Monday 5 November 2018

राम मंदिर : अभी नहीं तो ...........


अयोध्या में राममंदिर के निर्माण को लेकर साधु - संतों में बढ़ रहे गुस्से से राजनीतिक उथलपुथल तेज हो गई है । उप्र के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री सहित केंद्र सरकार के कतिपय मंत्री भी मंदिर निर्माण के लिये तत्काल कदम उठाने की मांग कर रहे हैं । भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाताओं के अलावा हिन्दू समाज में इस बात को लेकर बेचैनी बढ़ रही है कि जिस सम्वेदनशील मुद्दे पर पूरे देश की राजनीति बीते तीन दशक से प्रभावित होती आ रही है उसको लेकर कोई अंतिम फैसला नहीं हो पा रहा । मंदिर और मस्जिद को लेकर चल रहे विवाद का हल जब राजनेता और दोनों पक्षों के धर्मगुरु नहीं कर सके तब चाहे - अनचाहे सभी पक्ष तनातनी छोड़कर इस बात पर राजी हो गये कि सर्वोच्च न्यायालय जो भी फैसला करेगा वह उन्हें स्वीकार होगा । यहां तक कि रास्वसंघ और विश्व हिन्दू परिषद जो आस्था के सवाल को न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर बताते थे , वे भी अदालत के निर्णय को शिरोधार्य करने जैसी बातें कहने लगे । बीच में ऐसा कुछ लगा भी कि सर्वोच्च न्यायालय इस बहुप्रतीक्षित विवाद का हल निकाल देगा लेकिन अड़ंगेबाज भी पीछे नहीं रहे और उस कारण एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी रही । मुस्लिम समुदाय की तरफ  से वरिष्ठ अधिवक्ता और कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने तो खुलकर अदालत में ये दलील रखी कि अयोध्या मसले पर सुनवाई 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद शुरू की जाए । इसे लेकर कांग्रेस को जबरदस्त आलोचना भी झेलना पड़ी जिसके बाद पार्टी ने उन्हें मुस्लिम समाज की तरफ से पैरवी करने से रोक दिया । लेकिन इतना अवश्य हुआ कि श्री दीपक मिश्रा के मुख्य न्यायाधीश रहते अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अंतिम फैसला किये जाने की तमाम उम्मीदें हवा-हवाई होकर रह गईं । बची-खुची संभावनाएं तब और नष्ट हो गईं जब गत 28 अक्टूबर से नियमित सुनवाई को नए मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई ने जनवरी तक टालते हुए कह दिया कि नई पीठ ही सुनवाई संबंधी फैसला करेगी और इस तरह ये विवाद एक बार फिर अदालती अनिश्चितता की भंवर में फँसकर रह गया । श्री गोगोई से जब अटॉर्नी जनरल ने मुद्दे की प्राथमिकता का तर्क दिया तब श्री गोगोई ने पलटकर कह दिया कि उनकी प्राथमिकताएं अलग हैं । इससे पूरे देश को ये संकेत मिल गया कि नए मुख्य न्यायाधीश अयोध्या मसले को लेकर उतने गम्भीर नहीं हैं जितना देश अपेक्षा कर रहा था । वरना वे नियमित सुनवाई शुरु करवाने के साथ ही ये निर्देश भी देते कि फलाँ समय तक इसका निपटारा कर दिया जाए । ज्योंही ये स्पष्ट हो गया कि इस मुद्दे पर न्यायालय का फैसला जल्द आने की कोई उम्मीद नहीं है त्योंही रास्वसंघ सहित अन्य हिन्दू संगठन और फिर साधु - संत केंद्र सरकार पर इस बात का दबाव बनाने में जुट गए कि वह अयोध्या में राम मंदिर बनाने के बारे में अध्यादेश जारी करे । कानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय से मामला अलग करने की मांग भी जोर पकडऩे लगी । कई संतों ने तो आगामी  6 दिसंबर से निर्माण शुरू करने जैसी बात करना तक शुरू कर दिया । भाजपा भी इसे लेकर जबर्दस्त दबाव में है । उप्र और केंद्र में पूर्ण  बहुमत वाली सरकार होने के बाद भी राम मंदिर नहीं बना पाने के कारण वह न सिर्फ विरोधियों वरन अपने परंपरागत समर्थकों के निशाने पर भी आने लगी । जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उनमें भले ही राम मंदिर मुद्दा न हो लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को इस बात का जवाब देना ही होगा कि जिस मुद्दे ने भाजपा को अकल्पनीय सफलता दिलवाई उसे लेकर वह अपना वायदा क्यों नहीं निभा सके ? साधु - संतों का मोह भी इसी वजह से भाजपा से भंग होता दिख रहा है । उनका दो टूक कहना है कि न्यायालय के फैसले तक ही रुकना है तब भाजपा को समर्थन देने का क्या औचित्य है ? व्यवहारिक तौर पर देखें तो उनकी बात गलत नहीं है । सौगंध राम की खाते हैं , मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा भाजपा के गले पड़ गया है । उस दृष्टि से यदि अध्यादेश लाकर कानून के जरिये मंदिर निर्माण का रास्ता साफ  करने के लिए केंद्र सरकार पर चौतरफा दबाव बन रहा है तो उसे किसी भी  दृष्टि से गलत नहीं कहा जा सकता । जहां तक बात उन विपक्षी दलों की है जो मंदिर मुद्दे पर भाजपा का विरोध करते आये हैं तो वे भी कम दोषी नहीं हैं  क्योंकि वे सदैव भाजपा को ये कहकर उकसाते हैं कि वह केवल चुनाव के वक्त मंदिर का शिगूफा छोड़कर हिन्दू भावनाओं को भुनाती है । ये सब देखते हुए भाजपा और प्रधानमंत्री के पास अपना मुंह छिपाने के लिए कोई दूसरा रास्ता बच नहीं रहता । हो सकता है अध्यादेश और कानून को लोकसभा चुनाव के पहले संसद की स्वीकृति न मिल पाए लेकिन उस स्थिति में कांग्रेस या जो भी उसका विरोध करेगा उस पर हिन्दू विरोधी होने की तोहमत लग जाएगी । वहीं राहुल गांधी का सौम्य हिंदुत्व वाला अवतार भी नकली साबित हो जाएगा । सर्वोच्च न्यायालय भी रोड़े अटका दे तो आश्चर्य नहीं होगा लेकिन भाजपा यदि इस बारे में ईमानदार है तब उसे खुलकर सामने आना होगा ।  उप्र के मुख्यमंत्री  योगी आदित्यनाथ दो दिन अयोध्या में दीपोत्सव मनाएंगे । इस अवसर पर कोई बड़ी घोषणा भी प्रतीक्षित है । वहीं दूसरी तरफ  मंदिर आंदोलन के बड़े नेता रामविलास वेदांती ने अयोध्या में मंदिर और लखनऊ में भव्य मस्जि़द बनाने जैसी बात कहकर किसी समझौते का संकेत भी दे दिया है । यद्यपि इस बारे में मुस्लिम समुदाय का मत सामने नहीं आया है । सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश श्री चेलमेश्वर ने भी कहा है कि सरकार कानून बनाकर मंदिर मसले पर चल रही न्यायालयीन प्रक्रिया को पूर्ण विराम दे सकती है । उन्होंने अतीत के कुछ उदाहरण भी दिए । बहरहाल भाजपा और श्री मोदी के समक्ष धर्मसंकट की स्थिति है जिसमें उन्हें कोई न कोई साहसिक निर्णय तो लेना पड़ेगा । भले ही लोग इसे लेकर कुछ भी कहें लेकिन इस ऐतिहासिक विवाद को हल करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा । चुनाव से हटकर भी देखें तो देश के बहुसंख्यक समाज के मन में इसे लेकर जो नाराजगी है उसे दूर नहीं किया गया तो 6 दिसम्बर 1992 जैसा ही कुछ होने के अंदेशे से इंकार नहीं किया जा सकता । संघ परिवार भी इतना आगे बढ़ चुका है कि अब उसके लिए भी पीछे लौटना सम्भव नहीं होगा । लालकृष्ण आडवाणी की ऐतिहासिक रथयात्रा के रणनीतिकार नरेंद्र मोदी ही थे । यदि वे तत्काल मंदिर निर्माण की शुरुवात सम्बन्धी निर्णय नहीं करवाते तब महानायक की उनकी छवि खलनायक में बदल जाएगी । विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर इधर कुआ उधर ,  खाई वाली स्थिति में फंसे हुए हैं । मंदिर को लेकर अभी नहीं तो कभी नहीं के इस अवसर को चूकना बहुत बड़ी राजनीतिक भूल होगी जिससे राष्ट्र के दूरगामी हित भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे । जो हिन्दू हित की बात करेगा वही देश पर राज करेगा का नारा तो अब राहुल गांधी की भी समझ में आ गया है । फिर भाजपा को कैसा संकोच ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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