Thursday 16 April 2020

स्वाद रूपी संस्कार को भूमंडलीकरण से बचाएं ताजगी और अपनत्व से भरी हलवाई संस्कृति को मिले प्रश्रय





 
कोरोना संकट के कारण लॉक डाउन होते ही होटल , रेस्टारेंट , चाट के ठेले , चाय की छोटी दूकानें जैसे कारोबार बंद हो गए | लेकिन बाद में सरकार ने घर पर  खाद्य सामग्री आपूर्ति करने वाली ऑन लाइन फ़ूड कम्पनियों को छूट दे दी | इससे एक तो अकेले रहने वालों को सुविधा हुई , वहीं चटपट खाने के शौकीनों को भी लॉक डाउन में भी घर बैठे - बैठे मनपसंद व्यंजन मिल गया | 

ये बात भी सही है कि निठल्ले घर में बैठे लोगों को रोज दाल रोटी उबाऊ लगने लगती है | लेकिन घरों में काम करने वाले कर्मचारी नहीं आने से गृहिणियों को परिवार के सदस्यों की फरमाइशें को पूरा करना बोझ भी प्रतीत होने लगा | ऐसे में जिसे जो पसंद है वह आर्डर देकर मंगवा लेता हैं | ऑन लाइन फ़ूड कम्पनियों का कारोबार इससे चलने लगा और घर पर खाना पहुँचाने वाले डिलीवरी मैन भी काम से लग गए |

 
लेकिन आज एक खबर ने चिंता में डाल दिया | दक्षिण दिल्ली के कई घरों में पिज्जा पहुँचाने वाले व्यक्ति में कोरोना संक्रमण पाया गया | वह कुछ दिन पहले तक तकरीबन 72 घरों में पिज्जा की डिलीवरी कर चुका  था | बताया जा रहा है कि  वह काफी पहले ही संक्रमित हो गया था | खुलासा होते ही उसके द्वारा जिन घरों में डिलीवरी की गयी  उनके सदस्यों को क्वारंटाइन कर दिया गया है | कुछ समय पहले भी एक फ़ूड कम्पनी इस बात को  लेकर विवाद में आई थी कि उसने किसी हिन्दू पर्व पर शाकाहारी के घर मांसाहारी भोजन भिजवा दिया | उसके बाद अनेक वीडियो आये जिनमें डिलीवरी करने वाला व्यक्ति भोजन के पैकेट में से थोड़ा - थोड़ा खा लेने के बाद उसे दोबारा पैक करता दिखाई दिया |

निश्चित रूप से ऐसी घटनाएं कम ही होती हैं किन्तु डिलीवरी करने वाले के कोरोना संक्रमित होने के बाद वे सभी 72 परिवार चिंता में डूब गये होंगे | और कोई समय होता तब इस तरह की खबर सीमित क्षेत्र में ही चर्चा का विषय बनती किन्तु सूचना क्रांति के इस दौर में ख़ास तौर पर कोरोना के कारण ऐसी बातों को अतिरिक्त प्रचार मिल रहा है  | टीवी के कारण एक कोने की खबर दूसरे कोने तक पहुंच जाती है |

 लेकिन इस घटना से कोरोना के बाद की सामाजिक व्यवस्था को लेकर चल पड़ी चर्चाओं में एक और मुद्दा जुड़ गया | उल्लेखनीय है लॉक डाउन होते ही देश भर में बिकने वाला स्ट्रीट फ़ूड का व्यवसाय बंद हो गया | हलवाई की  दुकानें हों , या खोमचे अथवा चलते फिरते हाथ ठेले , सभी का कारोबार रोक दिया गया | जलेबी , समोसे , गोल गप्पे , पोहा , नमकीन , मंगोड़े , पकोड़े , भेल पूरी , पाँव भाजी और ऐसी ही अनेक चीजों के  स्वाद से लोग वंचित हो गए | 

लेकिन  किराना दूकान पर हल्दीराम , आकाश , भीकाजी जैसे  ब्रांडेड उत्पादन भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं |  इसी तरह एक तरफ जहां इस समय तक जगह - जगह खुल जाने वाली लस्सी , ठंडाई और फलों के रस की दुकाने भी बंद हैं , लेकिन अमूल सहित अन्य  कम्पनियों की लस्सी , छाछ , ठंडाई और फ्रूट जूस पैकेट बन्द स्थिति में पर्याप्त मात्रा में मिल रहे हैं |

इस हालात में इस तरह की वैकल्पिक आपूर्ति उपभोक्ताओं के लिए तो राहत की बात है लेकिन इसने एक ऐसे पहलू पर  ध्यान आकर्षित कर दिया जो तथाकथित विकास की चकाचौंध में दिखाई ही नहीं  देता था | 

भारत में खाने - पीने का शौक परम्परागत  तौर पर है  | लेकिन उससे भी बड़ी बात है उसमें विविधता | देश के हर अंचल का अपना खानपान और स्वाद है | प्रदेश तो बड़ी बात है कहीं - कहीं तो 50 से  100 किमी में किसी व्यंजन का स्वाद बदल जाता है | इसका सबसे सरल और अच्छा उदाहरण है समोसा और दोसा | पहला तो तकरीबन पूरे देश में खाया जाता है लेकिन उसका स्वाद और उसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री भिन्न होती है | इसी तरह दोसा मूल रूप से दक्षिण के राज्यों से पूरे देश में फैला लेकिन स्वाद के जानकार बता देंगे कि आंध्र ( तेलंगाना सहित ) , कर्नाटक , तमिलनाडु और केरल में उसका स्वाद कुछ न कुछ अलग होता है |

इसके उल्ट हल्दीराम या उस जैसी  ही बाकी ब्रांडेड खाद्य सामग्री का स्वाद अलग - अलग शहरों में बनने पर भी एक जैसा होता है |  ठंडाई और लस्सी गर्मी में खूब चलती है | इसका ब्रांडेड पैक कहीं भी खरीदें तो उसका स्वाद एक जैसा अनुभव होता है | ये ठीक वैसे ही है जैसे कोका कोला या पेप्सी नामक  साफ्ट ड्रिंक का स्वाद दुनिया भर में समान मिलेगा | ब्रांड इमेज बनाने के लिए किसी भी बड़ी कम्पनी के लिए ऐसा करना अनिवार्य आवश्यकता है | लेकिन स्वाद की विविधता के शौकीनों को ये रास नहीं आता |

हमारे देश में इसीलिये हर शहर तो क्या छोटे - छोटे कस्बों तक में हलवाई , खोमचे और हाथ ठेलों पर बिकने वाले खाने के सामान की अपनी विशेषता होती है । जिसके कारण लोग खिंचे  चले आते हैं | यही  बात रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के बारे में भी प्रसिद्ध हुआ करती थी | ढाबे भी स्वाद के कद्रदानों को अपनी तरफ खींचते हैं | हालांकि लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री रहते हुए रेलवे स्टेशनों पर बनने वाली गरमागरम खाद्य सामग्री पर रोक  लगाते हुए उसे बन्द पैकेट में बेचना शुरू करवा दिया गया | इससे बहुत बड़ी संख्या में उस व्यवसाय से जुड़े स्थानीय लोगों का नुकसान भी हुआ | हॉलांकि कुछ स्टेशनों पर अभी भी वह प्रथा  जारी है लेकिन अधिकतर में अब ट्रेन रुकते  ही गरमागरम पूरी -सब्जी की आवाजें नहीं सुनाई देतीं | उनकी जगह पहले से पैक खाद्य सामग्री उपलब्ध होती है | सीट पर ही आर्डर द्वारा भोजन की आपूर्ति भी होने लगी है लेकिन उसमें दाम के अनुरुप  गुणवत्ता नहीं होती |

दिल्ली में आज पिज्जा डिलीवर करने वाले व्यक्ति के कोरोना  संक्रमित होने की खबर के बाद भारत की परम्परागत हलवाई  संस्कृति की प्रासंगिकता अचानक मस्तिष्क में उभर आई | बचपन की अनगिनत स्मृतियाँ भी सहसा गुदगुदाने लग गईं | सुबह - सुबह घर के पास के नुक्कड़ पर स्थित हलवाई के यहाँ जाना और जलेबी बनने तक इंतजार  का सुखद अनुभव अब कालोनियों और सोसायटियों में सिमटते जा रहे समाज की नई पीढ़ी के लिए दादी - नानी की कहानियों जैसा है | 

इसी तरह कोई न कोई समोसा - कचौरी का विशेषज्ञ हुआ करता था । जिसके हाथ में वाकई हुनर होता था | तभी तो दूकान  खुलते ही ग्राहकों की भीड़ लग  जाती थी | इन हलवाईयों के पास नमकीन या मीठा जो भी बनता उसमें से दूसरे दिन के लिए कुछ भी शेष नहीं बचता था | और यही इनके प्रति आस्था का आधार था | जबलपुर के पुराने शहर में एक 100 वर्ष पुराना बड़ेरिया मिष्ठान्न भंडार है |  दूकान में कोई टीम - टाम नहीं दिखता | यहाँ दूध का हलवा नामक एक मिठाई बनती है | इसमें कोई रंग या एसेंस नहीं मिलाया जाता। सुबह 10 बजे से उसकी बिक्री शुरू होती है और थोड़ी सी देर में वह पूरा बिक जाता है | लेकिन प्रतिष्ठान के संचालक इसके स्वाद की गुणवत्ता बनाये रखने के कारण ज्यादा बनाकर नहीं रखते |

दूसरे शहरों में भी ऐसे हलवाई आज भी हैं जो एक समय में एक ही चीज बनाते हैं जो हाथों  हाथ बिक जाया करती है | ढाबों की लोकप्रियता के पीछे भी स्वाद की विशिष्टता और ताजापन बड़ा कारण है |

कोरोना संकट और लॉक आउट की इस विषम परिस्थिति  में भी इस चर्चा को छेड़ने का ध्यान नहीं रहता , यदि दिल्ली में पिज्जा की डिलीवरी करने वाले को कोरोना होने की बात सामने नहीं आई होती | हलवाई या खोमचे वाले  के यहाँ साफ - सफाई पर नाक मुंह सिकोड़ने वाले उस अनजान और अनदेखी जगह पर  बनी खाद्य सामग्री को प्रतिष्ठासूचक मानकर ज्यादा पैसे देकर भी इसलिए खरीदना पसंद करते हैं कि अव्वल तो वह ब्रांडेड है , दूसरा घर बैठे मिल जाती है और वह भी निश्चित समय पर |

लेकिन नए संदर्भों में हमें जिस स्वच्छता और शुद्धता से रूबरू होना पड़ा उसे अनेक लोग भारत की परम्परागत जीवन शैली ही बताते हुए गौरव की अनुभूति कर रहे हैं | हाथ पाँव धोकर और जूते बाहर उतारकर घर में प्रवेश , हाथ धोते रहना , कपड़े साफ रखना , किसी से मिलने पर लिपटने - चिपकने की बजाय शारीरिक दूरी बनाने के अलावा खान - पान की शुद्धता , जिसमें  भी ताजे खाने पर भी जोर दिया जा रहा है |

देखने बैठें तो भारतीय दिनचर्या में कुछ दशक पूर्व तक यही सब तो था | भोजन पकाने  और खाने वाले दोनों ही साफ - सफाई का ध्यान रखते थे | अब जबकि कोरोना उपरांत पारिवारिक और सामाजिक जीवन के तौर - तरीकों में बदलाव की बातें घर - घर चल रही हैं,  तब क्या खानपान  को लेकर भी उस दौर को लौटाने के बारे में नहीं सोचा जाना चाहिए  जब मोहल्ले के हलवाई के हाथ का स्वाद हमारी जुबान पर चढ़ा होता था |

एक मर्तबा रेस्टारेंट और कैटरिंग के  बारे में प्रयाग में एक प्रबन्धन सेमीनार हुआ | मेरे एक परिचित को उसमें प्रस्स्तुतीकरण देना था | उनने अपना शोधपत्र मुझे दिखाते हुए सहज रूप से कहा ऐसी कोई लाइन बताइए जो सुनते ही लोगों को प्रभावित कर सके | मेरे मुंह से अचानक निकला 'स्वाद भी एक संस्कार है' | उन्हें वह भा गई | सेमीनार से लौटकर उन्होंने  बताया कि वह लाइन तो सुपर हिट हो गई |

और उसके बाद मैं सदैव इस विषय पर सोचता रहता हूँ कि बचपन में जो व्यंजन रुचिकर लगते थे उनका स्वाद आज भी याद है और उनकी इच्छा भी यदाकदा होती है | सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि भारतीय व्यंजनों के स्वाद में केवल रेसिपी ही नहीं स्थान की हवा , पानी और मिट्टी का भी योगदान होता है | इसका उदहारण बरसों पहले भोपाल में एक बड़ी सी दावत में मिला | उसके भोजन की हर व्यक्ति तारीफ़ कर रहा था | बाद में ज्ञात हुआ कैटरिंग वाला उज्जैन का था और दो टैंकर पानी भी अपने साथ ले कर आया जिससे कि वह उज्जैन जैसा ही स्वाद प्रदान कर सके | आप सभी ये अनुभव करेंगे कि मथुरा के पेड़े का जो स्वाद वहां मिलेगा वह दूसरे शहर में वैसा ही बनाने पर नहीं मिलता | लखनऊ , बनारस और उज्जैन तीनों में ठंडाई बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय है | सौभाग्य से मुझे तीनों जगह उसे चखने का अवसर मिला लेकिन तीनों के स्वाद में कुछ अलग विशिष्टता थी |

इस बारे में एक बात और ध्यान में आती है | गंगा और यमुना दोनों का उद्गम स्थल उत्तराखंड  है | उनमें हवाई दूरी भी ज्यादा नहीं है लेकिन दोनों के पानी का स्वाद अलग है | एक का मीठा और दूसरे का खारापन लिए हुए है  | इसीलिये किसी जगह बनी खाद्य सामग्री वहां के वातावरण से प्रभावित होती है | भारत की भौगोलिक स्थिति और मौसम में भी विभिन्नता है | और इसीलिये हमारे  खान -   पान का निर्धारण उसी के अनुरूप किया गया | किस मौसम में क्या खाने से शरीर को फायदा और क्या खाने से नुकसान होगा ये डाक्टर से पहिले परिवार नामक पाकशास्त्र की पाठशाला में पढ़ा दिया जाता था | 

भारतीय जीवन शैली  प्रकृति से संघर्ष की बजाय उसके संग सामंजस्य बनाकर चलने पर आधरित है | और इसीलिए देश भर में बोली और पहिनावे की तरह से ही भोजन सम्बन्धी विविधता भी है | और इसके पीछे स्वास्थ्य को लेकर किये गये प्राचीन शोध हैं | 

भूमंडलीकरण की पालक शक्तियों ने हमारे  स्वाद को भी अपने अनुसार ढालकर  उसके लिए भी बाजार पर निर्भर रहना सिखा दिया | कोका कोला और पेप्सी से बढ़ते हुए बात पिज्जा और केएफसी तक चली आई | और इसी की तर्ज पर पनपे वे देशी ब्रांड जिन्होंने हमें हलवाई संस्कृति से दूर करने में सफलता हासिल कर ली | लॉक डाउन के कारण पुराने शहर के जिस हलवाई के यहाँ का बना ताजा नमकीन हमारे यहाँ आया करता था वह बंद है । लेकिन कालोनी के मुहाने पर स्थित किराने की दुकन वाले के यहाँ महीनों पहले बने नमकीन के पाउचों की झालरें लटक रही हैं |

पता नहीं आगे से कोई  ऑन लाइन खाद्य सामग्री मंगाने पर डिलीवरी मैन के स्वास्थ्य के बारे में जानने की याद रखेगा या नहीं ? लेकिन हो सके तो अपने देश की हलवाई  संस्कृति से सम्पर्क को पुनर्जीवित करते हुए ताजेपन का सुख लेने के साथ ही स्वाद के उस संस्कार को सुरक्षित रखने में अपना योगदान देना न भूलें जो बहुत बड़ा कुटीर उद्योग होने के साथ ही सामाजिकता और पाक कला का मजबूत स्तम्भ है |

और हाँ , भारतीय पाक कला और शास्त्र को चंद पांच सितारा शैफ के भरोसे न छोड़कर उसका पालन करें । क्योंकि वे स्वाद और स्वास्थ्य दोनों का ध्यान रखते हैं ।

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