Monday 21 November 2022

टूटते परिवार और बिखरते संस्कार समस्या का असली कारण



दूसरी जाति या धर्म में विवाह आज के दौर में अटपटा नहीं लगता | शिक्षा के प्रसार के कारण लड़कियां भी पढ़ाई , नौकरी और व्यवसाय के सिलसिले में विदेश तक जाने लगी हैं | यही नहीं तो वे अपना जीवनसाथी चुनने में संकोच नहीं करतीं | जिसे सामान्यतः उनके परिजन भी स्वीकार कर लेते हैं | वैसे भी माता – पिता अपनी संतान के सुखी भविष्य पर  ही  ध्यान देते हैं | यद्यपि कुछ अपवाद भी  हैं | विशेष रूप से हरियाणा जैसे राज्य में जहाँ जातिगत ऊंच - नीच के आधार पर प्रेम विवाह का विरोध ऑनर किलिंग जैसी घटनाओं के रूप में भी सामने आया है | दूसरी तरफ अति आधुनिक सोच रखने वाले वर्ग में लिव इन का भी प्रचलन बढ़ा है | प्रौढ़ावस्था के अनेक विधुर और विधवाएं वृद्धावस्था के एकाकीपन से बचने के लिए विवाह या लिव इन का सहारा लेते हैं | खास तौर पर जो या तो पूरी तरह अकेले रह जाते हैं या फिर जिनके बेटे – बेटी दूर – दूर बसे हैं | अनेक बुजुर्ग ऐसे भी हैं जो अपनी संतानों के बुलावे पर विदेश जाते तो हैं लेकिन वहां  अकेलापन महसूस होने से कुछ माह बाद ही लौट आते हैं | भारत की परिवार व्यवस्था ने सदियों तक व्यक्ति को अकेलेपन से बचाए रखा किन्तु आधुनिकता और आर्थिक विषमता से उत्पन्न श्रेष्ठता अथवा हीनता के भाव ने पहले कुटुंब तोड़े और फिर संयुक्त परिवार नामक व्यवस्था  भी परिस्थितियोंवश छिन्न – भिन्न होती गयी | इसके तात्कालिक लाभ तो नजर आते हैं किन्तु धीरे – धीरे  अप्रत्यक्ष नुकसान भी महसूस किये जाने लगे हैं  | जिन परिवारों में पति - पत्नी दोनों  घर से बाहर काम करते हैं उनमें बच्चों का लालन – पालन बड़ी समस्या बनता जा रहा है | हालाँकि अब संयुक्त परिवार का पुराना दौर लौटना लगभग नामुमकिन है | दुनिया जब एक वैश्विक गाँव बनकर रह गई हो और  संचार साधनों ने भौगोलिक दूरी को आभासी निकटता में बदल दिया हो तब नौकरी या व्यवसाय के लिए अपने शहर तक सीमित रह पाना संभव नहीं है | अब तो अमेरिका , ऑस्ट्रेलिया , ब्रिटेन , कैनेडा में लाखों भारतवशियों का स्थायी निवास हो गया है | किशोर तक विदेश जाने के सपने देखने लगे हैं | निश्चित रूप से देश के विकास में इस सबका बड़ा योगदान है किन्तु इसकी वजह से अनेक सामाजिक समस्याएँ भी जन्म ले रही हैं | बीते कुछ समय से एक युवती के 35 टुकड़े करने का प्रकरण चर्चा में बना हुआ है | हिन्दू लडकी का अपने परिजनों की अस्वीकृति के बाद भी किसी अन्य धर्म के युवक के साथ रहना और बाद में उसकी नृशंस हत्या  निश्चित तौर पर विक्षिप्त मानसिकता का ही परिणाम  है | जो जानकारी आ रही है वह दिल दहलाने वाली है | प्रेम संबंधों में खटपट अस्वाभाविक नहीं होती लेकिन उसका ऐसा अंजाम अकल्पनीय है |  लगातार ऐसी घटनाएँ हो रही हैं जिनमें प्रेमी – प्रेमिका ही नहीं अपितु अवैध संबंधों के चलते अपने निकटवर्ती रिश्ते में भी हत्या की जाने लगी है | सामान्य तौर पर इसे कानून से जोड़कर देखा जाता है लेकिन दरअसल ये सामाजिक समस्या है और इसीलिये इस पर सामाजिक स्तर पर चिंतन – मनन  होना  चाहिए | संयुक्त परिवार में दादा – दादी जैसी अनुभवी आँखें बच्चों पर निगाह रखा करती थीं | समाज की सोच और समयानुकूल संस्कार  और समझाइश भी उनके जरिये अगली पीढ़ी को मिलती थी | लेकिन एकाकी परिवारों में  पति – पत्नी की व्यस्तता की वजह से बच्चों के साथ संवाद निरंतर कम हो रहे हैं  | टीवी और मोबाइल के अतिशय उपयोग की वजह से साथ उठने – बैठने और खाने – पीने का सिलसिला कम होना सर्वविदित है | और इसी  कारण समस्याएं जन्म ले रही हैं | हाल ही में घटी अनेक वारदातें परिवार द्वारा दिए जाने वाले  संस्कारों की कमी का परिणाम ही हैं | बेटे - बेटियों को अपना भविष्य चुनने की छूट देना बुरा नहीं है | जाति और धर्म की सीमाएं लांघकर विवाह करने की  बात को भी बुरा नहीं माना जा सकता | लेकिन अपनी संतानों को ये समझाइश देना माता – पिता का प्राथमिक दायित्व है कि वे अपनी निर्णय  प्रक्रिया में उन्हें न सिर्फ शामिल करें अपितु उनकी सलाह को गंभीरता से लें | अपने अनुभव के आधार पर अभिभावक आम तौर पर बच्चों को जो सलाह देते हैं वह उनके हित में ही होती है | यदि माता – पिता की शिक्षा आज के युगानुकूल न हो और वे अपनी संतान द्वारा किये जा रहे फैसलों का गुण दोष के आधार पर विश्लेषण करने में असमर्थ हों तब भी बच्चों को चाहिए वे उन्हें प्रामाणिकता के साथ आश्वस्त करें | ऐसे मामलों में बच्चों की स्वेच्छाचरिता अक्सर गलत परिणाम का कारण बनती है | श्रद्धा हत्याकांड के बाद लव जिहाद को लेकर नये सिरे से विवाद शुरू हो गया है | सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की बाढ़ आ गई है | संस्कारों की पाठशाला के तौर पर परिवार और बतौर शिक्षक माता – पिता की भूमिका पर विमर्श चल पड़ा है | दरअसल 21 वीं सदी का भारत वैचारिक संक्रान्तिकाल से गुजर रहा है | आधुनिकता का प्रतीक मानी जाने वाली पाश्चात्य संस्कृति की असलियत जिस वीभत्स रूप में अनावृत्त हो रही है उससे सीख लेते हुए हमें अपनी परखी हुई सांस्कृतिक विरासत को सहेजकर उसके अनुरूप अपने सामाजिक आचरण को ढालना होगा अन्यथा श्रद्धा आगे भी काटी जाती रहेंगी | प्रेम और विवाह जैसे फैसलों में समाज और परिवार की अवहेलना की परम्परा सदियों से रही है | लेकिन तब  और आज की  सोच में  सबसे बड़ा अंतर ये है कि तब सम्बन्धों की पवित्रता का सम्मान होता था | लेकिन अब खाओ , पियो मौज करो और भूल जाओ वाली मानसिकता हावी है जिसमें रात गयी , बात गयी वाली बात लागू होने लगी है | ऐसे में जरूरी है कि आर्थिक और वैज्ञानिक प्रगति के साथ  ही सामाजिक ढांचे की मजबूती पर भी ध्यान दिया जाए | जिन विकसित देशों की चकाचौंध हमें आकर्षित कर रही है उनमें परिवारों की टूटन से सामाजिक विघटन के हालात पैदा गये हैं | पति – पत्नी के सम्बन्ध विच्छेद के बाद संतानों की दुर्गति बड़ी समस्या बन रही है | अनेक संस्थान भारत की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था का अध्ययन करने में जुटे हैं | ऐसे में हम गहराई तक जाकर सोचें  तो ये समझते देर नहीं लगेगी कि भारतीय परिवार व्यवस्था अपने आप में सर्वश्रेष्ठ और पर्याप्त है जिसमें रहने वाला हर सदस्य एक दूसरे पर निर्भर है और यही निर्भरता उसे हर तरह की मानसिक सुरक्षा और संबल प्रदान करती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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