Thursday 15 November 2018

प्रत्याशी चयन : न पवित्रता है न पारदर्शिता


मप्र में विधानसभा चुनाव हेतु प्रत्याशियों की घोषणा होते ही भाजपा और कांग्रेस में बगावत शुरू हो गई। अनेक सीटों पर बागी निर्दलीय बनकर उतर पड़े। नाम वापिसी के अंतिम क्षण तक उनकी मान - मनौवल चली। कुछ माने तो कुछ की नाराजगी बरकरार रही। सबसे ज्यादा बगावत सत्तारूढ़ भाजपा में हुई जिसके लगभग 50 और उसके बाद कांग्रेस के  भी दर्जन भर बागी अंत तक डटे रहे। ये हालात बनते तो सभी चुनावों में रहे किन्तु इस मर्तबा भाजपा में जिस पैमाने पर बगावत देखने मिली वह अभूतपूर्व और अप्रत्याशित कही जा सकती है। अतीत में  भाजपा के वरिष्ठ नेता और संगठन मंत्री नाराज लोगों को मनाकर बिठा दिया करते थे। प्रत्याशी चयन से उत्पन्न असंतोष को दूर करने के लिए सत्ता और संगठन की तरफ  से प्रयास इस बार भी हुए लेकिन चौंकाने वाली बात ये रही कि अधिकतर बागियों ने पार्टी नेताओं को ठेंगा दिखा दिया। कांग्रेस में बगावत अपेक्षाकृत कम जरूर हुई लेकिन सांसद कांतिलाल भूरिया के बेटे के विरुद्ध हुआ विद्रोह जहाँ उल्लेखनीय है वहीं वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अपने पुत्र को समाजवादी पार्टी से टिकिट दिलवाकर खुलकर उसका प्रचार करने का ऐलान कर दिया। अनेक सीटों पर बगावत तो नजर नहीं आ रही लेकिन भीतरघात किये जाने का अंदेशा बना हुआ है। सोचने वाली बात ये है कि चुनाव के पहले तक जो नेता और कार्यकर्ता पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों के लिए हरसंभव त्याग करने की डींगें हांका करते हैं वे ही टिकिट न मिलने पर सब भूलकर इस तरह पेश आने लगते हैं जैसे कि पार्टी से जुडऩे का उनका उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण चुनाव लड़कर विधायक या सांसद बनना मात्र था। नई पीढ़ी के कार्यकर्ताओं की जल्दबाजी तो समझ में आती है क्योंकि उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता पुरानी पीढ़ी जैसी नहीं है। आजकल तो राजनीति को कैरियर के रूप में चुनने का फैशन चल पड़ा है। विशुद्ध पेशेवर शैली में युवक -युवतियां पार्टी में आकर सक्रियता दिखाते हैं और चार -पांच बरस के बाद ही उनकी अपेक्षाएं हिलोरें मारने लगती हैं। जब वे पूरी नहीं होतीं तो उनको पार्टी फिजूल लगने लगती है। पल भर में निष्ठा की जगह निंदा ले लेती है और कल तक वे जिस विचारधारा की पैरवी करते नहीं थकते थे उसी को पानी पी - पीकर कोसने लग जाते हैं। दूसरी पार्टी यदि उन्हें टिकिट दे दे तो वे उसे हासिल करने के लिए भी बिना देर किए तैयार हो जाते  हैं। लेकिन युवा वर्ग की पार्टी भक्ति में कमी पर तो बदलते वक्त का प्रभाव मानकर संतोष किया जा सकता है किंतु जब दो-दो, चार-चार बार के विधायक-सांसद टिकट नहीं मिलने पर कोपभवन में जाकर बैठ जाते हैं तब अचरज भी होता है और दु:ख भी। कई वरिष्ठ नेता अपनी पत्नी और बेटे-बेटी के लिए टिकिट मांगने के लिए अपनी पूरी पुण्याई दांव पर लगाने में भी नहीं शर्माते। मप्र में बागियों को मनाने भी कई ऐसे नेताओं को भेजा गया जो खुद कभी त्याग करने को तैयार नहीं होते। यही वजह है कि कल तक जो कार्यकर्ता उनकी इज्जत करता था, वही उनको खरी-खोटी सुनाते हुए खाली हाथ लौटा देता है। भाजपा में रामकृष्ण कुसमरिया और कांग्रेस में सत्यव्रत चतुर्वेदी की बगावत से साबित हो जाता है कि बड़ी पार्टियों में भी अब ऐसे नेताओं का अभाव हो गया है जिनका सभी सम्मान करते थे। ये स्थिति इसलिए विचारणीय है क्योंकि इस प्रवृति के बढऩे से न केवल  राजनीतिक दलों अपितु राजनीति का बचा - खुचा सम्मान भी खत्म होने को है। दरअसल प्रत्याशी चयन में किसी बड़े नेता का कृपापात्र या परिजन होना एक अनिवार्यता सी बन गई है। योग्यता और वैचारिक प्रतिबद्धता पर चुनाव जीतने की क्षमता भारी पडऩे लगी। चुनावी टिकिट हेतु कोई निश्चत आधार नहीं होने से जिसे देखो वह प्रत्याशी बनने की दौड़ में शामिल हो जाता है। इंदौर में भाजपा ने कैलाश विजयवर्गीय के पुत्र को तो टिकिट दे दी किन्तु वहाँ की सांसद और लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन के बेटे को ठेंगा दिखा दिया। इसी तरह कांग्रेस में दिग्विजय सिंह अपने भाई , बेटे और भतीजे को कांग्रेस की उम्मीदवारी दिलवाने में कामयाब हो गये जबकि सत्यव्रत चतुर्वेदी की ऐसी ही कोशिश नकार दी गई। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनसे ये स्पष्ट होता है कि प्रत्याशी चयन को लेकर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया में न कोई पवित्रता है न ही पारदर्शिता। चयन समिति में बैठे नेता अपने परिवार के साथ ही पिछलग्गुओं को उपकृत करने के फेर में अनेक ऐसे निष्ठावान कार्यकर्ताओं का भविष्य चौपट कर देते हैं जिनमें नेतृत्व प्रतिभा के साथ ही सैद्धान्तिक दृढ़ता और वैचारिक प्रतिबद्धता कूट-कूटकर भरी हुई है।  ये परिदृश्य केवल मप्र का ही नहीं अपितु पूरे देश में देखा जा सकता है। प्रत्येक पार्टी इस बुराई से ग्रसित है। दरअसल राजनीति सेवा करने की बजाय जबसे मेवा खाने का जरिया बन गई है तभी से इस तरह के विवाद सामने आने लगे हैं। छोटी और क्षेत्रीय पार्टियां तो एक - दो नेताओं अथवा परिवारों तक सिमटकर रह गई हैं जिसकी वजह से उनमें आंतरिक लोकतंत्र पूरी तरह विलुप्त हो गया है। बरसों-बरस पसीना बहाने वाले कार्यकर्ता टापते रह जाते हैं और दलबदल कर आए नए - नवेले नेता को टिकिट दे दी जाती है। इसी के चलते विभिन्न दलों के बीच का नीतिगत अंतर मिट गया है। किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करने की हवस ने पहले राजनीति का व्यवसायीकरण किया और अगले चरण में उस पर कुछ लोग विशुद्ध माफिया शैली में काबिज हो गए। बागियों को बिठाने गए तथाकथित बड़े नेताओं को जिस तरह की बातें सुनने मिलीं उसके बाद भी उनकी आंखें नहीं खुलीं तब ये मान लेने में कोई बुराई नहीं होगी कि राजनीति पूरी तरह सिद्धांतविहीन हो चुकी है और विचारधारा को तिलांजलि देकर कुछ लोगों के गिरोह उस पर काबिज हो गए हैं। सवाल ये है कि ऐसे में अच्छे, सुशिक्षित और संभ्रांत लोगों से राजनीति में आने की अपेक्षा करना क्या महज दिखावा नहीं है? कोई भी स्वाभिमानी और सुयोग्य व्यक्ति इस गंदगी में हाथ डालने के लिए भला क्यों तैयार होगा जिसमें उसे महाभ्रष्ट और पदलोलुप नेताओं के चरणचुम्बन हेतु मजबूर किया जावे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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