Thursday 1 October 2020

तो अशिक्षा, दकियानूसीपन और पिछड़ापन क्या बुरे थे?




उप्र के हाथरस में सामूहिक दुष्कर्म के बाद ह्त्या की वीभत्स घटना ने हर संवेदनशील इन्सान को झकझोर कर रख दिया। वारदात का विवरण दरिंदगी का चरमोत्कर्ष है। इस कांड में पुलिस और प्रशासन की भूमिका भी चौंकाने वाली है। पीड़िता का अंतिम संस्कार रात के अँधेरे में किये जाने पर भी सजातीय वाल्मीकि समाज आंदोलित है। उप्र सरकार ने परिजनों को 25 लाख का मुआवजा देने के साथ ही जांच हेतु एसआईटी गठित कर दी है। ये मामला अभी गर्म ही था कि गत दिवस बलरामपुर में एक और घटना हो गई। इनके कारण राज्य की योगी सरकार पर चौतरफा हमले होने लगे। विपक्ष तो पहले ही राज्य में कानून व्यवस्था को लेकर आक्रामक था। आज राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा हाथरस जा रहे हैं। हो सकता है उन्हें प्रशासन पहले ही रोक ले। हालाँकि उनके इस कदम का कोई औचित्य भी नहीं है। दरअसल दुष्कर्म के बाद नृशंस तरीके से हत्या कर देने की प्रवृत्ति कानून व्यवस्था से ज्यादा समाज के बदलते स्वभाव का परिचायक है। दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद कानून को सख्त किये जाने के साथ ही अदालतों द्वारा त्वरित न्याय किये जाने का चलन भी शुरू हुआ। भोपाल में तो बलात्कार के एक मामले में एक महीने से भी कम समय में न्यायालय ने आरोपी को सजा सुना दी। निर्भया काण्ड ने पूरे देश को मानसिक तौर पर आंदोलित किया था। मोमबत्ती जलाने, मौन जुलूस, पोस्टर सहित धरना आदि का सैलाब आ गया। देश की महिला शक्ति ने उस कांड पर संगठित विरोध का जो प्रदर्शन किया उससे उनका गुस्सा प्रकट हुआ। लेकिन लम्बी अदालती जंग के बाद जब अपराधियों को सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रपति ने भी क्षमा करने से इंकार कर दिया और फांसी की तिथि तय हो गई तब भी उन्हें बचाने का एक और कानूनी प्रयास आधी रात को हुआ। अपराधियों के वकील द्वारा लगाई गई अर्जी पर विचार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय आधी रात के बाद खुला और सुनवाई की गई। यद्यपि फांसी नहीं टली और कुछ घंटों के बाद ही निर्भया को अमानुषिक यातना देकर मौत के घाट उतारने वाले लाश में तब्दील हो गये। लेकिन देश के सबसे ज्यादा चर्चित उस काण्ड के अपराधियों को मिले मृत्युदंड को क्रियान्वित किये जाने में जितना समय लगा उसको लेकर समूची न्याय प्रणाली आलोचना का शिकार हुई। विशेष रूप से फांसी के कुछ घंटे पहले देर रात सर्वोच्च न्यायालय खोला जाना किसी को रास नहीं आया। उल्लेखनीय है आतंकवादी याकूब मेनन की फांसी के पहले भी इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय ने देर रात बैठकर सुनवाई की थी। जब किसी की जान का सवाल हो तब न्यायालय यदि इस तरह की संवेदनशीलता दिखाए तब उसकी मंशा पर शक नहीं करना चाहिए किन्तु एक आतंकवादी और बलात्कारी के प्रति इस तरह की सौजन्यता अपराधियों के हौसले मजबूत करने का आधार बन जाती है। और उन अधिवक्ताओं को क्या कहें जो ऐसे नराधमों को बाइज्जत बरी करवाने के लिए अपने विधिक ज्ञान का दुरूपयोग करते हैं। हाथरस और बलरामपुर दोनों की घटनाओं में पीड़िता की अस्मत लूटने के साथ ही उसे जिस बेरहमी से मारा गया वह इस बात का प्रमाण है कि अपराधी केवल दुष्कर्मी ही नहीं अपितु राक्षसी मानसिकता से ग्रसित भी थे। इस तरह की घटनाएँ केवल उप्र तक ही सीमित न होकर देशव्यापी बीमारी के रूप में सामने आने लगी हैं। संचार क्रांति के इस दौर में किसी भी घटना की जानकारी सर्वत्र फ़ैल जाती है। सोशल मीडिया भी अपनी शैली में सक्रिय हो उठता है और टीवी चैनलों को दो-चार दिन के लिए सामग्री मिल जाती है। लेकिन विचारणीय विषय ये है कि कठोरतम कानून और समाज की रोषपूर्ण प्रतिक्रिया के बावजूद यदि बलात्कार और उसके बाद बहशियाना तरीके से की जाने वाली हत्या की घटनाएँ रुकने का नाम नहीं ले रहीं तो चिंता और भी बढ़ जाती है। अदालतें बेशक बलात्कारियों के प्रति किसी भी प्रकार की नरमी नहीं दिखातीं और कड़े से कड़ा दंड भी देती हैं। लेकिन उस सबका कोई असर होता नहीं दीखता। और यही समाजशास्त्रियों के लिए अध्ययन और विश्लेषण का विषय होना चाहिए। बढ़ते यौन अपराध और उनके साथ हत्या जैसी वारदातें केवल कानून व्यवस्था की नहीं वरन सामाजिक चिंता का विषय भी होना चाहिए। इसके लिए साहित्य, फिल्में, टेलीविजन और इंटरनेट सभी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। इसलिए समस्या का वस्तुपरक विश्लेषण होना चाहिए। इस तरह की घटनाओं को पूरे समाज के चरित्र का पैमाना नहीं माना जा सकता लेकिन इतना तो कहना ही पड़ेगा कि परवरिश और संस्कारों के हस्तांतरण में कहीं न कहीं लापरवाही तो हो रही है। गाँव-मोहल्ले की लड़की को अपनी बेटी और बहिन मानने वाले समाज में इस तरह के नरपिशाचों का लगातार बढ़ते जाना चिंता से ज्यादा गम्भीर चिन्तन का भी विषय है। यदि यही शिक्षा, आधुनिकता और विकास का प्रतिफल है तो फिर अशिक्षा, दकियानूसीपन और पिछड़ापन क्या बुरे थे?

- रवीन्द्र वाजपेयी

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