Wednesday 23 October 2019

कृत्रिम उपायों से मांग बढ़ाना स्थायी इलाज नहीं



अर्थशास्त्र का नोबल पुरूस्कार जीतने वाले अभिजीत बनर्जी गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी से मिले। गरीबी हटाने को लेकर किये शोध पर मिले नोबल सम्मान के बाद भारत यात्रा पर आये श्री बनर्जी को वामपंथी माना जाता है। दिल्ली के जेएनयू विवि से अर्थशास्त्र पढ़कर वे अमेरिका चले गये। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के घोषणापत्र में शामिल जिस न्याय योजना को राहुल गांधी का तुरुप का इक्का कहा जा रहा था वह उन्हीं के दिमाग की ही उपज थी। अफ्रीका के अनेक देशों में गरीबी उन्मूलन की दिशा में उनके सुझाव कारगर रहे ये भी प्रचारित किया गया। नोबल पुरस्कार की घोषणा होने के बाद भारतीय समाचार माध्यमों से बात करते हुए उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को चिंताजनक बताकर भाजपा विरोधियों को खुश कर दिया। शायद इसीलिये केन्द्रीय मंत्री पियूष गोयल ने उनकी तीखी आलोचना भी कर डाली। सरकार विरोधियों की तरफ  से ये तंज भी कसा गया कि एक भारतीय को नोबल पुरस्कार मिलने पर प्रधानमन्त्री सहित सरकार से जुड़े शेष जिम्मेदार लोगों ने वैसी गर्मजोश बधाई नहीं दी, जैसी दी जानी चाहिए थी। इसकी वजह उनकी जेएनयू वाली पृष्ठभूमि को माना गया। स्मरणीय है श्री बनर्जी वहां पढ़ाई की दौरान आन्दोलन के सिलसिले में तिहाड़ जेल में बंद भी रह चुके थे। बहरहाल श्री मोदी से मिलने के बाद उन्होंने बड़े ही सधे शब्दों में पत्रकारों से बात की और आलोचना से भी बचे। वहीं प्रधानमन्त्री ने भी उनकी सराहना की। जहां तक गरीबी उन्मूलन के बारे में उनके सुझाव हैं तो साधारण व्यक्ति तक ये बता देगा कि जब तक आम आदमी के हाथ में पैसा नहीं आएगा तब तक बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था में मंदी या सुस्ती बरकरार रहेगी। उनके पहले भी अनेक लोग ऐसा कहते आये हैं। सवाल ये है कि आम आदमी की जेब में पैसा आयेगा कैसे और कहाँ से ? कांग्रेस के घोषणापत्र में जिस न्याय योजना के अंतर्गत हर परिवार में निश्चित मासिक आय का वायदा किया गया था यदि वह लागू कर दी जाए तो क्या गरीबी दूर हो जायेगी। क्योंकि मनरेगा जैसी योजना के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में हालात सुधरने जैसी बात नहीं हो सकी। उलटे शराबखोरी बढ़ी और खेतिहर माज्दूरों की किल्लत हो गयी। मोदी सरकार ने गरीब तबके की हालत सुधारने के लिए तरह-तरह की योजनायें चला रखी हैं। इनके कारण लोकसभा चुनाव में भाजपा की झोली में वोट तो जमकर गिरे लेकिन चुनाव के बाद से ही अर्थव्यवस्था पर चिंता के बादल मंडराने लगे। कहाँ तो दो अंकों वाली विकास दर के सपने देखे जा रहे थे और कहाँ वह घटकर 5 फीसदी के आसपास आ गयी। फिलहाल जो अनुमान लगाये जा रहे हैं उनके अनुसार भी मौजूदा वित्तीय वर्ष खत्म होते तक विकास दर बमुश्किल 6 प्रतिशत या उससे थोड़ी ज्यादा ही रह सकेगी। ऐसी स्थिति में जब औद्योगिक उत्पादन भी अपेक्षानुरूप नहीं हो पा रहा और बेरोजगारी बढ़ रही है तब लोगों की जेब में पैसा डालकर बाजार में मांग बढ़ाने का तरीका कृत्रिम वर्षा जैसा उपाय तो हो सकता है लेकिन इससे समस्या का स्थायी इलाज नहीं हो सकता। श्री बनर्जी की बौद्धिक योग्यता और उनके शोध कार्य की गुणवत्ता पर संदेह किये बिना भी ये कहना गलत नहीं होगा कि भारत की परिस्थितियाँ विश्व के बाकी देशों से सर्वथा अलग हैं। सामजिक विभिन्नता के चलते देश के अलग-अलग हिस्सों का आर्थिक ढांचा एवं जरूरतें भी भिन्न हैं। 1971 में डा मनमोहन सिंह ने जिस उदारीकरण के पश्चिमी मॉडल को भारत में लागू किया उसके कारण उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिला और उधार लेकर घी पीने की प्रवृत्ति पूरे समाज पर हावी हो चली। पैसा बचाकर भविष्य को सुरक्षित करने वाला आम भारतीय जीरो प्रतिशत ब्याज पर आसान किश्तों में खरीदने जैसे आकर्षक प्रस्तावों के फेर में उलझकर कर्जे के मकडज़ाल में फंसकर रह गया। बाजार में रौनक देखने मिलने लगी। जिस देश में लैन्डलाइन फोन हासिल करना बड़ी बात होती थी वहां दुनिया के सबसे ज्यादा मोबाइल उपभोक्ता बन गए। झुग्गी-झोपडिय़ों तक में टीवी की छतरी नजर आने लगी। सड़कों पर सायकिलों से ज्यादा पेट्रोल चलित दोपहिया वाहन दिखने लगे। जीवन स्तर के मापदंड अचानक बदल गये। मध्यम वर्गीय परिवारों में भी चार पहिये वाले वाहन खड़े दिखने लगे। कहने का आशय ये है कि अर्थव्यवस्था को हारमोन के इन्जेक्शन लगाकर रातों-रात बढ़ाने का प्रयास हुआ जिससे उपर से देखने पर तो शरीर थुलथुल होता गया लेकिन भीतर से कमजोरी बनी रही। भारतीय समाज में रोजगार और कार्यकुशलता विरासत के तौर पर उपलब्ध थी। मेहनत से लोग न शर्माते और न ही कतराते थे। लेकिन धीरे-धीरे पूरी व्यवस्था सरकार पर आश्रित होती चली गई। सरकार ने भी बिना जरुरत के उन सभी क्षेत्रों में टांग फंसाना शुरु कर दिया जिनसे उसे दूर रहना चाहिए था। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर सबसे ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत थी लेकिन उनकी जमकर उपेक्षा हुई। इंदिरा जी के सत्ता में आने के बाद से गरीबी हटाओ का नारा गूँज रहा है। प्रत्येक राजनीतिक दल गरीबी हटाने का वायदा करता है लेकिन सिवाय मुफ्तखोरी बढ़ाने के और कुछ नहीं हुआ। देश में गरीबी और बेरोजगारी को लेकर तो खूब शोर होता है लेकिन सच्चाई ये है कि रोजगार का मतलब सरकारी नौकरी मान लिया गया है। निजी क्षेत्र के व्यवसाय और उद्योग काम करने वालों की किल्लत से जूझते सुनाई देते हैं। यहाँ तक कि गावों में खेती के लिए मजदूर तक नहीं मिल रहे। अभिजीत बनर्जी चूंकि भारत में ही पले बढ़े हैं और यहाँ की जमीनी सच्चाई को जानते हैं इसलिए उनसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे इस बात का सुझाव दें कि देश के करोड़ों लोगों में कार्य संस्कृति किस प्रकार विकसित की जाए क्योंकि बिना उसके लोगों की जेब में पैसा डालकर बाजार में मांग बढ़ाने से बीमारी पूरी तरह ठीक नहीं होगी। भारत की परिस्थितियाँ अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप ही नहीं वरन चीन तक से अलग हैं। औद्योगिक विकास की होड़ में परम्परागत व्यवसायों को पूरी तरह से उपेक्षित करना बहुत नुकसानदेह साबित हुआ है। श्री बनर्जी केवल उपभोक्ता की जेब गर्म करते हुए अर्थव्यवस्था में सुधार का जो सुझाव देते हैं वह भारत में तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक हमारे देश में ईमानदारी से मेहनत का चारित्रिक गुण पुनस्र्थापित नहीं हो जाता। बेहतर हो बड़े देशों की नकल करने की बजाय 1971 में अस्तित्व में आए बांग्ला देश और अमेरिका के साथ चली लम्बी लड़ाई में बर्बाद हो चुके वियतनाम की आर्थिक प्रगति का सूक्ष्म अध्ययन करते हुए भारत अपनी आर्थिक नीतियों का निर्धारण करे जहां की जनता ने अपनी कर्मठता से पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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