Thursday 30 April 2020

क्या आगे भी जनता की चप्पलें घिसती रहेंगीं ?या कोरोना काल जैसा सेवा और समर्पण बना रहेगा



 

25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात में स्व. इंदिरा गांधी की सरकार ने राष्ट्रपति स्व. फखरुद्दीन अली अहमद को जगाकर एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर करवाते हुए देश में आपातकाल लगा दिया | इसमें क्या - क्या हुआ वह  एक अलग कहानी है लेकिन सुबह होते - होते तक दिल्ली में बाबू जयप्रकाश नारायण से लगाकर तहसील और कस्बों तक के अधिकतर विपक्षी नेता  मीसा  (राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम ) के तहत  गिरफ्तार हो  चुके थे |  जो उस समय नहीं मिले उन्हें बाद में पकड़कर  जेल भेज दिया गया | इनमें से अनेक ऐसे नेता भी रहे जिनके विरुद्ध  जनांदोलनों के अलावा अन्य कुछ मामलों में अदालती वारंट जारी हो चुके थे लेकिन पुलिस और प्रशासन उनकी तामीली नहीं करवा पाता था | 

लेकिन दिल्ली  में आधी रात को हुए एक फैसले के बाद पूरे देश के प्रशासन ने अभूतपूर्व मुस्तैदी दिखाते हुए जिस तरह विपक्ष के हजारों बड़े और छोटे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया वह प्रशासनिक दक्षता का ज्वलंत उदाहरण था | वह भी तब जबकि उस समय तक देश में बाबा आदम के ज़माने की संचार सुविधाएँ हुआ करती थीं | बाहर के शहरों में फोन से बात करने में ट्रंक काल लगाना पड़ता जिसमें कई बार घंटों इंतजार करना होता था | एसटीडी ( सीधी डायलिंग सेवा ) भी बाद  में शुरू हुई |

 ऐसे में आपातकाल को लागू करते हुए तकरीबन पूरे देश में एक साथ इतने बड़े पैमाने पर राजनीतिक नेताओं को ढूँढ़कर पकड़ना आसन काम नहीं था | लेकिन लेट - लतीफी के लिए बदनाम भारत की नौकरशाही ने उस रात जो कारनामा कर  दिखाया वह लोकतंत्र के लिहाज से भले ही घोर आपत्तिजनक रहा किन्तु प्रशासनिक कार्य क्षमता की कसौटी पर बड़ा काम था | अनेक ऐसे नेता जो अपने शहर में नहीं थे उन्हें ठिकाना पता करते हुए वहां पकड़ा गया |

वैसे प्रशासनिक कार्यक्षमता का सबसे बड़ा उदाहरण होता है भारत का आम चुनाव | जिस सरकारी मशीनरी को भ्रष्ट , कामचोर , लालफीताशाही का संरक्षक , काले अंग्रेज जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है वही भारत जैसे विविधता  भरे देश में इतनी बड़ी चुनावी प्रक्रिया को न्यूनतम त्रुटियों के साथ समय पर संपन्न करवाती है  |

 जब भी कहीं देश की प्रशासनिक मशीनरी  को लेकर चर्चा होती है तब मैं सदैव तीन उदाहरण देते हुए कहता हूँ कि हमारे देश की नौकरशाही को इन आधारों पर न तो कामचोर ठहराया जा सकता है और न ही अक्षम |  दो उदाहरण तो आपने ऊपर पढ़ लिए और तीसरा मेरी  नजर में है  कुम्भ मेले का आयोजन |

 भारत में प्रयागराज , हरिद्वार , नासिक और उज्जैन में प्रत्येक 12 वर्ष के अन्तराल पर कुम्भ मेला भरता है | इसका पौराणिक संदर्भ अलग विषय है इसलिए उसकी चर्चा न करते हुए इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि उक्त चारों में प्रयागराज का कुम्भ  सबसे विशाल होता है | एक महीने के इस  आयोजन में पूरी दुनिया से लोग आते हैं | विदेशी पर्यटक ही नहीं अपितु दुनिया के प्रसिद्ध प्रबन्धन  संस्थान भी इसका अध्ययन और अवलोकन करने लगे हैं | इसमें मुख्य स्नान के दिन कई करोड़ लोग गंगा  - यमुना  के पवित्र संगम  में स्नान करते हैं | सामान्य दिनों  में भी मेला स्थल पर लाखों लोगों की मौजूदगी रहती हैं |  सबसे बड़ी बात यातायात का नियन्त्रण जिस कुशलता से किया  जाता है वह देखकर  हर कोई आश्चर्य में डूब जाता है |

 विश्व के इस सबसे बड़े मानवीय सैलाब को सम्पूर्ण व्यवस्था के साथ नियंत्रित करने का काम भी हमारे देश की प्रशासनिक मशीनरी ही सफलतापूर्वक करती है | अपवादस्वरूप कोई दुर्घटना या कमी रह जाए तो बात अलग वरना प्रयागराज का कुम्भ मेला भारत की नौकरशाही के अद्वितीय प्रबन्धन कौशल और कार्यक्षमता का नायाब नमूना कहा जा सकता है |

 लेकिन बीते एक माह के अवलोकन के बाद मैं अपने तीन  उदाहरणों में एक और जोड़ने जा रहा हूँ और वह है कोरोना के कारण लागू किये गये देशव्यापी लॉक डाउन के दौरान पूरे देश को संभालना | किसी उपद्रव के कारण लगने वाले कर्फ्यू के दौरान भी प्रशासन को मैदानी काम  करना होता है | लेकिन  देश भर में बीते तकरीबन सवा माह से कोरोना नामक महामारी का जो भय व्याप्त है उसमें करोड़ों लोगों को घरों में रहने के लिए राजी कर लेने में प्रधानमंत्री की अपील का बड़ा योगदान रहा किन्तु जमीनी स्तर पर उसे सफल बनाने का जिम्मा जिस प्रशासनिक अमले के कन्धों पर है  उसने अविश्वसनीय तरीके से उसका निर्वहन कर दिखाया |

कोरोना से लड़ने का काम केवल हुकुम और डंडा चलाने से नहीं हो सकता था | उसके लिए शासन के सभी विभागों में समन्वय बनाकर हालात को संभालना आसान नहीं था | लेकिन देश के नौकरशाहों ने इस दौरान अब तक अपने दायित्वों का जिस कुशलता और समर्पण भाव से निर्वहन किया वह आने वाले समय में अध्ययन का विषय बनेगा | जिस दौर में हर व्यक्ति अपनी प्राण रक्षा के प्रति चिंतित  हो तब अपने नवजात शिशु को गोद में लेकर कार्यालय में उपस्थित युवा महिला जिलाधिकारी का चित्र पूरे देश में चर्चित हुआ |

 कोरोना के सन्दर्भ में प्रशासनिक मशीनरी से आशय आला नौकरशाहों से लेकर , मेडिकल स्टाफ , गली मोहल्लों में घुसकर सफाई और सैनिटाइजिंग करने वाले छोटे कर्मचारी तक से है | ये मान लेना तो कि रामराज भारत की धरती पर उतर आया है , अतिशयोक्ति होगी लेकिन कलियुग में चारों तरफ व्याप्त विसंगतियों को देखते हुए इसे उसका छोटा रूप तो माना ही जा सकता है |

कोरोना के पूर्व तक जनता की निगाहों में उक्त सभी लोगों की छवि बहुत ही नकारात्मक थी | लेकिन लॉक  डाउन ने उनके व्यवहार  में जो परिवर्तन देखा वह किसी सुखद आश्चर्य से कम  नहीं है |

इस आलेख का उद्देश्य नौकरशाही का महिमामंडन करना कदापि नहीं हैं अपितु इस बात को स्पष्ट करना है कि  जनता के प्रति उसका दायित्वबोध और कार्य संबंधी प्रतिबद्धता किसी भी विकसित  देश की तुलना में कम होने का तो सवाल ही नहीं बल्कि कहीं - कहीं तो बेहतर कही जायेगी |

 लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि हमारे देश के  प्रशासनिक अमले की ये विलक्षण क्षमता , दायित्व बोध और संवेदनशीलता कुछ चुनिन्दा अवसरों पर ही क्यों देखने मिलती है ? ये माना कि इस समय  सरकार का पूरा ध्यान केवल  और केवल कोरोना संबंधी आपात व्यवस्थाओं  पर केन्द्रित है लेकिन इसका आधा भी सामान्य समय में प्रशासन करे तो जनता के मन में उसकी छवि तो सुधरेगी ही देश के विकास में भी वह सहायक होगा |

कोरोना के विरुद्ध जारी जंग का क्या अंजाम होगा ये पूरी तरह अनिश्चित है | लॉक डाउन कितने दिन तक अभी और जारी रहेगा ये  भी कोई नहीं बता सकता | इन हालातों में जनता तो हलाकान है ही | विशेष रूप से वे गरीब मजदूर जो बेरोजगारी , बेघरबारी और भूख से बेहाल हैं | लेकिन दूसरी तरफ कोरोना से लड़ रही सरकारी मशीनरी का हर शख्स भी उतना ही परेशान है | उसका भी अपना परिवार और जीवन है | अनेक पुलिस कर्मी  , चिकित्सक और अन्य शासकीय कर्मी दूसरों  की जान बचाते हुए जान गँवा बैठे | जिन कोरोना मरीजों ने डाक्टरों के साथ हिंसा और निम्नस्तरीय व्यवहार किया , यहाँ तक कि महिलाओं के साथ भी अश्लील और अमानवीय हरकतें कीं , उनका भी इलाज करने से मना नहीं करना ये  दर्शाता है कि जब लक्ष्य बड़ा हो तब छोटी - छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए |

लेकिन भारतीय नौकरशाही को इस बात पर गम्भीर चिन्तन - मनन करना चाहिए कि वह विशिष्ट अवसरों पर ही  सेवा और समर्पण का ऐसा भाव क्यों व्यक्त करती है ? ऐसा नहीं है कि ऐसे समय  सभी कर्मठ हो जाते हों और सामान्य समय में सब कामचोर बन जाते हों | लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि सामान्य दिनों में प्रशासनिक अमले का दायित्व बोध लॉक डाउन होकर लुप्त हो जाता है |

 मेरे एक मित्र ने मुझे जापान का एक किस्सा सुनाया । तकरीबन दो दशक पूर्व वे सपत्नीक टोकियो में थे | वहां की रिवॉल्विंग रेस्टारेंट बड़ी प्रसिद्ध है | एक गगनचुम्बी इमारत की  सबसे ऊँची मंजिल पर घूमते हुए इस रेस्टारेंट से रात में टोकियो का नजारा  बड़ा खूबसूरत दिखाई देता है | वे दोनों शनिवार की शाम वहां डिनर हेतु गये | किन्तु भीतर जबरदस्त भीड़ के कारण उन्हें तकरीबन एक घंटा टेबिल प्राप्त करने हेतु इंतजार करना पड़ा | उस रात वे ज्यादा समय वहां नहीं बिता सके इसलिए दूसरे दिन आने का निर्णय किया और पिछले अनुभव से सबक लेकर शाम को जल्दी पहुँच गये | भीतर अधिकतर टेबिलें खाली थी | उन्होंने उस टेबिल को चुना जहां से रात को टोकियो की  भरपूर ख़ूबसूरती निहार सकें | काफी समय बीतने के बाद भी ज्यादा लोग नहीं आये तब उन्होंने वेटर से वजह पूछी तो उसने बताया कि शनिवार रात ज्यादा लोग  इसलिए  आते हैं क्योकि रविवार को उन्हें काम पर नहीं जाना होता अतः वे आराम से उठते हैं वहीं रविवार रात मौज - मस्ती छोड़ जल्दी सोते हैं जिससे सोमवार सुबह ठीक समय पर काम पर पहुँचें |

 हमारे देश में दफ्तर खुलने के थोड़ी देर बाद ही टेबिल पर बैठा व्यक्ति चाय पीने कैंटीन चला जाए तो आश्चर्य नहीं होता  | अधिकारियों की उपलब्धता भी भगवान भरोसे होती है | अब जबकि कोरोना उपरांत एक नए भारत के सपने हर आँख में हैं तब क्या हम अपेक्षा कर सकते हैं कि बीते सवा माह में हमने जिस सरकारी अमले को कर्तव्य पथ पर बढ़ते हुए देखा , वह भविष्य में  भी इतनी ही कर्मठता और समर्पण भाव से जनता के साथ पेश आयेगा ?

अभी तक का जो चलन है उसके अनुसार तो  यातायात सप्ताह में ही उसकी चिंता रहती है | उसी तरह राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षण के समय सफाई व्यवस्था चाक चौबंद हो जाती है | लेकिन शेष समय इनकी तरफ  से आँखें  फेर ली जाती हैं |

इस बारे में सोवियत संघ के तानाशाह स्टालिन से जुड़ा एक वाकया उल्लेखनीय है | हुआ यूँ कि उनके देश में डाक विभाग में इस बात की प्रातियोगिता हुई कि कौन कर्मचारी सबसे ज्यादा चिट्ठियाँ तय समय में छांटता है | जिस कर्मचारी ने सबसे ज्यादा  चिट्ठियाँ छांटीं उसे स्टालिन से पुरस्कार दिलवाया गया | और फिर उन्होंने अपने भाषण में कहा कि आगे से चिट्ठियाँ छांटने वाले हर कर्मचारी को इतनी ही छंटाई करनी होगी | क्योंकि ईनाम की लालच में जो कार्य किया गया वह असम्भव नहीं है |

विशिष्ट परिस्थितियों में हमारा सरकारी अमला जिस पराक्रम का प्रदर्शन करता है यदि उसका आधा भी सामान्य अवसरों पर करता रहे तो फिर देश दोगुनी गति से आगे बढ़ सकता है |

किसी चप्पल निर्माता का वह विज्ञापन हमारी व्यवस्था पर सबसे तीखा व्यंग्य था जिसमें एक साधारण व्यक्ति दफ्तर में बैठे बाबूनुमा कर्मचारी से शिकायत भरे लहजे में कहता है कि यहाँ के चक्कर लगाते - लगाते मेरी चप्पल घिस गयी  और बजाय उसकी समस्या दूर करने के वह बाबू तंज कसते हए कहता है कि तो आपने फलां कम्पनी की चप्पल क्यों नहीं खरीदी ?

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