Monday 6 April 2020

है अपना हिंदुस्तान कहाँ वह बसा हमारे गाँवों में,जरूरत है स्मार्ट गाँवों की ताकि पलायन रुक सके



 
कुछ दिन पहले मैनें ‘ अपने ही बोझ से झुके जा रहे  महानगरों के कंधे ‘ शीर्षक से जो आलेख लिखा था उस पर पाठकों की बड़ी ही  उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं आईं | महानगरों में कोरोना  जिस तेजी  से फैला उसके कारण बड़े शहरों की संरचना की बजाय छोटे और मझोले आकार के शहरों को सर्वसुविधायुक्त बनाकर बड़े शहरों का बोझ कम करने की सोच को भी समर्थन मिलने लगा है | लेकिन विभिन प्रतिक्रियाओं में से एक मेरे अनुज अविनाश वाजपेयी की भी आई जो भारत सरकार की एक  नवरत्न कम्पनी में महाप्रबंधक पद वर्तमान में मुम्बई में पदस्थ हैं | मुम्बई महाराष्ट्र के सबसे आधिक कोरोना प्रभावित नगरों में है | विदेशों से आई ये बीमारी जब वहां की धारावी झोपड़ पट्टी तक जा पहुंची तब उसके सामुदायिक विस्तार का खतरा बढ़ गया | फोन पर अविनाश से कुशल क्षेम पूछते हुए महानगर की ज़िन्दगी में आये इस ठहराव को लेकर भी चर्चा होती रही है | लेकिन मेरे संदर्भित आलेख पर प्रतिक्रिया में शहरों पर बढ़ते  आबादी के बोझ को लेकर आविनाश ने सुझाव  दिया कि यदि स्मार्ट सिटी के साथ ही स्मार्ट विलेज पर भी जोर दिया जावे तो गाँवों  से होने वाले पलायन को एक स्तर तक रोका  जा सकता है |

 इस सुझाव से इस विषय को उसके मूल तक ले जाने की प्रेरणा मिली और दिमाग में गांधी जी के 'ग्राम स्वराज' से लेकर नरेंद्र मोदी द्वारा प्रारंभ ‘सांसद आदर्श ग्राम ‘ तक की समूची यात्रा घूमने लगी | माध्यमिक स्तर की शिक्षा के दौरान एक कविता पढ़ी थी जिसकी निम्नलिखित  पंक्ति आज भी कभी - कभार स्मृति  पटल पर टहलते हुए आ जाती है :-

 है अपना हिंदुस्तान कहाँ , वह बसा हमारे गाँवों में ...

 शिक्षा की ऊँची पायदान पर पहुंचने के बाद मालूम हुआ कि भारत की अधिकतर आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में  रहती है और ये भी जाना कि भारत एक कृषि प्रधान देश है तथा खेती ही रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत है | 

ग्रामीण भारत का प्रभाव हमारी सोच पर इस हद तक हावी था कि फिल्म उद्योग भी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्में बनाने में नही शरमाया और वे खासी सफल भी रहीं | ये फ़िल्में   मुंशी प्रेमचंद की कहानियों तक सीमित नहीं रहीं बल्कि उनमें बाकायदा मसाला भी होता था | साठ के दशक में दिलीपकुमार की गंगा जमुना फिल्म आई थी जिसमें भोजपुरी भाषा का जमकर इस्तेमाल हुआ और वह फिल्म बहुत सफल रही |

 
लेकिन आज  स्थिति कुछ अलग है | ग्रामीण भारत तक स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने सड़क तो पहुंचा दी लेकिन वहां से शहरों के लिए होने वाला पलायन नहीं रुका | कहने को गाँव और खेती आज भी समानार्थी हैं लेकिन किसान के बेटे की रूचि अब उस कार्य में नहीं रही | वह शहर आकर किसी चाय की दुकान में काम कर लेगा लेकिन गाँव में उसे रहना मंजूर नहीं |

 ऐसा नहीं कि गाँवों के लिए कुछ नहीं किया गया | वहां सड़कें हैं , बिजली भी पहुंच गई है | झोपड़ियों के उपर लगे टीवी एंटीना और अधिकतर युवाओं के हाथ में मोबाईल बदलते गाँवों की तस्वीर बयान कर  देते हैं | बैलगाड़ी तो छोड़िए अब सायकिल भी कम होती जा रही हैं | मोटर  सायकिल की भरमार दिखती  है | गाँव के युवा अब जींस और टी शर्ट पहनना  ही नहीं सीखे उन्हें ये  भी पता है कि मोबाईल के नए माडल में कितने  फिक्सल का कैमरा और आधुनिक फीचर्स हैं ?

 
संक्षेप में कहें तो गाँव अब शहर बनने को लालायित और प्रयासरत हैं | सरकार ग्रामीण विकास पर करोड़ों लुटाती है | देश की संसद और विधानसभाओं में अधिकतर सदस्य ग्रामीण जनता की नुमाइन्दगी  करते हैं | उनकी तकरीरों में गाँव   और किसान  का दर्द टपकता है | चुनावी  घोषणापत्र  में भी गांवों के उत्थान और खेती को लाभ का व्यवसाय बनाकर किसान की आय बढ़ाने के  सुनहरे वायदे होते हैं |

 और तो और किसानों को कर्ज से मुक्ति दिलाने के लिए ऋण माफी की सौगात भी दी जाती  है | प्राक्रतिक आपदा में फसल खराब होने पर मुआवजे बांटे जाते हैं | मोदी सरकार ने एक तयशुदा राशि  हर तिमाही किसान के खाते में जमा करने की योजना भी चला रखी है | कहने का आशय ये कि गाँव और किसान की बेहतरी के लिए हरसंभव कोशिश चला करती है |

 
लेकिन इसके बाद भी ग्रामीण इलाकों से पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा और उसकी वजह से नगरों और महानगरों में आबादी का बोझ बढ़ता जा रहा है | ये देखने वाली बात है कि बापू के ग्राम स्वराज से मोदी जी की  ‘ सांसद आदर्श ग्राम ‘ योजना तक की गयी कोशिशों में आखिर क्या कमी रह गई जो गाँवों के उजड़ने का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा |

 
और इसका जवाब है कि इसके लिए एक नहीं प्रत्येक ग्राम को न्यूनतम मूलभूत सुविधाओं से सम्पन्न करना होगा | गांधी जी तो रहे नहीं लेकिन प्रधानमन्त्री से तो ये पूछा  ही जा सकता है कि एक आदर्श गाँव बनाने की जो जिम्मेदारी उन्होंने सांसदों को सौंपी थी वह किस हद तक सफल हुई  ? ऐसा लगता है वह योजना या तो अपनी मौत मर गई या फिर मरने की कगार पर है |

 कोरोना के बाद शहरों से जिस बड़ी संख्या में  प्रवासी मजदूरों का पलायन हुआ उसने अनेक अनछुए पहलुओं को उजागर कर दिया | बरसों तक शहर में  रहने के बाद भी अधिकतर के पास न सिर ढंकने  की छत बन पाई और न ही दो चार दिन बैठकर खाने का इंतजाम | शिक्षा , चिकित्सा , आमोद प्रमोद , अच्छा रहन सहन सब उनके लिए सपना ही रहा | हफ्ता भर भी वे शहर में  बिना काम के नहीं रह सके | उधर गांवों में हर किसान का ये रोना हैं कि खेतिहर मजदूर नहीं मिलने से खेती करना कठिन और   महंगा होता जा रहा है |

 कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं होगा कि इतनी बड़ी आबादी का सही - सही नियोजन करने में हमारा तंत्र पूरी तरह विफल रहा | 

नगर और महानगरों में तो गाँव समां गया लेकिन गाँव नगर नहीं बन सके | वरना बिना किसी संरक्षण और आश्वासन के ग्रामीण युवा शहरों की तरफ क्यों भागता ?

 राजनीति से जुड़े लोगों ने कोरोना की वजह से शहरों से पलायन के लिए मजबूर हुए हजारों मजदूरों की बदहाली पर घड़ियाली आंसू तो खूब बहाए लेकिन किसी ने भी इसके लिए अपनी बिरादरी की नाकामी के लिए प्रायश्चियत करने  की ईमनदारी नहीं दिखाई |

 
लेकिन अब इस विषय पर गम्भीर रस्मी चिन्तन - मनन से उपर उठकर परिणाममूलक प्रयास होना चाहिए | मनरेगा के अंतर्गत 100 दिन के रोजगार की गारंटी मिलने के बाद भी गाँव से मजदूर शहरों की समस्या भरी ज़िन्दगी जीने के लिए क्यों भागा ये केवल आर्थिक ही नहीं सामजिक विज्ञान के लिए भी विचारणीय विषय है |

 
वर्तमान संकट से गुजरने के बाद भारत की तस्वीर में नये रंग  भरने  होंगे | आपदा प्रबंधन को नये सिरे से आकार देना जरूरी हो गया है | हमें अपनी चिकित्सा सुविधाओं और बीमारियों की जाँच हेतु प्रयोगशालाओं के साथ अनुसंधान को भी नई दिशा देनी पड़ेगी | 

इसी के साथ देश की बड़ी आबादी की ऐसी बसाहट  को अमली जामा पहिनाना होगा जिसमें ग्रामीण भारत से पलायन रुक सके | इससे भी बढकर हमें अपने  गाँवों को इतना साफ़ - सुथरा , सुव्यवस्थित और आधारभूत ढांचे से जुड़ी सुविधाओं से युक्त बनाना चाहिए कि गाँवों में रहने वाले महानगरों की और देखना बंद करें | और तो और जो ग्रामीण जन अपना गाँव छोडकर शहरों में बदहाली का जीवन झेल रहे हैं उनमें भी गाँव लौटने का आकर्षण उत्पन्न हो |

ये कार्य आसान नहीं है क्योंकि सचिवालय में बैठे नेता और बड़े बाबू बात चाहे जैसे करें लेकिन वे ग्रामीण भारत के हिस्से के संसाधनों में डकैती मारकर विकास को शहर और महानगरों के शिकंजे में फंसाए रखना चाहते हैं |

 कोरोना ने ये साबित कर दिया कि जितना बड़ा शहर उतनी बड़ी समस्या | बेहतर हो ग्रामीण भारत की क्षमताओं का समुचित उपयोग करने की बुद्धिमत्ता दिखाई जाए | जितना धन स्मार्ट सिटी की योजना पर खर्च हो चुका है उससे बहुत कम में सैकड़ों ऐसे ग्राम बतौर मॉडल विकसित किये जा सकते थे जिन्हें देखने शहर से लोग जाते |

 
और फिर सबसे बड़ा  प्रश्न ये है कि जिस गाँव और खेती का हमारी अर्थव्यवस्था में काफ़ी बड़ा योगदान  है और आज भी जो करोड़ों को रोजगार देने की ताकत  रखता हो , यदि वह विकास के लिए तरसे तो ये किसी भी देश के लिए शर्मनाक बात होगी |

 कोरोना के कारण वायुमंडल का माहौल बदला है | आसमान की नीलिमा अपने मूल रूप में नजर आने लगी है | हवा में शुद्धता का अनुभव होने लगा है , लोगों की जीवन शैली और विशेष रूप से पारिवारिक जीवन नई शक्ल में ढलने की तैयारी कर रहा है | हम अनुशासित होना सीख रहे हैं | अभाव में भी अपने स्वभाव को सहज और सामान्य बनाए रखने की विद्या में प्रवीण हो चले हैं | निजी जीवन में आत्मनिर्भरता के नए - नए पाठ सीखने की उत्सुकता जागी है | और सबसे बढ़कर हम एक जिम्मेदार भारतीय बनकर सामने आये हैं | तब हमें ये भी देखना होगा कि भारत की आबादी के बीच रहन - सहन संबंधी विषमता को किस तरह  कम किया जा सके | और इसका सबसे कारगर तरीका है ग्रामीण भारत पर फोकस करते हुए अपने गाँवों को भी उस स्तर तक विकसित कर देना जिससे उनका पुराना दबदबा , गौरव  और आकर्षण वापिस लाया जा सके | आधुनिक सोच के मुताबिक अब भारत में स्मार्ट गाँवों की स्थापना राष्ट्रीय  प्राथमिकता होगी तो  एक नई क्रांति का आधार बनेगा |

 शहरों में ठंडक और हरियाली की तलाश में पार्कों में जाने वाले शहरियों को उन अमराइयों में बैठने का  अनुभव ही कहाँ है जिनकी  छाँव में शीतलता और हवा में मिठास होती है | मोदी जी ने शौचालय बनवाकर जो कदम उठाया उसने ज्यादा न सही ग्रामीण क्षेत्रों में  बदलाव की शुरुवात तो की है | अब दूसरे चरण में उनका कायाकल्प करने का बीड़ा उठाना चाहिए |

 जिस दिन ये अनुष्ठान पूरा होगा उस दिन भारत सही अर्थों में एक विकसित देश कहलाने लायक बन  जाएगा |

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