Tuesday 28 April 2020

पर्यावरण और पुलिस : क्या कोरोना के बाद भी ऐसे ही रहेंगे ?या इस दौरान जागी सोच श्मसान वैराग्य है !





 बीते एक माह के भीतर भारत में दो ऐसे सुधार हुए जिनके लिए न तो किसी अदालत को आदेश पारित करना पड़ा और न ही सरकार को अध्यादेश जारी करने की ही जरूरत हुई | न ही उसके लिए कोई आंदोलन हुआ और न ही किसी ने मांग उठाई | इसमें आश्चर्य की बात ये है कि ऐसा करने की लिए बरसों से तरह - तरह की कोशिशें हुई , पैसा भी पानी की  तरह बहाया गया किन्तु परिणाम निराशाजनक ही रहा | 

सवाल ये है कि वे क्या और कौन हैं जिनमें अचानक आये बदलाव से पूरा देश सुखद एहसास का अनुभव कर रहा है | और जो बिना किसी दबाव और प्रयास के संभव हो सका  | और जवाब है पुलिस और पर्यावरण | आप सोचेंगे कि इन दोनों के बीच आपसी सम्बन्ध तो कुछ है नहीं , तब उनकी एक ही सन्दर्भ में चर्चा करने का अर्थ क्या है ?

 दरअसल कोरोना संकट के कारण लॉक डाउन लागू होने से देश की जनता घरों में रहने बाध्य हो गई | इसकी वजह से सड़कें सुनसान हो गईं | वाहन चलना बंद हो गये | रेल के पहिये रुक गए और हवाई जहाज धरती पर खड़े कर  दिए गये | कल - कारखाने बंद होने से उनसे होने वाला प्रदूषण बंद हो गया | तीर्थस्थानों में श्रद्धालुओं की भीड़ भी  गायब हो गयी | नदियों में नहाने और कपड़े धोने वाले दृश्य भी नजरों से ओझल हो गए | शुरुवात में तो किसी को कुछ समझ में  नहीं आया लेकिन कुछ दिनों बाद ही ऐसा लगा कि वातावरण खुशनुमा हुआ है | तापमान में गिरावट , पेड़ - पौधों की रंगत में सकारात्मक बदलाव , आसमान का साफ़ होना , नदियों के जल की शुद्धता में आश्चर्यजनक सुधार , धूल   और धुएं से मुक्ति आदि वे अनुभव हैं जो उसके पहले तक सपने में भी नहीं सोचे जा सकते थे | 

प्रकृति का छिपा हुआ सौंदर्य मानों अनावृत हो गया और वह सोलहों श्रृंगार के साथ प्रकट हो गई | ये ऐसा परिवर्तन था जो चाहते तो सब थे लेकिन उसके लिए कुछ करने में  असमर्थ से ज्यादा अनिच्छुक थे | लेकिन लॉक डाउन ने बिना उनके किये ही वह कर दिखाया जिसकी उम्मीद ही छोड़ी जा चुकी थी |

 दूसरा सुखद और बेहद चौंकाने वाला बदलाव देखने में आया भारत की पुलिस में | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि  देशभक्ति - जनसेवा जैसे ध्येय को लेकर कार्य करने वाली पुलिस की  छवि भी पर्यावरण जैसी खस्ता हाल ही थी | उसे भ्रष्ट , निकम्मी  , अत्याचारी और  निरंकुश मानने वाले 100 में 90 तो होते ही हैं | खाकी वर्दी वालों का काम समाज में  क़ानून व्यवस्था बनाये रखना , असामाजिक तत्वों से लोगों की हिफाजत करना तथा अपराधियों को पकड़कर दण्डित करवाना है | इसके अलावा भी शासन और प्रशासन से जुड़े अन्य  कार्य भी उसको संपन्न करवाने होते हैं | जिनमें किसी भी सार्वजनिक आयोजन की व्यवस्था में सहयोग और अति विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा भी शामिल है | 
इनके अतिरिक्त कई ऐसे काम भी उसके जिम्मे आते हैं जिन्हें विशुद्ध बेगारी कहा जा सकता है |  लेकिन उनका उल्लेख करना यहाँ उचित नहीं होगा | 

सच बात तो ये है कि बिना पुलिस के हम आधुनिक समाज की कल्पना तक नहीं कर सकते | जैसे  सेना सीमाओं की सुरक्षा करती है ठीक वैसे ही पुलिस समाज को सुरक्षा प्रदान करती हैं | लेकिन जिस तरह प्रदूषण के कारण पर्यावरण की स्थिति बुरी तरह खराब हो गई  वैसे ही हमारे देश की पुलिस की बारे में यह अवधारणा काफी प्रबल हो उठी थी कि वह पूरी तरह पथभ्रष्ट हो चुकी है और उसे जनता से कोई लेना नहीं है | नेताओं और अन्य  शाक्ति संपन्न लोगों की सुरक्षा से ही उसे फुर्सत नहीं है | और वे भी बदले में उसे संरक्षण प्रदान करते हैं।

 ये कहना भी गलत नहीं होगा कि जिस तराह प्रकृति और पर्यावरण को प्रदूषित करने में हमारा भी योगदान है उसी तरह पुलिस को बिगाड़ने में  समाज के उस वर्ग की ही भूमिका है जिसने  अपने निहित स्वार्थों की खातिर उसे भ्रष्ट होने प्रेरित , प्रोत्साहित और लालायित किया | इसका दुष्परिणाम ये हुआ प्रकृति और समाज दोनों प्रदूषण का शिकार हो गए |

 इन दोनों को सुधारने  के लिए न जाने कितने जतन हुए और धन भी लुटाया गया लेकिन लेश मात्र भी सुधार नहीं हुआ | इस प्रकार प्रदूषण  और पुलिस दोनों ही वातावारण को अपवित्र बनाने के दोषी माने जाने लगे |

लेकिन बीते एक महीने में इन दोनों में जो सकारात्मक बदलाव आया उसने पूरे देश को सुखद आश्चर्य में डाल दिया | जिस पुलिस के बारे में  आम नागरिक सदैव नकारात्मक सोच रखता था , वह भी प्रकृति की तरह अचानक ऐसे रूप में आ गई जो अकल्पनीय था | लॉक डाउन को सफल बनाने की जिम्मेदारी तो उसका स्वाभाविक दायित्व था ही लेकिन इस दौरान राहत के कार्यों में पुलिस कर्मियों की भूमिका ने उनकी स्थापित  छवि को सिरे से बदल दिया | गरीब और बेसहारा लोगों को भोजन और पानी की बोतल बांटते पुलिस कर्मियों के सैकड़ों वीडियो सार्वजनिक हो चुके हैं | एक में दो पुलिस वाले दोपहर में सड़क किनारे अपना भोजन शुरू करने वाले ही थे कि सामने एक फटेहाल व्यक्ति आकर खड़ा हो गया | उसकी भाव - भंगिमा बता रही थी कि वह बेहद भूखा है | उनमें से  से एक पुलिस वाले ने अपना भोजन उठाकर उसकी और  बढ़ा दिया और पानी  की बोतल भी सौंप दी | 

और कोई समय होता तो अपेक्षित यही था कि वह भिखारी सा दिखने वाला व्यक्ति चार छः गालियों के बाद क्या पता दो चार डंडे भी खा लेता किन्त्तु कोरोना से उत्पन्न स्थितियों में पुलिस के सार्वजनिक व्यवहार में जिस तरह की संवेदनशीलता और सेवाभाव जाग्रत हुआ वह वाकई चौंकाने वाला है |

 भले ही  जिस तरह पर्यावरण  अभी तक पूरी तरह प्रदूषण मुक्त नहीं हो सका उसी तरह से पुलिस  का भी  कायाकल्प हो चुका है ये मान लेना भी जल्दबाजी ही होगी किन्तु दोनों में जितना भी बदलाव और सुधार हुआ वह कोरोना के साथ जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद खुशबूभरी ठंडी हवा के झोके जैसा है |

ये कहा  जा सकता है कि चूंकि जनजीवन  पूरी तरह ठहरा हुआ है और अपराध का ग्राफ पूरी  तरह नीचे आ चुका है इसलिए पुलिस के पास करने  को कुछ ख़ास था नहीं | वीआईपी भी कम निकल रहे हैं और सड़कें यातायात विहीन हैं | ऐसे में यदि वह  थोड़े से अच्छे काम कर रही है तो उसकी छवि एकाएक शैतान से साधु की बना देना कोरा आशावाद होगा | लेकिन जो दिखाई दे रहा है वह अनेकानेक विरोधाभासों के बीच उम्मीद जगाने वाला तो है ही |

 लेकिन एक बड़ा सवाल भी साथ ही साथ उठ रहा है और वह है लॉक डाउन के बाद जब भी और ज्योंही सब कुछ सामान्य होगा और समाज जीवन से जुड़ी सभी गतिविधयां पूर्ववत हो जायेंगीं , तब भी क्या पर्यावरण और पुलिस इतनी ही सुखद स्थिति में रह सकेंगीं ? ये प्रश्न वाकई इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि देश का जनमानस चाह रहा है कि कोरोना बाद का  जीवन जैसा भी हो किन्तु पर्यावरण की शुद्धता और पुलिस की सम्वेदनशीलता ऐसी ही बनी रहे |

साधारण तौर पर सोचें तो  ऐसा होना  संभव नहीं लगता क्योंकि  लॉक आउट हटते या  शिथिल होते ही मानवीय गतिविधियाँ अपने पुराने ढर्रे पर लौट आयेगी | सड़कों पर धुंआ छोड़ते वाहनों की कतारें लग जायेंगी , कल - कारखाने से औद्योगिक प्रदूषण शुरू हो जाएगा और पवित्र नदियों में अपने  पाप धोने वाली धर्मप्राण जनता उनके जल को पहले जैसा ही बना देने में जुट जायेगी | इसी तरह से पुलिस भी ज्योंही अपनी असली भूमिका में वपिस लौटी त्योंही पीड़ित मानवता के प्रति उसका नजरिया आज जैसा शायद ही रह सकेगा |

और यहीं उठता है वह सवाल जिसके उत्तर में ही भविष्य का भारत छिपा हुआ है | आप पूछ सकते  हैं कि पर्यावरण और पुलिस में सुधार या बिगाड़ से इतने बड़े देश के  भविष्य का निर्धारण कैसे किया जा सकता है ? लेकिन ये हांडी के वे दो चावल होंगे जो ये बता देंगे कि हम वाकई सुधरना चाहते हैं या लॉक डाउन के दौरान मन में हिलोरें मार रही अच्छी - अच्छी भावनाएं श्मसान वैराग्य हैं जो स्थिति और स्थान बदलते ही पल भर में ही लुप्त हो जाता है |

ऐसे में सोचने वाली बात ये है कि कोरोना के बाद पूरे विश्व में जिन परिवर्तनों की उम्मीद की जा रही है वे भारत में किस सीमा तक लागू होंगे ?  बदलाव होना तो अवश्यंभावी है लेकिन क्या वह पर्यावरण  और पुलिस में भी होगा  या फिर ये सब जागती आंखों से ख्वाब देखने जैसा है | लेकिन अनेक  समाजशास्त्रियों का कहना है कि  कोरोना ने आम इंसान को भी सोचने बाध्य किया है |  भले ही वह पुराने ढर्रे की तरफ लौट जाये लेकिन लॉक डाउन के दौरान उसने जो देखा , जो किया और जो सोचा उसका प्रभाव उसकी मानसिकता पर कुछ न कुछ तो रहेगा ही | पुलिस भी चूँकि समाज के  लोगों द्वारा ही बनती है इसलिए उस पर भी बदलते सामाजिक  वातावारण का असर पड़ेगा,  ये उम्मीद पूरी तरह आधारहीन नहीं है |

 इस बारे में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जिस तरह शिक्षा के कारण युवा पीढ़ी में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ी है ठीक उसी तरह पुलिस में उच्च अधिकारियों के अलावा भी जो कर्मी भर्ती हो रहे हैं उनका शैक्षणिक स्तर पूर्वापेक्षा तुलनात्मक तौर पर कहीं बेहतर है । और इसीलिये उनके काम करने का तरीका लीक से हटकर प्रतीत है जो कोरोना के दौरान महसूस भी किया गया |

कुछ बरस पहले जबलपुर के पुलिस नियन्त्रण कक्ष में जनता - पुलिस संबंधों पर एक परिचर्चा हुई | उसमें मैंने उच्च पुलिस  अधिकारियों से कहा था कि जिस दिन किसी सज्जन , शरीफ और कानून पसंद साधारण व्यक्ति  को शाम ढलने के बाद थाने बुलाया जावे और वह बिना डरे आ जाए उस दिन समझा जायेगा कि जनता और पुलिस के बीच अच्छे सम्बन्ध हैं |

ठीक ऐसा ही पर्यावरण के बारे में भी कह सकते हैं कि जिस दिन भारत में किसी भी नदी का जल बिना हिचक आचमन योग्य हो जाएगा उसी दिन ये माना जाएगा कि प्रदूषण खत्म हो गया | हालांकि उक्त दोनों स्थितियां कायम रहना बेहद कठिन है लेकिन जिस बदलते समाज की कल्पना में सभी डूबे हुए हैं वह पर्यावरण के संरक्षण और पुलिस के ऐसे ही व्यवहार के बिना असम्भव होगा |

 आखिर में एक बार फिर प्रश्न ये है कि क्या ये सम्भव होगा या मेरा सुंदर सपना टूट गया वाली स्थिति बन जायेगी ? और जवाब है यदि हम कोरोना जैसी महामारी को हराने में कामयाब हो सके तब पर्यावरण और पुलिस में सुधार क्यों नहीं किया जा सकता ?

फिल्म उमराव जान में एक  गजल की ये पंक्ति  इस सम्बन्ध में हौसला बढ़ाने वाली है :-

 मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये .......

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