Tuesday 1 October 2019

भौतिक सम्पन्नता ने बना दिया गरीब

सुबह - शाम बेटों - बहुओं के फोन आ रहे हैं । बेटी - दामाद भी दिन में कई मर्तबा Get well soon कहने की रस्म अदायगी कर देते हैं।

दरअसल घर में फिसलकर गिरी माँ को चिकित्सकों ने एक महीने तक बिस्तर से उठने तो क्या हिलने - डुलने तक से रोक दिया है । उसकी तीमारदारी के लिए घर की नौकरानी ही एकमात्र है लेकिन उसके भी बाल बच्चे हैं । सो बीच -बीच में चली जाती है । माँ ने खाना -पीना न के बराबर कर दिया है। वरना जरूरत के समय कौन सहायता करेगा।

पड़ोसी आते हैं । हमदर्दी के साथ समय भी देते हैं। लेकिन कई घण्टे कमरे की छत अकेले ताकते रहने की बाध्यता का कोई इलाज नहीं है ।

डॉक्टर हौसला अफजाई के लिए एक महीना बता तो गए लेकिन क्या पता कितना वक्त लगे ? देखने वाले विचलित हो जाते हैं लेकिन सबके अपने -अपने गम हैं।

ये स्थिति किसी एक की नहीं अनगिनत वृद्धों की है ।

सीनियर सिटीजन दिवस पीछे छूट गया है लेकिन जिनके लिए वह मनाया जाता है वे एकाकीपन नामक सजा भोगने मजबूर हैं । बच्चों को आगे बढ़ाने के फेर में उनकी जिन्दगी ठहरकर रह गई।

कहने को सब कुछ है । बड़ा सा मकान , सुख - सुविधा के साधन , बैंक बैलेंस , और भरा -पूरा लेकिन देश - विदेश में बिखरा परिवार ।

भारत को युवाओं का देश कहा जाने लगा है लेकिन साथ ही यह उपेक्षित और एकाकी वृद्धजनों का भी मुल्क बनता जा रहा है ।

दो दिन पहले ही  श्राद्ध पक्ष समाप्त हुआ। दिवंगत पितरों के प्रति अपेक्षित कर्मकांड भी देश भर में हुआ लेकिन अकेले रह रहे जीवित माता -पिता की अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने का प्रयास या तो मजबूरियों का शिकार है या लापरवाही का ।

कभी - कभी लगता है पुराने गांव और मोहल्ले ही अच्छे थे जहां हर कोई अपना सा लगता था ।

भौतिक सम्पन्नता ने सही मायनों में हमें गरीब बना दिया । रिश्तों की जो दौलत थी वह भी जमीन में गड़े उस खजाने जैसी होकर रह गई जो न तो मिलता है और न ही उसका मोह छूटता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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