि संसद में चल रहे हंगामे की वजह से बीते 23 दिन से कार्रवाई चूंकि नहीं चल पा रही इसलिए एनडीए सांसद इस अवधि का वेतन और भत्ते नहीं लेंगे। विपक्ष इस कदम का क्या जवाब देता है ये देखने वाली बात होगी। देश का जनमत संसद के न चलने पर बेहद आक्रोशित होता जा रहा है। जिसके लिए दोनों पक्ष बराबर के कसूरवार हैं क्योंकि विपक्ष में रहते हुए भाजपा और उसके सहयोगी भी सदन को लगातार बाधित किया करते थे। वर्तमान वित्तमंत्री अरुण जेटली ने तब हंगामे को भी संसदीय प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा बताते हुए विपक्ष के रवैये का बचाव किया था। वर्तमान में फर्क केवल ये है कि जो सत्ता में थे वे विपक्ष में आ बैठे और विपक्षी कुर्सियों वाले सत्ताधारी बन गए। उस समय कांग्रेस भाजपा पर बहस से भागने का आरोप लगाती थी और अब भाजपा वही कर रही है। उधर जनता के मन में ये बात गहराई से बैठती जा रही है कि हंगामे की वजह से संसद के ठप्प रहने पर करोड़ों रुपये का नुकसान तो होता ही है , अनेक महवपूर्ण विषय एवं विधेयक भी लंबित रह जाते हैं। देश में इतना बड़ा दलित आन्दोलन हो गया जिसमें दर्जन भर से ज्यादा लोग मारे गए लेकिन संसद को इस बारे में चर्चा की फुर्सत तक नहीं मिली। बजट सत्र बेहद महत्वपूर्ण और सबसे लम्बा चलता है जिसमें देश की आर्थिक दिशा तय होती है। वर्तमान गतिरोध की स्थिति ये है कि कतिपय विपक्षी दलों द्वारा प्रस्तुत अविश्वास प्रस्ताव  तक विचारार्थ नहीं आ पा रहा। एनडीए सांसदों द्वारा काम नहीं तो वेतन नहीं के सिद्धान्त पर चलने का जो फैसला लिया वह पूरी तरह जनअपेक्षाओं के अनुरूप है किंतु इसके पीछे भी नैतिकता कम और राजनीतिक पैंतरेबाजी ज्यादा है। अनंत कुमार यदि कहते कि भाजपा और उसके सहयोगी दल भविष्य में जब-जब भी सदन नहीं चलेगा तब-तब वेतन - भत्ता नहीं लेंगे तो बात जमती भी लेकिन एनडीए सांसदों ने  बीते 23 दिनों का मेहनताना छोड़ा है जिसे स्थायी नीतिगत निर्णय नहीं कहा जा सकता।  फिर भी इसका स्वागत होना चाहिये। जब जागे तब सवेरा की तर्ज पर सांसदों को जवाबदेह बनाने के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया था। दोनों सदनों के सांसदों पर 130 करोड़ जनता की आशाओं को पूरा करने का दायित्व होता है लेकिन वे अपनी जिम्मेदारी के प्रति अव्वल दर्जे की जो लापरवाही दिखाते हैं वह असहनीय होती जा रही है। उन्हें मिलने वाले वेतन,भत्ते , सस्ता आवास, नि:शुल्क रेल और हवाई यात्रा सहित संसद की कैंटीन में बेहद सस्ता भोजन जनता की आंखों में खटकने लगा है। मोदी सरकार ने आम जनता से रसोई गैस की सब्सिडी त्यागने की जो अपील की उसका असर ये हुआ कि लाखों उपभोक्ताओं ने सब्सिडी छोड़ दी। इसी तरह रेल्वे में वरिष्ठ नागरिकों को किराए में मिलने वाली छूट छोडऩे की अपील ने भी असर दिखाया और 10 लाख से भी ज्यादा बुजुर्गों ने सीनियर सिटीजन कन्सेशन त्याग दिया। एक तरफ  तो देशहित में जब भी  सरकार लोगों से कुछ त्यागने की अपेक्षा करती है तो भावनाओं में बहकर वे उसका सकारात्मक उत्तर देते हैं किन्तु दूसरी तरफ संसद के भीतर होने वाले हंगामे के बावजूद जब सांसदों के वेतन- भत्ते और अन्य सुविधाएं बढ़ाने का प्रस्ताव आता है तब सभी दलों के सदस्य मिलकर बिना बहस उसे मंजूरी दिलवा देते हैं। ये दुर्भाग्य है कि आम जनता की तरह त्याग करने में सांसद सदैव फिसड्डी रहते हैं। राज्यसभा में छह वर्ष का कार्यकाल पूर्ण होने पर सचिन तेंदुलकर की नगण्य उपस्थिति और सदन की कार्रवाही में न के बराबर  योगदान का खुलासा होने के बाद शर्मवश उन्होंने अपने कार्यकाल का पूरा वेतन लौटाने का ऐलान कर दिया किन्तु अन्य सांसदों पर इसका कोई असर नहीं हुआ। अनंत कुमार ने एनडीए सांसदों द्वारा संसद में कामकाज ठप्प रहने की वजह से बीते तीन हफ्ते के वेतन-भत्ते त्यागने की जो बात कही वह तो अच्छी लगी ही लेकिन लगे हाथ ये घोषणा भी अपेक्षित है कि आगे से एनडीए सांसद रसोई गैस सब्सिडी का भी त्याग करेंगे। साथ ही संसद स्थित कैंटीन  के भोजन पर दी जा रही सब्सिडी खत्म की जाएगी। जनता का भरोसा जीतने हेतु  सांसद और भी बहुत कुछ छोड़ सकते हैं, बशर्ते उनमें जनता की तकलीफों को समझने की सम्वेदनशीलता हो। एनडीए सांसदों का निर्णय अन्य दलों के लिए प्रेरणास्रोत बने यह अपेक्षा गलत नहीं होगी। मुल्क के सेवक कहलाने वाले जिस तरह मुल्क के मालिक बन बैठे उसी वजह से जनता के मन में लोकतन्त्र के प्रति विश्वास के बावजूद संसद और सांसदों का सम्मान घटते-घटते जमीन पर आ गया है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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