Monday 15 November 2021

आदिवासी अंचलों में राष्ट्रवादी सोच का प्रसार अच्छा संकेत



 
किसी राजनीतिक दल द्वारा किये जाने वाले हर कार्य के पीछे अगला चुनाव होता है | उस दृष्टि से म.प्र सरकार द्वारा आज आदिवासी समुदाय के प्रेरणा पुरुष अमर  शहीद बिरसा मुंडा की जयन्ती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाये जाने को भी भाजपा की राजनीतिक योजना कहना गलत नहीं होगा | प्रदेश कांग्रेस के नेता कमलनाथ और दिग्विजय सिंह इस कार्यक्रम की जोरदार आलोचना करते हुए कह रहे हैं कि भाजपा को जनजातीय गौरव दिवस मनाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि उसने इस वर्ग के लिए कुछ नहीं किया | लेकिन राजनीतिक विश्लेषक भाजपा की इस व्यूहरचना को समझ रहे हैं | कुछ समय पूर्व जबलपुर में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी आदिवासी सम्मलेन में आये थे | हाल ही में इस समुदाय के प्रभाव वाली जोबट विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा की जीत से उसका उत्साह बढ़ा है | बिरसा मुंडा वैसे तो झारखण्ड में आदिवासियों के महानायक माने जाते हैं लेकिन बिहार , उड़ीसा , छत्तीसगढ़ , म.प्र और महाराष्ट्र  के बहुत बड़े जनजातीय इलाके में उनके प्रति श्रद्धा है | ये समूचा इलाका ईसाई मिशनारियों के साथ ही नक्सली गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है | भाजपा के वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ ने लंबे  समय से आदिवासी क्षेत्रों में जिस तरह सक्रियता बढ़ाई उसके कारण वहां मुख्य धारा की सोच को जगह मिली है | धर्मांतरण के अभियान को भी इससे धक्का पहुंचा वहीं नक्सली आतंक के विरुद्ध भी लोग सामने आने लगे हैं | दरअसल जनजातीय समुदाय को हिन्दू धर्म से अलग करने का विदेशी षडयंत्र आजादी के बाद लगातार सफल होता गया | इसी के चलते पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाववादी संगठन खड़े हुए | म.प्र सरकार ने भोपाल के नव विकसित हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति करने का जो दांव चला वह हर किसी को चौंका गया | प्रदेश की राजधानी पर कभी आदिवासी राजपरिवार के शासन की जानकारी तो अच्छे – अच्छों को नहीं होगी | और फिर बड़ी मुस्लिम आबादी और नवाबी विरासत के  कारण भोपाल के प्रमुख स्टेशन का मुस्लिम नाम बदलकर आदिवासी रानी का नाम देना साहस भरा काम भी है | रानी कमलापति के इतिहास पर पड़ी धूल को एक झटके में साफ़ कर देना वाकई राजनीतिक सूझ - बूझ का उदाहरण है | इस अवसर पर प्रधानमन्त्री का आगमन और आदिवासियों का विशाल सम्मलेन भी भाजपाई रणनीतिकारों की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है | भले ऐसे आयोजनों का तुरंत असर न दिखाई देता हो लेकिन भाजपा , जिसे अब तक शहरी मध्यम वर्ग और व्यापारियों की पार्टी माना जाता रहा , जिस सुनियोजित ढंग से जनजातीय क्षेत्रों में पकड़ बनाती जा रही है उसका परिणम मणिपुर सहित  अन्य  पूर्वोत्तर राज्यों में देखा जा सकता है | बिरसा मुंडा तो खैर जनजातीय समुदाय में महानायक के तौर पर पूजित हैं लेकिन रानी कमलापति को अचानक विस्मृति और उपेक्षा से निकालकर राष्ट्रव्यापी प्रसिद्धि दिलवाना बहुत बड़ी बात है | हबीबगंज स्टेशन को  स्व. अटलबिहारी वाजपेयी के नाम करने की मांग कतिपय भाजपा नेताओं द्वारा  उठाई जा रही थी और ऐसी उम्मीद थी कि वह मंजूर भी  कर  ली जावेगी किन्तु सबको चौंकाते हुए रानी कमलापति के नाम का चयन किया गया | इसके पूर्व भाजपा ने गत वर्ष म.प्र से आदिवासी कार्यकर्ता  डा. सुमेर सोलंकी को राज्यसभा में भेजकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था | प्रदेश में अगला विधानसभा चुनाव 2023 में होगा | भाजपा के चुनाव प्रबंधक इस बात को भूले नहीं हैं कि अति आत्मविश्वास के चलते 2018 में पार्टी के हाथ से सत्ता खिसक गई थी | हालाँकि महज 15 माह बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया की अतृप्त महत्वाकांक्षाओं की वजह से भाजपा को सत्ता दोबारा  हासिल हो गई लेकिन पार्टी इस बात से भी आशंकित रहती है कि कांग्रेस से आये विधायक भले ही शिवराज सरकार में भी मंत्री बने हुए हैं लेकिन अगले चुनाव के पहले उनमें से कुछ वापिस लौट जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा | इसीलिये पार्टी ने आदिवासी वर्ग के बीच पैठ बनाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है | भोपाल में आज हो रहा आदिवासियों का जमावड़ा और उसमें प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी का हिस्सा लेना महज सरकारी जलसा न होकर भाजपा और संघ परिवार की उस कार्य योजना का हिस्सा है जिसके अंतर्गत आदिवासियों को हिन्दू धर्म से दूर करते हुए मुख्य धारा से काट देने के षडयंत्र को विफल करना है | आदिवासी इलाकों में नक्सली गतिविधियाँ भी इसी कारण बढ़ीं क्योंकि विकास के नाम पर आया अनाप – शनाप धन नेता और नौकरशाहों की जेबों में जाता रहा जिसके कारण आदिवासी इलाके विकास की रोशनी से वंचित रह गये | यदि  ईमानदारी होती तो बीते सात दशक में आदिवासी इलाके और उनमें  रहने वाले धर्मांतरण करने वाली ताकतों के अलावा नक्सली जाल में न फंसे होते |  भाजपा की जहाँ – जहाँ सरकारें हैं वहां रामराज आ गया हो ऐसा तो नहीं है लेकिन ये बात सही है कि 2014 के बाद से रास्वसंघ ने उन अनछुए क्षेत्रों में अपनी गतिविधियाँ सफलतापूर्वक तेज कीं जिन्हें मुख्यधारा से काटकर देशविरोधी ताकतें अपने प्रभाव में लेने में कामयाब हो रही थीं  | आदिवासी समुदाय सांस्कृतिक तौर पर हिन्दुत्व का हिस्सा रहा है लेकिन उसके मन में हिन्दू विरोधी ज़हर बोने का काम बड़े पैमाने पर किया जाता रहा जिसके लिए विदेशी पैसे का उपयोग किसी से छिपा नहीं है | वैसे इस विषय पर राजनीति से ऊपर उठकर सोचना चाहिए क्योंकि  आदिवासी समुदाय केवल वोट बैंक नहीं वरन इस देश की 135 करोड़ से अधिक जनसंख्या का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं | अशिक्षा और शहरी सभ्यता से दूर रहने के बावजूद देश की आजादी के लिए उसने भी  बलिदान दिए | जिनमें साधारण व्यक्ति से लेकर राजवंशीय विभूतियाँ भी थीं | आजादी के बाद उनके उत्थान के लिए कहने को तो बहुत कुछ किया गया लेकिन उन कोशिशों का समुचित लाभ नहीं होने के कारण  देश विरोधी शक्तियों को उनके मन में जहर भरने का अवसर मिल गया | ये अच्छा संकेत है कि आदिवासी वर्ग के बीच मुख्यधारा की राष्ट्रवादी राजनीति पूरे जोर से प्रवेश करने को तैयार है | चुनावी जीत हार से अलग हटकर देखें तो ये मानना ही होगा कि आरक्षण भी अपना असर खोता जा रहा है क्योंकि निजीकरण के चलते सरकारी नौकरियां सिमटने लगी हैं | ऐसे में आदिवासी अंचलों में यदि विकास की रोशनी नहीं पहुंचती तब वहाँ विघटनकारी ताकतों की पकड़ और मजबूत होती जायेगी जो किसी भी दृष्टि से देश हित में नहीं होगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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