Tuesday 28 April 2020

भरपूर पूंजी और सस्ते श्रम से बन सकती है बात



रिज़र्व बैंक ने म्यूचल फंड के लिए 50 हजार करोड़ रु. जारी करते हुए उनकी तरलता बढ़ाये जाने का जो प्रयास किया वह अत्यंत सामयिक निर्णय है। इस समय यही सबसे बड़ी जरूरत है जिससे निजी और सरकारी दोनों क्षेत्र जूझ रहे हैं। लॉक डाउन के क्रमश: खत्म होते जाने की संभावनाएं गत दिवस प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्रियों की चर्चा के बाद बढ़ती दिख रही हैं। वैसे चिकित्सकीय दृष्टिकोण से से अभी तक कोरोना संक्रमण को रोकना चूँकि संभव नहीं है इसलिए लॉक डाउन को एक आवश्यक बुराई मानकर जारी रखा जाना चाहिए  लेकिन इसी के साथ दुनियादारी को भी देखा जाना जरूरी है और उस लिहाज से धीरे-धीरे उसमें ढील देते हुए जनजीवन को सामान्य किये जाने की भी जरूरत है। कुछ राज्यों को छोड़कर शेष ने लॉक डाउन को शिथिल बनाने की मंशा व्यक्त की और ऐसा लगता है प्रधानमंत्री इस बारे में नीति निश्चित करते हुए राज्यों पर ही फैसला छोड़ देंगे। कुछ राज्यों ने तो कारखाने वगैरह शुरू करवा भी दिए हैं। दरअसल जरूरी चीजों की आपूर्ति बनाये रखने के लिए व्यापार के साथ उद्योग भी शुरू होना जरूरी है। अन्यथा आने वाले दिनों में कालाबाजारी का खतरा पैदा हो जाएगा। उससे भी बड़ी बात ये है कि जनता का मनोबल बनाये रखना जरूरी है। अभी तक किसी भी जरूरी चीज का चूँकि अभाव नहीं हुआ इसलिए जन सामान्य में व्यवस्था के प्रति भरोसा कायम है। लॉक डाउन को और आगे बढ़ाने से सबसे ज्यादा दिक्कतें मजदूर वर्ग को होंगी। भले ही उनके पास खाने के लिए राशन हो लेकिन हाथ में नगदी नहीं होने से वे जीवनयापन में कठिनाई महसूस करने लगे हैं। लॉक डाउन में ढील मिलने से उनके लिए कुछ न कुछ रोजगार तो पैदा होगा ही। लेकिन अर्थव्यवस्था को चलायमान रखने के लिए उद्योगों और व्यापारियों के पास भी नगदी का अभाव है। बीते सवा महीने से बिना कारोबार के उनकी जमा पूंजी भी जवाब दे गयी। जिनके पास कर्मचारियों की बड़ी संख्या है उनने बीते माह की तनख्वाह तो बाँट दी लेकिन आगे उनके पास गुंजाईश नहीं है। अनेक प्रतिष्ठानों ने तो वेतन में कटौती भी कर दी। केंद्र सरकार ने अभी तो 30 जून तक जीएसटी जमा करने की मोहलत दी है लेकिन मई के पहले हफ्ते में चूँकि पूरे देश में कारोबार एक साथ शुरू नहीं हो सकेगा इसलिए जीएसटी चुकाना बेहद कठिन होगा। बेहतर हो इस अवधि को दो महीने और बढ़ा दिया जाए। इसके अलावा एक सुविधा ये भी दी जाए कि जीएसटी में भी आंशिक भुगतान की छूट मिले तथा रिटर्न के समय शेष राशि जमा करने की सुविधा रहे। रिजर्व बैंक ने हालांकि बाजार में छोटे और मध्यम श्रेणी के उद्यमियों के लिए सस्ता कर्ज उपलब्ध करवाने की पहल की है लेकिन व्यापार जगत के सामने कारोबार शुरू करते ही पिछली देनदारी चुकाने का भार आयेगा। चूँकि व्यवसाय भी एक दूसरे पर निर्भर है इसलिए पारस्परिक लेनदेन के साथ ही खरीददारों की क्रय शक्ति बढ़ाने की भी जरूरत है। और उसके लिए जरूरी है किसी भी कीमत पर रोजगार उपलब्ध करवाना। लेकिन सरकार के अपने बनाये श्रम कानून ही इसमें आड़े आ जाते हैं। कोरोना के कारण पैदा हुई परिस्थितियों में करोड़ों की संख्या में श्रमिक बेरोजगार हुए हैं। उन्हें निर्धारित मजदूरी देने की स्थिति नहीं होने से फिलहाल उन्हें भी वक्त की नजाकत को समझते हुए जो और जहां काम मिले करने को तैयार रहना चाहिए। आखिर सरकार भी उनकी कब तक सहायता कर सकेगी। जो श्रमिक शहरों से गाँव लौट गये हैं वे इतनी जल्दी नहीं लौटेंगे। ऐसी सूरत में उन्हें अपने गाँव या कस्बे में ही छोटा-मोटा जो भी काम मिले उसे करते हुए अपनी आय का कुछ स्रोत तो बनाना ही होगा, वरना वे भूखे सोने को मजबूर रहेंगे। ये आर्थिक आपातकाल है जिसमें कर्मचारी और नियोक्ता दोनों ही के सामने एक जैसा संकट है। सरकार गरीबों के खाते में जो नगदी जमा करवा रही है वह बेशक अपार्याप्त है, लेकिन इस समय सरकार का हाथ भी तंग है। कोरोना से अर्थव्यवस्था को जो धक्का लगा है उससे उबरने में समय लगेगा। साथ ही उद्योगों को जिन्दा रखने के लिए उत्पादन की लागत कम रखना होगी जो मौजूदा श्रम कानून के चलते संभव नहीं होगा। जिस तरह से भारत को चीन की तरह मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने की तैयारी चल रही है उसके लिए पूंजी और सस्ता श्रम उपलब्ध कारवाना बहुत जरूरी है। भारत में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो या तो कुछ करते नहीं या अपनी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं करते। बेहतर होगा इस निष्क्रिय श्रम शक्ति को काम पर लगाया जाए। विशाल संख्या में मानव संसाधन इस देश की बहुत बड़ी ताकत बन सकता है बशर्ते उसका उपयोग हो। कोरोना के बाद बहुत कुछ बदलने की बात हो रही है लेकिन उसके लिये हमें अपनी सोच बदलनी होगी। भारत के पास विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने का ये बेहद ही अनुकूल अवसर है। लेकिन इसके लिये हमको थोड़ा लचीला और व्यावहारिक होना पड़ेगा। अन्यथा इंकलाब जिंदाबाद के नारे तो खूब लगेंगे किन्तु वह आएगा नहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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