Sunday 27 October 2019

अपने व्यवहार को बाजार से बचाएं


 

दीपावली का पर्व भारतीय पर्व परम्परा में धन - धन्य की  अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी जी को समर्पित है | वर्षा ऋतु के दौरान ठहरे हुए जीवन को गतिमान करते हुए नए सिरे से भविष्य की तैयारियां की जाती हैं | क्या गरीब क्या अमीर सभी इस पर्व पर उत्साहित और उल्लासित नजर आते हैं | सुख -  समृद्धि के साधन के रूप में अधिकाधिक धनोपार्जन करने की आशा संजोई जाती है | नई  फसल के साथ मांगलिक कार्यों की शुरुवात भी दीपावली के उपरांत ही होती है | यूँ तो देश भर में हर अंचल का अपना प्रमुख त्यौहार होता है लेकिन दीपावली ही एकमात्र ऐसा पर्व है जिसे  पूरा देश एक साथ हर्षोल्लास से मनाता है | इस आयोजन के पीछे अनेक पौराणिक प्रसंग हैं किन्तु मुख्य रूप से इस पर्व को व्यवसायियों से जोड़कर देखा जाता है | यही  वजह है कि दीपावली पर बाजारों में अभूतपूर्व रौनक रहती है | मिट्टी के छोटे से दिये से लेकर हीरे - जवाहरात तक की खरीदी होती है  बदलते समय के मुताबिक प्राथमिकतायें भले बदल गईं हों लेकिन दीपावली का मूल स्वरूप और उसके आधारभूत भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया | हालांकि बाजारवादी संस्कृति के उदय के बाद से अब एक अदृश्य बाजार भी अस्तित्व में आया है जिसमें क्रेता और विक्रेता के बीच प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं होता लेकिन तकनीक के  द्वारा संदेशों के आदान - प्रदान से अरबों का लेनदेन  हो जाता है | बीते कुछ समय से भारत में आर्थिक  मंदी के कारण कारोबारी सुस्ती का माहौल बना हुआ है | जिसे देखो वह मंदी का राग अलाप रहा है लेकिन दूसरी तरफ ऑनलाइन व्यापार का अकल्पनीय विस्तार हुआ | स्थानीय बाजारों में दूकानदार ग्राहकों के आने का इन्तजार करता रहता  है लेकिन दूसरी तरफ समानांतर बाजार खरीददार के दरवाजे पर जाकर अपनी सेवायें दे रहा है | इस नई व्यवस्था में शून्य प्रतिशत ब्याज और किस्तों में भुगतान की सुविधा ने भी परम्परागत बाजार के समक्ष जबरदस्त चुनौती खड़ी कर  दी है | जिसे लेकर व्यवसाय जगत में भय भी है और गुस्सा भी |  लेकिन सरकार नामक व्यवस्था पूरी तरह निर्लिप्त बनी हुई सब कुछ देख रही है क्योंकि ये  सब उसी का किया धरा है | उदारवादी आर्थिक नीतियाँ लागू किये जाते समय जिन लोगों ने उसके खतरे गिनाये उन्हें दकियानूसी बताकर उनका मजाक बनाया गया | हालांकि जब वह वर्ग खुद सत्ता में बैठा तब उसने भी उन्हीं आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया जिनकी वह आलोचना किया करता था | किसी राजनीतिक विश्लेषक ने काफी पहले लिखा था कि ज्योति बसु , अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों में फर्क करना मुश्किल हो गया है | बात है भी सही | भारत सैकड़ों साल तक विदेशी गुलामी झेलता रहा | विदेशी शासकों ने इस देश का जी भरकर दोहन और शोषण किया | आजादी के समय भारत एक पिछड़ा हुआ देश था | सात दशक बाद पीछे मुड़कर देखने पर तो लगता है  हमने बहुत प्रगति की है | लेकिन सूक्ष्म विश्लेषण करने पर जो स्थिति सामने आती है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि शांति की कीमत पर आम आदमी समृद्धि की मृग - मरीचिका में फंसा हुआ है | बाजारवादी सोच ने आम भारतीय की मानसिकता को उधारवाद के प्रति आकर्षित कर दिया जिससे कि पूरे साल खरीदी का माहौल बना रहता है | उपभोक्तावाद ने समूचे समाज में एक मिथ्या माहौल बना दिया है जिसमें संपन्न होने से ज्यादा महत्त्व सम्पन्नता के दिखावे को दिया जाने लगा | इसी का दुष्परिणाम आज की मंदी के तौर पर सामने आया है | अपनी मेहनत की कमाई में की गई बचत से दीपावाली पर  कुछ खरीदकर आत्मसंतुष्टि का अनुभव अब पुराने दौर की बात हो चली है | बचत का संस्कार अपना अर्थ खोने लगा है | आवश्यकताओं को सीमित रखकर शांतिमय जीवन की बजाय इच्छाओं के अनंत विस्तार से उपजे तनाव ने समूचे समाज को हलाकान कर रखा है | इसके दुष्परिणाम किसी से छिपे नहीं हैं | लेकिन इस समस्या के समाधान हेतु किये जाने वाले उपायों से तो स्थिति और बिगड़ती जा रही है | आज दीपावली के हर्षोल्लास में ऐसे बातों  की चर्चा अप्रासंगिक कही जा सकती है लेकिन अमावश्या की अंधियारी रात में  दीपमालिकाओं से समूचे वातावरण को आलोकित करने के पीछे का उद्देश्य समस्याओं का प्रभावशाली समाधान पैदा करना ही है | और इसीलिये ये जरूरी लगता है कि आज के दिन हम समूचे देश को ध्यान में रखते हुए इस बात पर विचार करें कि क्या हमें अपनी उस परम्परागत सोच को पुनर्जीवित करने की जरुरत नहीं है जो मानसिक शांति को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है | प्रगति और विकास भारतीय संस्कृति के मूल मन्त्र हैं | लेकिन भौतिकता के मोहपाश में फंसकर केवल  और केवल पैसा कमाने को  ही जीवन का लक्ष्य बन लेना सम्वेदनहीनता को जन्म दे रहा है | आज का दिन चिंतन का अवसर भी है | पुरुषार्थ से अर्जित सम्पन्नता नैतिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करती है जबकि छल , बेईमानी और लालच उस संस्कारहीनता को प्रश्रय देते हैं जिसका कटु अनुभव हम सभी को आये दिन होता रहता है | धन को जीवनयापन का साधन बनाना गलत नहीं है लेकिन वह साध्य बन जाए तो विकृति का बन जाता है | इसीलिये हमारे  मनीषियों ने संतोष को सबसे बड़ा धन माना था | मौजूदा संदर्भ में यही उचित होगा कि हम अपने व्यवहार को बाजार से प्रभावित होने से बचाएं | दीपावली पर  केवल बाहरी ही नहीं अपितु अपने आन्तरिक अंधकार को दूर करने का प्रयास भी करना चाहिए ,  अन्यथा हम सदैव अशांत बने रहेंगे | दुनिया के अनेक देशों ने भारत के प्राचीन दर्शन से प्रेरित होकर अपने देश की प्रगति को आम नागरिक की प्रसन्नता के पैमाने ( Happiness Index ) से जोड़ दिया है | फिर हम क्यों  उस भोगवादी संस्कृति की पीछे दौड़ते फिरें जो पूरे विश्व में अशांति का कारण बनी हुई है |

दीपावली आप सभी के जीवन में सुख और समृद्धि के साथ शांति लेकर आये यही  मंगलकामना है |

 रवीन्द्र वाजपेयी

सम्पादक 


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