Tuesday 21 April 2020

घर के भीतर का कबाड़ उठाकर गैरेज में रखना कोई हल नहीं : शहरों की बसाहट और आवास नीति में बदलाव जरूरी



 
कुछ दिन पहले मैंने ‘ क्योंकि धारावी में लोग नहीं वोट रहते हैं ‘ शीर्षक से देश में झुग्गी  - झोपड़ी की मौजूदगी के मद्दे नजर अपने आलेख में सुझाव दिया था कि कोरोना के बढ़ते  संक्रमण के बाद हमें अपने शहरों की बसाहट को नये सिरे से नियोजित करते हुए  कोरोना संकट  के बाद भी भविष्य  में सम्भावित  किसी महामारी में भारत सामुदायिक संक्रमण से बचा रहे इसके लिए अपने नगरों को झुग्गी विहीन बनाना होगा |

एक सुधी पाठक ने उस पर   ‘एक स्तर पर आकर भौतिक सुविधा सम्पन्न पीढ़ियों के व्यक्तियों की चिन्तन शैली ‘ , जैसी टिप्पणी भी की | लॉक डाउन का दूसरा चरण शुरू होने के बाद कोरोना संक्रमित लोगों की बढ़ती संख्या कभी खुशी - कभी गम वाली स्थिति उत्पन्न कर रही है | अभी तक के जो आंकड़े आये हैं उनमें ये बात देखी गई  है कि घनी बस्तियों में रहने वाले लोगों में  इस महामारी का संक्रमण तुलनात्मक तौर पर ज्यादा है | और ये भी कि वहां लॉक डाउन या कर्फ्यू कुछ भी लगाया जावे किन्तु सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना नामुमकिन है |

 मेरे संदर्भित आलेख में कोरोना के बाद के भारत में झुग्गी झोपड़ी नामक कलंक को धोने की जो बात थी उसे अधिकतर पाठकों ने समर्थन दिया | लेकिन विगत दिवस  समाचार माध्यमों में देश के सबसे सम्मानित उद्योगपति रतन टाटा का एक बयान देखने मिला जिसमें उन्होंने कहा कि कोरोना के बाद हमें गन्दी बस्तियों की पुनर्बसाहट की अपनी नीति बदलनी चाहिए | उनका आशय बड़ी इमारत बनाने के लिए इन बस्तियों को दूसरी जगह बसा देने से था | श्री टाटा ने पुनर्बसाहट के दौरान गरीबों को गुणवत्तापूर्ण जीवन देने के उद्देश्य को सामने रखते हुए देश की हाऊसिंग पॉलिसी पर भी सवाल उठाये | ‘ फ्यूचर ऑफ डिजाइनिंग एंड कंस्ट्रक्शन ‘ विषय पर आयोजित एक ग्लोबल चर्चा में  उन्होंने उक्त बात कही | इस वर्चुअल पैनल डिस्कशन में 10 हजार  कारपोरेट एवं 100 से ज्याफा स्टार्टअप शामिल थे |

रतन टाटा की छवि बड़े ही सुलझे हुए व्यक्ति की है |  वे न सिर्फ एक सफल उद्योगपति हैं बल्कि समाजसेवा के क्षेत्र में उनका योगदान उन्हें हर किसी के सम्मान का पात्र बना देता है | ये कहना गलत नहीं होगा कि वे उन सर्वश्रेष्ठ भारतीयों में हैं जिनकी वजह से दुनिया भर में देश का मान - सम्मान बढ़ता है | इसीलिए जब उनका उक्त बयान पढ़ा तो मुझे अपने आलेख की सार्थकता महसूस हुई और ये भी लगा कि मैं अकेला ही नहीं हूँ , इस विषय पर और भी बहुत से लोग विचार करने लगे हैं |

 उक्त  फोरम में अपने विचार रखते हुए उन्होंने बड़ी ही साफगोई  से कहा कि मेरा सुझाव है कि गन्दी बस्तियों में रहने वालों के रहन  - सहन पर शर्मिन्दा होने के बजाय हमें उनको नये भारत का हिस्सा मानकर स्वीकार करना चाहिये | श्री टाटा ने गन्दी बस्ती उन्मूलन की नीति  बनाते समय वहां के लोगों की जरूरतों और गुणवत्ता के स्वीकार्य मानकों को ध्यान में रखने की बात भी कही |

श्री टाटा के उक्त विचार जानकर मुझे लगा कि अब इस विषय पर राष्ट्रीय बहस शुरू होकर किसी अंजाम तक जरुर पहुंचेगी | किसी भी देश पर जब आपदा आती है तो उसके कारण जन और  धन का नुकसान  तो होता ही है किन्तु उसका जो सबसे बड़ा दुष्परिणाम सामने  आता है , वह है अवसाद | चारों तरफ बर्बादी , भय और लाशें देखते - देखते सामूहिक चेतना सामूहिक वेदना में बदल जाती है और समाज का बड़ा तबका जीवन के प्रति निराशा के भाव से भर उठता है | ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है | 

लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है | द्वितीय विश्वयुद्ध में उसमें शामिल प्रत्येक  देश को नुकसान उठाना  पड़ा | जो जीते वे भी उससे बच नहीं सके और जो परास्त हुए उन पर तो दोहरी मार पड़ी | उनमें जापान को तो परमाणु हमले की त्रासदी तक झेलनी पड़ी | लेकिन वहां के लोगों ने जबरदस्त पौरुष का प्रदर्शन किया | लाखों लाशों के ढेर , बर्बादी का चौतरफा मंजर और आने वाले कई सालों तक पैदा हुए बच्चों की विकलांगता देखकर किसी का भी कलेजा बैठ जाता | लेकिन जापान ने एक उदहारण पेश किया जिजीविषा का | और मात्र 10 से 15 साल के भीतर वह देश नवनिर्माण का प्रतीक बनकर विकास की ऊँचाइयों को  छूने लगा |

बाकी एशियाई देशों की तुलना में जापान में भी आबादी का घनत्व बहुत ज्यादा है | जमीन की कमी के कारण भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर पुनर्निर्माण की जो नीति बनाई गयी उसने जापान में विध्वंस और गरीबी के रहे - सहे अवशेष  भी मिटाकर रख दिए |

भारत 1947 में जब आजाद  हुआ तब एक चलता हुआ देश अंग्रेज सौंप गए थे | हमें केवल अपनी जरूरतों का पुर्निर्धारण करते हुए भविष्य की राह बनाना थी | इसे लेकर प्रयास नहीं हुए ऐसा तो नहीं कहा जा सकता | लेकिन अनेक ऐसी चीजें उपेक्षित हो गईं जो कालान्तर में लाईलाज बीमारी की शक्ल ले बैठीं | आवास समस्या और शहरों तथा महानगरों की व्यवस्थित बसाहट को लेकर जो लापरवाही बरती गई उसका दुष्परिणाम मुम्बई की धारावी झोपड़ पट्टी के रूप  में सामने आया | और देखते - देखते पूरे देश में उसके छोटे रूप नजर आने लगे |

 दुर्भाग्य से बजाय समस्या को हल करने के उसे इतना जटिल बना दिया गया कि स्थिति मर्ज बढ़ता गया ज्यों - ज्यों दवा दी वाली हो गई। कोरोना ने इस दुखती रग पर हाथ रखने के लिये मजबूर न किया होता तब शायद न मैं सोचता और न ही रतन टाटा जैसे बड़े लोग | 

हमें ये स्वीकार करने में भी नहीं हिचकना  चाहिये कि ऐसा हम उन गरीबों की बेहतरी से ज्यादा अपनी और अपनी संतानों की सुरक्षित ज़िन्दगी के लिए सोच रहे हैं |

इसलिए  अब जो नया भारत विकसित हो उसमें पहले से बेहतर के साथ ही सबके लिए सुलभ चिकित्सा सुविधाओं के अलावा हर इन्सान के लिए रहने लायक ऐसे आवास की उपलब्धता सुनिश्चित हो जिसमें जीवन की न्यूनतम सुविधाएँ रहें  | यदि अब भी भारत ऐसा नहीं कर  पाया तो ये एक बड़ी सामाजिक , आर्थिक  समस्या के साथ ही महामारियों का स्वागत द्वार बना रहेगा |

 रतन टाटा ने भी इसीलिये कहा कि झोपड़ पट्टी में पास - पास रहने के बारे में  इस महामारी ने चेताया है | देश की आवास नीति में शहरों की बसाहट को भावी जरूरतों के मुताबिक बनाने के साथ ही झोपड़ पट्टियों को एक जगह से हटाकर दूसरी जगह उनका पुनर्वास कर देना बुद्धिमता नहीं  कही जा सकती | 

कुछ बीमारियों को राज रोग कहा जाता है क्योंकि अक्सर सम्पन्न वर्ग ही उनका शिकार होता है | विलासितापूर्ण जीवन शैली  ऐसी बीमारियों को शरीर में प्रवेश का रास्ता दिखाती हैं |

 लेकिन कोरोना ने बता दिया कि वह पूरी तरह समाजवादी है | उसकी नजर में अमीर - गरीब और  महल  - झोपड़ी में कोई अंतर नहीं है | इसने इस आत्मविश्वास को भी झुठला दिया कि आम भारतीय की रोग प्रतिरोधक क्षमता जबरदस्त है क्योंकि वह जिस तरह की परिस्थितियों में रहता है उसकी वजह से वायरस उसका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा |

 लेकिन ज्योंहीं उसका फैलाव हुआ तो क्या बंगला - कोठी और क्या झोपड़ पट्टी , सभी को उसने अपने बाहुपाश में जकड़ लिया | भारत के  बारे में ये माना जा रहा है कि ये कम से कम नुकसान के साथ कोरोना पर विजय हासिल करने में कामयाब हो जाएगा | लेकिन मेरे पूर्व आलेख के बाद अब रतन टाटा का ये कहना कि महामारी ने हमें सघन बस्तियों की बसाहट के खतरे से आगाह कर दिया , सोचने को मजबूर कर देता है | विचारणीय बात ये हैं कि ये महामारी दोबारा नहीं आयेगी इसकी गारंटी कोई भी नहीं दे सकता और क्या पता अगली बार किसी और नाम और लक्षणों के साथ नया वायरस हम पर हमला कर दे |

 ऐसे में हमें न केवल झोपड़ पट्टी का पुनर्वास नये तरीके से करना चाहिए   बल्कि अपने  महानगरों ही नहीं महानगर बनने की राह पर अग्रसर दूसरे बड़े शहरों में प्रवासी मजदूरों की आवासीय व्यवस्था के बारे में भी व्यापक कार्ययोजना बनानी चाहिए | ये भी कि बड़े शहरों के आकार और जनसंख्या का भार वहन करने की क्षमता का अध्ययन करते हुए उनके असीमित विस्तार को रोका जाए |

भविष्य में किसी ऐसी ही महामारी से यदि देश को सुरक्षित रखना है तो आबादी का विकेंद्रीकरण करना जरूरी है | घर के भीतर का कबाड़ उठाकर गैरेज में रख देना तात्कालिक निदान तो हो सकता है लेकिन आगे जाकर वह भी नई समस्या बने बिना नहीं रहेगा | इसीलिये पहले झुग्गियों का विस्थापन और उसके बाद किसी और जगह पुनर्स्थापन करना भी घर  के भीतर का कबाड़ गैरेज में जाकर रख देना  जैसा ही हैं |

 भारत के सामने अनेक नए अवसर आने वाले हैं लेकिन उनको सफलता  में बदलने के लिए अपने शहरों और उनमें झुग्गी बनाकर रह रहे लोगों का रहन सहन सुधारते हुए गरीबों  के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने का काम करना होगा | वरना महामारी जैसी आपदाएं आती  रहेंगीं और लोग मरते रहेंगे |

 न सिर्फ ध्यान देने बल्कि याद रखने वाली बात ये है कि महामारी केवल मेड इन चाइना हों , ये जरूरी नहीं | वह मेड इन इण्डिया भी तो  हो सकती है | इसलिए बेहतर होगा  शहरी बसाहट में झोपड़ पट्टी का समुचित विकल्प ढूंढा जाए क्योंकि कोरोना तो अपेक्षाकृत सम्पन्न वर्ग से शुरू हुआ  परन्तु भावी महामारी ने कहीं झोपड़ पट्टी से शुरुवात की तो जो स्थिति बनेगी उसकी कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देती है |

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