Monday 8 November 2021

नोट बंदी का दूसरा चरण लागू किया जावे लेकिन ........



आज से पांच साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रात 8 बजे जब राष्ट्र को सम्बोधित करने वाले थे तब किसी को इस बात की भनक तक नहीं थी कि वे क्या बोलेंगे? यहाँ तक कि उनके वरिष्ठ मंत्री बेखबर थे। लेकिन ज्योंही उन्होंने एक हजार और पांच सौ के नोट बंद करने का ऐलान किया त्योंही हड़कंप मच गया। आगामी कुछ महीने तक देश जबरदस्त आर्थिक अनिश्चितता और अव्यवस्था से गुजरा। बैंकों में जमा अपनी रकम निकालने में भी लोगों को अकल्पनीय परेशानी झेलनी पड़ी। शादियों के आयोजन तक रद्द हो गये। बैंकिंग व्यवस्था पर विश्वास में भी कमी आई। नोट बंदी का सबसे बड़ा मकसद काले धन को बाहर लाना था। प्रधानमंत्री को भरोसा था कि जिनके पास काली कमाई वाले बड़े नोट थे वे रद्दी कागज बनकर रह जायेंगे। लेकिन काला धन रखने वाले ज्यादा चालाक निकले। व्यवस्था जनित खामियों का सहारा लेते हुए काली कमाई को किस तरह बैंकों तक पहुंचाकर वे नुकसान से बचे ये सर्वविदित है। श्री मोदी का वह कदम बहुत ही साहसिक और सामयिक था। भ्रष्टाचार ने देश में काली कमाई को जो बड़ा भंडार पैदा कर दिया था उसकी वजह से अर्थव्यवस्था को वांछित दिशा नहीं मिल पा रही थी। ये कहना गलत न होगा कि व्यापार-उद्योग से जुड़े लोगों द्वारा कर चोरी करते हुए अर्जित काले धन की तुलना में भ्रष्ट नौकरशाहों और नेताओं द्वारा अर्जित काली कमाई भी कम नहीं थी। इसीलिये प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सरकार द्वारा लगातार ऐसे कदम उठाये जाते रहे जिनकी वजह से उस कड़े फैसले में लचीलापन आने से देखते-देखते तकरीबन पूरा काला धन बैंकों में आ गया। सरकार इस बात का संतोषजनक जवाब आज तक नहीं दे सकी कि जब एक हजार और पांच सौ के प्रतिबंधित लगभग सभी नोट बैंकों में आ गये तब काले धन की बात कहाँ तक सही थी? दरअसल नोट बंदी का फैसला प्रधानमंत्री ने अर्थक्रांति नामक जिस संस्था के सुझाव पर लिया उसके संस्थापक अनिल बोकिल ने उनको उसके लाभ बताये थे। लेकिन उनके सुझावों को एक तो आधा-अधूरा लागू किया गया और दूसरी गलती ये हुई कि समाचार माध्यमों के साथ राजनीतिक जगत द्वारा नोट बंदी से मची अव्यवस्था पर जो हल्ला मचाया गया उसके दबाव में आकर रोजाना नये-नये फैसले किये गये जिससे उस ऐतिहासिक निर्णय का पूरा लाभ नहीं मिल सका, उल्टे कारोबार में जबरदस्त ठहराव आ गया। ये तर्क भी चारों तरफ से उछला कि बिना काले धन के अर्थव्यवस्था चल ही नहीं सकती। हालाँकि काले धन को किसी तरह बैंकों में जमा करवाने में सफल लोग नुकसान से तो बच गये लेकिन आगे उसका उपयोग करने में उनके सामने अनेक व्यवहारिक परेशानियाँ आईं। इसकी वजह से कारोबार प्रभावित हुआ और कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि पांच साल बाद भी नोट बंदी की चोट से उद्योग-व्यापार जगत उबर नहीं सका। यद्यपि उस फैसले का सकारात्मक पहलू भी है जो आलोचनाओं के पहाड़ तले दबकर रह गया। इसमें दो राय नहीं है कि नोट बंदी के बावजूद जो काला धन बैंकों में पहुंचकर वैध हो गया उसको चलन में लाना मुश्किल हुआ और नगदी की कमी होने से डिजिटल लेनदेन भी बढ़ा। नई पीढ़ी तो छोटी-छोटी खरीदी तक नगदी रहित करती है। पान, चाय और सब्जी के ठेलों तक पर पेटीएम से भुगतान स्वीकार किया जाने लगा है। नोट बंदी के बाद सरकार ने पाँच सौ और दो हजार के साथ ही दो सौ के नए नोट भी जारी किये। लेकिन एक हजार का नोट बंद कर दो हजार का जारी करने का औचित्य समझ से परे था। ये कहना गलत न होगा कि ज्योंही वह चलन में आया उसे नये काले धन के तौर पर छिपाकर रखा जाने लगा। सरकार को भी आखिरकार ये भूल समझ में आई और इसीलिये बैंकों से दो हजार का नोट मिलना बंद सा कर दिया गया। लेकिन पांच सौ का नोट भरपूर उपलब्ध है, जबकि अर्थक्रांति के प्रणेता श्री बोकिल के अनुसार एक सौ से बड़ा नोट होना ही नहीं चाहिए ताकि नगदी के लेनदेन में तकलीफ होने से लोग डिजिटल को अपनाएं। उनका मूल सुझाव तो ये था कि आयात कर को छोड़कर आयकर जैसे तमाम कर और कानून रद्द करते हुए बैंकों में जमा की जाने वाली राशि पर निश्चित दर से करारोपण किया जावे। ऐसा करने से कर चोरी की प्रवृत्ति पर विराम लगेगा। अर्थ क्रांति द्वारा इस बारे में किये गये अध्ययन से प्रधानमंत्री सहमत तो हुए लेकिन उसे पूरी तरह लागू करने की बजाय आंशिक तौर पर अपनाये जाने से नोट बंदी से होने वाला लाभ भी खंडित हो गया। इसीलिये पाँच साल बाद भी न काले धन की समस्या हल हुई और न ही भ्रष्टाचार रुका। वस्तुत: नेता और नौकरशाहों का अपवित्र गठबंधन ही काले धन की उत्पत्ति का सबसे बड़ा कारण है जिसे तोड़ने में प्रधानमंत्री भी सफल नहीं हो सके। लेकिन अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। बेहतर होगा हालातों का जायजा लेते हुए नोट बंदी के अगले चरण में आगे बढ़ा जावे। जिसमें एक सौ से उपर के सभी नोट बंद कर दिए जावें। लेकिन इसके लिए निश्चित की गई समय सीमा को बार-बार बढ़ाने जैसी गलती न दोहराई जावे। पिछली बार पेट्रोल पम्प और सरकारी विभागों द्वारा की जाने वाली वसूली के जरिये काली कमाई बैंकों तक आई थी। लेकिन इस बार केवल बैंक में जमा करने का विकल्प रखा जावे और उनको भी ये निर्देश हों कि जमाकर्ता द्वारा जमा किये गए नोटों के बदले यदि वह चाहे तो तत्काल दूसरे नोट लौटाएं क्योंकि किसी को पैसा निकालने से रोकने से जनरोष बढ़ता है। नोट बंदी के पांच साल पूरे होने पर ये कहना पूरी तरह से सही होगा कि वह देश हित में उठाया गया बहुत ही हिम्मत भरा फैसला था जिसके लिए श्री मोदी को प्रारम्भिक स्तर पर विपक्षी दलों से भी प्रशंसा प्राप्त हुई किन्तु उसे अमल में लाने के तरीके और रोजाना उनमें किये गए बदलाव से एक अच्छी कोशिश भी अव्यवस्था में फंसकर रह गई। नोट बंदी से जुड़े अनेक मुद्दों पर रहस्य का पर्दा पड़ा रहने से भी सवाल उठते हैं। समय की मांग है कि प्रधानमंत्री नोट बंदी के दूसरे चरण को लागू करने का साहस दिखाएँ। पिछली गलतियों को दोहराने से बचते हुए जनता को परेशान किये बिना यदि सरकार भ्रष्टाचार और काले धन के मुख्य स्रोत को बंद करने की दिशा में बढ़ेगी तो जनता भी उसके साथ खड़े होने में संकोच नहीं करेगी। स्मरणीय है कि नोट बंदी के बाद हुए उ.प्र विधानसभा के चुनाव में भाजपा को भारी बहुमत मिला था। दरअसल नोट बंदी के दौरान हुई बदइन्तजामी के बाद जीएसटी लागू करने में भी जिस तरह की अनिश्चितता और अनिर्णय के हालात बने उसका बुरा असर व्यापार पर भी पड़ा। लेकिन अब जीएसटी तकरीबन पूरी तरह लागू हो चुका है और देश का बड़ा वर्ग डिजिटल लेनदेन को अपनाता जा रहा है। ऐसे में ये सही समय है जब अर्थ क्रांति द्वारा सुझाई गई नोट बंदी को उसके सही स्वरूप में बिना हड़बड़ाहट के लागू किया जावे। लोकसभा का अगला चुनाव चूँकि ढाई साल दूर है ऐसे में प्रधानमंत्री बिना दबाव के फैसला ले सकते हैं। कोरोना के बाद भारत की अर्थव्यवस्था को यदि मजबूत बनाना है तो उसके लिए कर प्रणाली की विसंगतियां दूर कर उन्हें व्यवहारिक बनाना होगा। बड़े नोट बंद कर बैंक में जमा की जाने वाली नगदी पर कर लगाने से काले धन और भ्रष्टाचार पर काफी हद तक रोक लगाना आसान होगा। ये बात काफी हद तक सही है कि लोग कर देना चाहते हैं, लेकिन सरकारी व्यवस्था उन्हें चोरी करने बाध्य कर देती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment