Thursday 29 November 2018

मतदान में ग्रामीण इलाके शहरों से आगे

मप्र विधानसभा चुनाव हेतु गत दिवस सम्पन्न मतदान में लगभग 75 फीसदी मतदान को लेकर ये संतोष व्यक्त किया जा रहा है कि 2013 की तुलना में 2.34 फीसदी अधिक है। लेकिन मतदान बढ़ाने हेतु चुनाव आयोग द्वारा किये तमाम प्रयासों के बाद भी मतदान में वृद्धि संतोषजनक नहीं कही जा सकती जैसी जानकारी अब तक मिली है उसके मुताबिक तो शहरों  के सुशिक्षित समझे जाने वाले मतदाताओं की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में मतदान के प्रति अपेक्षाकृत अधिक जागरूकता परिलक्षित हुई। राजधानी भोपाल तक में मतदान मात्र 65 फीसदी पर ही अटक गया। इंदौर में 75 फीसदी छोड़कर बाकी सभी बड़े शहरों में आंकड़ा 70 फीसदी के आसपास रहा। जबलपुर के उत्तर विधानसभा क्षेत्र में जहां भाजपा के बागी धीरज पटेरिया ने मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था, 2013 की तुलना में मतदान का 1 फीसदी कम होना चौंकाने वाला है। जिले का औसत पिछले चुनाव की अपेक्षा यदि दो-ढाई प्रतिशत बढ़ा तो उसकी मुख्य वजह शहरी क्षेत्र की चार सीटों की बजाय ग्रामीण सीटें रहीं।  संभागीय मुख्यालयों में यदि मतदान ज्यादा होता तो मप्र का औसत मतदान प्रतिशत और बढ़ जाता। शहरों में आवागमन के साधन और सूचनातंत्र ज्यादा बेहतर होने के बाद भी यदि ग्रामीण और कस्बाई सीटों की अपेक्षा कम मतदान हुआ तो इसका आशय यही निकाला जा सकता है कि इन क्षेत्रों में रहने वाले या तो परम सन्तुष्ट हैं या फिर अपने चारों तरफ  घटने वाली चीजों से पूरी तरह निर्लिप्त। देखने वाली बात ये भी है कि शहरी क्षेत्रों में मध्यम और उच्चवर्गीय लोगों की आवासीय कालोनियों और सोसायटियों में रहने वाले पढ़े-लिखे और सम्पन्न वर्ग के मतदाताओं की अपेक्षा गरीबों की बस्तियों में रहने वाले अधिक मतदान करते हैं। इसका कारण शराब, पैसा और उस जैसे अन्य प्रलोभन भी हो सकते हैं लेकिन कहना गलत नहीं होगा  कि  यही मतदाता जीत-हार तय करते हैं। शायद इसीलए  चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशी भी इसी मतदाता वर्ग पर ज्यादा ध्यान देते हैं। प्रजातंत्र में शिक्षित वर्ग का मतदान प्रतिशत यदि अधिक हो तो वह शुभ संकेत होता है। हालाँकि इस तबके में मतदान के प्रति रुझान बढ़ा तो है लेकिन सबसे ज्यादा कुंठित भी यही है। समाजशास्त्रियों के साथ राजनीतिक दलों को भी इस दिशा में सोचना चाहिए कि सुशिक्षित और संपन्न वर्ग के लोग शत-प्रतिशत मतदान क्यों नहीं करते?  मप्र का ये चुनाव काफी संघर्षपूर्ण रहा जिसमें कांग्रेस लंबे अर्से बाद जमकर मुकाबले में खड़ी नजर आई। बसपा, सपा भी यद्यपि मैदान में थे लेकिन मुख्य संघर्ष भाजपा और कांग्रेस के बीच ही दिखा। ऐसे में पूरे प्रदेश का मतदान प्रतिशत बढ़कर 80 तक पहुँच जाता तब ये माना जा सकता था कि मतदाताओं में जबरदस्त उत्साह रहा। 2013 के विधानसभा चुनाव से मात्र 2.34 फीसदी ज्यादा मतदान तो नए मतदाताओं की वजह से हुआ होगा वरना यथास्थिति ही रहती। इस बार मतदान बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग के अलावा भी अनेक संगठनों ने मतदाताओं को प्रेरित किया। अखबारों में इश्तहार भी खूब छपे। उसके बावजूद भी औसत मतदान में मामूली वृद्धि होना संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। इसकी एक वजह मुख्य पार्टियों द्वारा उतारे गए प्रत्याशियों की छवि भी हो सकती है। और भी कुछ कारण इसके पीछे होंगे जिनका अध्ययन होना चाहिए। जिस तरह के आकर्षक वायदे चुनाव घोषणापत्रों में किए जाते हैं उनको देखते हुए तो मतदान औसतन 80 फीसदी से अधिक होना चाहिये। कुछ जगह यदि होता भी है तो उसका कारण जाति एवं अन्य स्थानीय कारण होते हैं। बहुकोणीय संघर्ष भी मतदान बढ़ाने का कारण बनता है किन्तु जबलपुर की उत्तर सीट पर त्रिकोणीय मुकाबले के बाद भी मत प्रतिशत घट जाना यही इशारा करता है कि इस क्षेत्र की जनता में प्रत्याशियों को लेकर या तो निराशा थी या नाराजगी। सार के तौर पर ये कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग के प्रयासों एवं राजनीतिक दलों के जबरदस्त अभियान के बाद भी यदि पूरे प्रदेश का मत प्रतिशत 3 फीसदी से भी कम बढ़ा तब इसे उम्मीद से कम ही कहा जाना चाहिए क्योंकि जिस पार्टी की भी सरकार बनेगी वह प्रदेश के आधे से भी कम मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करेगी। मोदी सरकार पर अक्सर ये तोहमत लगाई जाती है कि वह मात्र 31 प्रतिशत की प्रतिनिधि है। वैसे चुनाव दर चुनाव मत प्रतिशत बढ़ता जा रहा है लेकिन देश के बहुत कम मतदान केंद्र ऐसे होते हैं जिनमें 90 फीसदी से ज्यादा मत पड़ते हों। आजकल प्रचार भी काफी हाईटेक हो गया है। टीवी, अखबार, सोशल मीडिया जैसे संचार माध्यम चुनाव चर्चा से भरे पड़े रहते हैं किन्तु फिर भी शहरी क्षेत्रों में गांवों की अपेक्षा कम मतदान होना कई सवाल खड़े करता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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