Wednesday 21 November 2018

34 साल बाद भी केवल दो को ही सजा !

1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए सिख नरसंहार की दिल दहला देने वाली घटनाएं नई पीढ़ी को तो याद भी नहीं होंगी। उस समय के बहुत सारे लोग भी उम्रदराज होकर चल बसे। लेकिन जिन परिवारों ने अपने आंखों के सामने अपने परिजन की नृशंस हत्या देखी उनकी मन:स्थिति वही जानते हैं। इंदिरा जी की हत्या एक घृणित कृत्य था जिसका समर्थन कोई भी मानवतावादी नहीं कर सकता लेकिन दूसरी तरफ  उसका बदला लेने के लिए दिल्ली में सैकड़ों सिखों का कत्ले आम किया जाना भी पूरी तरह से अमानुषिक था। भले ही श्रीमती गांधी के पुत्र स्व. राजीव गांधी ने ये कहते हुए कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तब धरती हिलती है, उस नरसंहार का बचाव किया किन्तु कोई भी समझदार व्यक्ति उस राक्षसी व्यवहार का अनुमोदन नहीं कर सकता। दुर्भाग्य की बात ये रही कि उस नृशंस अपराध के दोषी माने गए अनेक नेताओं को कांग्रेस ने सांसद, विधायक और मंत्री तक बनाया। लेकिन जो सबसे ज्यादा दुखद है वह किसी को भी कत्ल के आरोप में अब तक सजा नहीं मिलना। चौंकाने वाली बात ये रही कि 1994 में तो दिल्ली पुलिस ने कुछ मामले बन्द कर दिए क्योंकि वह समुचित सुबूत आरोपियों के विरुद्ध नहीं जुटा सकी। लेकिन 2015 में मोदी सरकार ने विशेष जांच दल गठित कर दोबारा तहकीकात शुरू की और उसी का नतीजा ये है कि गत दिवस दो लोगों को सजा हुई जिनमें एक को फांसी तथा दूसरे को उम्र कैद की सजा के अलावा 35-35 लाख का अर्थदण्ड भी लगाया गया। अदालत के बाहर सिखों की भारी भीड़ फैसला सुनने जमा थी। ज्योंही उसकी जानकारी लगी त्योंही अनेक लोग बिलखते हुए कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को भी दंडित किये जाने की उम्मीद जताते देखे गए। सिखों के कत्ले आम के एक और आरोपी कांग्रेस नेता हरिकिशनलाल भगत पहले ही दिवंगत हो चुके हैं। जिन दो आरोपियों को गत दिवस सजा दी गई अभी उनके पास अपील के कई अवसर उपलब्ध हैं। पता नहीं आखिरी फैसला होने में कितने बरस और लगेंगे? सिख समुदाय को इस बात का संतोष तो हुआ कि आखिरकार किसी को तो सजा मिली लेकिन दंडित दोनों व्यक्ति साधारण लोग हैं जबकि जिन दिग्गज कांग्रेस नेताओं को समूचे नरसंहार का निर्देशक माना जाता रहा वे अभी भी स्वतंत्र घूम रहे हैं। इसका आशय ये हुआ कि विशेष जांच दल के हाथ भी अभी तक बड़े गुनाहगारों की गर्दन तक नहीं पहुंच सके हैं। इस आधार पर यही मानना पड़ेगा कि पूरे मामले का निपटारा होते-होते कई साल तो क्या कई दशक तक लग सकते हैं। तब तक सिख नरसंहार के भुक्तभोगिय़ों और आरोपियों में से कितने जीवित बचेंगे ये वह सवाल है जिसका उत्तर किसी के पास नहीं होगा। इस बारे में विचारणीय मुद्दा ये है कि सैकड़ों लोगों के सामूहिक कत्ल के अलावा हुई लूटपाट, आगजनी जैसे अकल्पनीय अपराध के महज दो अति साधारण से दोषियों को निचली अदालत से सजा दिलवाने में ही यदि तीन दशक से ज्यादा का वक्त लग गया तब जो लोग उस नरसंहार के असली कर्ताधर्ता रहे, उनकी गर्दन में कानून का फंदा कसने में तो न जाने कितना समय लग जायेगा और तब तक वे जि़ंदा भी रहेंगे या नहीं?  सच बात तो ये है कि 34 साल पहले देश की राजधानी दिल्ली में हुए उस भीषण नरसंहार की जांच और दोषियों को दंडित करने संबंधी पूरी प्रक्रिया शासन-प्रशासन के स्तर पर जिस तरह रुक-रुककर चली वह किसी भी ऐसे सभ्य समाज के लिए शर्मनाक है जो कानून का राज होने का दावा करता हो। सिख समुदाय के शरीर पर लगे घाव भले ही भर गए हों, धन-संपत्ति, कारोबार को हुए नुकसान की भी भरपाई हो गई हो लेकिन मन पर लगे घाव अभी भी ताजे हैं। गत दिवस आए अदालती फैसले ने थोड़ी उम्मीदें तो बढ़ाई हैं लेकिन जब तक किसी नामचीन आरोपी पर दंड प्रक्रिया का शिकंजा नहीं कसता तब तक सिखों के कलेजे को ठंडक नहीं पहुंचेगी। इस पूरे मामले में राजनीति का जो घिनौना रूप सामने आया वह भी अत्यंत दुखद कहा जायेगा। कांग्रेस पार्टी को चाहिए था कि वह अपने स्तर पर ही उन बड़े नेताओं को दंडित कराने की पहल करती जिनकी सक्रिय भूमिका उस नरसंहार में स्पष्ट तौर पर सामने आ चुकी थी लेकिन बजाय उसके जांच बन्द करवाकर उन्हें न सिर्फ बचाया जाता रहा अपितु सरकारी पद देकर सिखों के जख्मों पर नमक छिड़कने की हिमाकत तक की गई। खैर, देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर गत दिवस दो लोगों को सजा मिलने से ये उम्मीद बढ़ चली है कि इंसाफ की डगर में अटकाए गए रोड़े हट जाएंगे और जगदीश टाइटलर तथा सज्जन कुमार जैसे चर्चित नेताओं पर भी समुचित कार्रवाई होगी। ऐसा करना केवल सिख समुदाय की संतुष्टि के लिए नहीं बल्कि न्याय व्यवस्था के प्रति सम्मान और विश्वास कायम करने के लिये आवश्यक है। यदि लगभग साढ़े तीन दशक बाद भी सैकड़ों निरपराध सिखों के हत्यारों को सजा नहीं दिलाई जा सकी तो शासन व्यवस्था की इससे बड़ी नाकामयाबी और क्या होगी? कल के फैसले के बाद थोड़ी उम्मीद तो बंधी है लेकिन इस मामले में अब तक हुई प्रगति कतई संतोषजनक नहीं है। दिल्ली पुलिस द्वारा 1995 में सन्दर्भित प्रकरण को जिस तरह से बन्द किया गया। उसकी भी जांच होनी चाहिए। निरपराध व्यक्ति को जबरन थाने में बिठाए रखने वाली पुलिस को बड़े लोगों के विरुद्ध सुबूत-गवाह क्यों नहीं मिलते इस प्रश्न का उत्तर भी खोजा जाना जरूरी है क्योंकि न्यायपालिका की पूरी कार्यप्रणाली तो पुलिस अथवा जांच दल द्वारा जुटाए गए प्रमाणों पर ही निर्भर होती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

1 comment:

  1. Hello sir aap hi he jo sach bolne ki himat rakha te ho varna sab pesho ke gulam he

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