Wednesday 28 November 2018

हर वक्त चुनाव से ऊबने लगे हैं लोग


मप्र की चुनावी जंग खत्म होते ही राजस्थान के प्रचार में तेजी आ गई। उसके बाद मिज़ोरम और तेलंगाना में घमासान होगा। प्रधानमंत्री , राहुल गांधी और बाकी के स्टार प्रचारक आखिरी क्षणों में अपनी पार्टी की जीत के लिए पूरा जोर लगाएंगे। स्थानीय नेता भी अपनी तरफ से हरसम्भव कोशिश पहले से ही कर रहै हैं। पिछले एक माह से भी ज्यादा समय से चुनाव वाले राज्यों में शासन-प्रशासन पूरी तरह से चुनाव कार्य में जुटा हुआ है। विकास कार्य ठप्प हैं। नए शुरू होना तो दूर रहा। चूंकि हमारे देश में राजनीति जाति, धर्म, गांव-मोहल्ले में बंटी हुई है इसलिए समाज का बड़ा हिस्सा चुनावी चक्कर में फंस जाता है। सरकारी शिक्षकों और प्राध्यापकों की चुनाव ड्यूटी लगने से शिक्षण कार्य भी प्रभावित होता है। विधानसभा चुनाव खत्म होने के कुछ समय पश्चात ही लोकसभा की चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी जो मई के आखिरी तक चलेगी। उसकी वजह से इस शैक्षणिक सत्र की वार्षिक परीक्षाओं का पूरा कार्यक्रम गड़बड़ाएगा। सबसे बड़ी बात ये है कि अगले वित्तीय वर्ष का वार्षिक बजट इसकी वजह से असमंजस में फंसा है। खबर ये है कि मोदी सरकार बजाय अंतरिम के पूर्ण बजट पेश करने का मन बना रही है। इसके पीछे सोच ये है कि लोकसभा चुनाव की वजह से देश का आर्थिक प्रबंधन प्रभवित न हो। यद्यपि विपक्ष और चुनाव आयोग इसमें अवरोध उत्पन्न कर सकता है क्योंकि लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पूर्व  केंद्र सरकार लोक-लुभावन बजट के जरिये आम मतदाता को आकर्षित कर सकती है। लेकिन दूसरी तरफ  ये भी सही है कि जो भी नई सरकार बनेगी उसका पहला बजट तकरीबन आधे साल के लिए होगा जबकि आखिरी महज तीन चार महीनों के लिए जो कि अंतरिम ही होता है। लोकतंत्र के प्रति असीम श्रद्धा रखने के साथ ये भी विचारणीय है कि क्या देश को पूरे पांच वर्ष चुनावी माहौल में रखना उचित है ? ये प्रश्न इसलिए प्रासंगिक हो गया है कि डॉ. मनमोहन सिंह और उनके बाद नरेंद्र मोदी  लगातार चुनाव के दबाव में बहुत सारे ऐसे कार्य और निर्णय नहीं कर सके जो वे करना चाहते होंगे। राष्ट्रीय स्तर के विपक्षी दल भी चुनाव दर चुनाव की वजह से अपनी भूमिका का ठीक तरह से निर्वहन नहीं कर पाते। और तो और सर्वोच्च न्यायालय तक से कहा जाता है कि अयोध्या विवाद पर निर्णय 2019 के लोकसभा चुनाव तक टाल दिया जाए। कुल मिलाकर कहने का आशय ये है कि चुनाव हमारे देश में उन टीवी धारावाहिकों की तरह हो गए हैं जो कभी समाप्त होने का नाम ही नहीं लेते। भाजपा अक्सर मनमोहन सरकार पर नीतिगत लकवे का आरोप लगाकर उसका मजाक उड़ाया करती थी लेकिन मोदी सरकार को भी अनेक महत्वपूर्ण निर्णयों को इसीलिए रोकना पड़ा क्योंकि किसी न किसी राज्य में चुनाव प्रक्रिया या तो चल रही थी या शुरू होने वाली थी। 11 दिसम्बर को पांच राज्यों के परिणाम आने के उपरांत पहले जम्मू-कश्मीर, फिर लोकसभा और उसके साथ आंध्र सहित एक दो राज्यों के चुनाव होंगे। कुछ महीने बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनावी बिगुल बजेगा और फिर यह सिलसिला अगले पांच साल यूँ ही जारी रहेगा। इसकी वजह से प्रधानमंत्री पर सदैव अपनी पार्टी को चुनावी राज्य में जिताने का दबाव बना रहता है। समाचार माध्यमों में भी राजनीतिक खबरें छाई रहती हैं। इसका दुष्प्रभाव ये हो रहा है कि पूरा समाज ही राजनीतिक अखाड़ेबाजी में फंसकर रह गया है। जिसका अंदाज सोशल मीडिया में प्रसारित होने वाले विचार और बहस से लगाया जा सकता है। समय आ गया है जब देश को सदैव होने वाले चुनाव से मुक्त करवाया जाए। 1967 तक देश भर में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। 1971 में स्व.इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव करवाया जिसके बाद चुनाव की समय सारिणी जो बिगड़ी तो आज तक सुधरने का नाम ही नहीं ले रही। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय भी इस बारे में टिप्पणी कर चुका है और चुनाव आयोग ने भी सभी दलों को बुलाकर एक देश, एक चुनाव की पहल की किन्तु  निहित राजनीतिक उद्देश्यों की खातिर क्षेत्रीय दल तो दूर , कुछ राष्ट्रीय पार्टियों तक ने उसका विरोध कर दिया। टी एन शेषन के कार्यकाल में शुरू चुनाव सुधारों का सिलसिला अभी तक चला आ रहा है। चुनाव को कम खर्चीला बनाने के लिए भी तरह-तरह की बंदिशें लगाई गईं हैं लेकिन लोकसभा और राज्यों के चुनाव अलग-अलग होने की वजह से पूरे देश पर पडऩे वाले आर्थिक बोझ से सभी चुनाव सुधार अर्थहीन होकर रह जाते हैं। यद्यपि इस संबंध में फैसला तो राजनीतिक पार्टियों को करना है किंतु जनता को भी चाहिए कि वह इस बारे में दबाव बनाए क्योंकि अंतत: वही इसका खामियाजा भुगतती है। यूँ भी जिस तरह की परिस्थितियां बनती जा रही हैं उनको देखते हुए देर सवेर ये करना तो पड़ेगा ही। तो क्यों न इसे शीघ्रतिशीघ्र कर लिया जावे वरना ये देश सब काम छोड़कर चुनावी चक्रव्यूह में ही फंसा रहेगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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