Monday 12 November 2018

वायदे लपेट लीजिए लंगोटी नहीं तो क्या

मप्र में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव हेतु अपने वचनपत्र में जो वायदे किये वे सब घिसे-पिटे हैं क्योंकि लगभग हर पार्टी किसानों के कर्जे माफ  करने, कृषि हेतु सस्ती बिजली, बेरोजगारों को भत्ता, लड़कियों को मुफ्त शिक्षा सरीखे लालच देकर सत्ता हासिल करने की जुगत भिड़ाती है। ये बात अलग है कि सरकार बन जाने पर उन्हें पूरा करने में व्यवहारिक और वित्तीय अड़चनें आने के बाद वायदे पूरे करने में टालमटोली की जाती है। चूंकि कांग्रेस पहले भी प्रदेश की सत्ता में लंबे समय तक रही है और उसी के शासनकाल में मप्र बीमारू राज्यों की कतार में खड़ा हो गया था इसलिए उसके वचनपत्र को गंभीरता से शायद ही कोई समझदार व्यक्ति लेगा। अभी भाजपा का घोषणापत्र आना शेष है जिसे वह दृष्टिपत्र कहने लगी है। बड़ी बात नहीं चौथी बार सरकार बनाने के लिए वह मतदाताओं को कांग्रेस से भी ज्यादा आकर्षक पैकेज देकर लुभाने का दांव खेल जाए। यद्यपि उसकी बात पर भी आंख मूंदकर भरोसा कर लेने को जनता तैयार नहीं होगी क्योंकि शिवराज सिंह चौहान सरकार भी अपनी कई बातों और वायदों से मुकर चुकी है। दरअसल जब तक चुनाव घोषणापत्र में, चाहे इसे कुछ और नाम ही क्यों न दे दिया जाए, किये गए वायदों को हलफनामा मानकर पूरा करने की वैधानिक अनिवार्यता नहीं होगी तब तक इसी तरह से जनता को ख्याली पुलाव खिलाते रहने का ये खेल चलता रहेगा। दरअसल केवल कांग्रेस और भाजपा ही नहीं वरन छोटी - छोटी क्षेत्रीय पार्टियां भी इसी संस्कृति का पालन करते हुई घोषणापत्र के नाम पर ऐसे - ऐसे व्यंजन परोस देती हैं जो देखने में तो बड़े ही अच्छे प्रतीत होते हैं लेकिन असलियत में वे बेस्वाद निकलते हैं। चूंकि हमारे देश में प्रारम्भ से ही राजनीति और चुनाव व्यक्तिवाद, क्षेत्र, भाषा, जाति, धर्म के मकडज़ाल में उलझकर रह गए इसलिये घोषणापत्र के साथ जुड़े वायदों के प्रति मतदाता भी उतने जागरूक और आग्रही नहीं रहे। शिक्षा और संचार सुविधाओं की कमी के चलते राजनीतिक दलों पर वैसा दबाव बनाने की परिपाटी कायम नहीं हो सकी जैसी अब कुछ-कुछ महसूस की जा सकती है। लेकिन ले-देकर बात वहीं आकर ठहर जाती है कि जनता की स्मरणशक्ति अव्वल तो बहुत कमजोर कही जाती है और उससे भी बढ़कर तो राजनीतिक दलों पर घोषणापत्र में किये वायदे पूरे करने की कोई कानूनी बंदिश नहीं है जिसकी वजह से वे चुनाव पूर्व जो सब्जबाग दिखाते हैं वह उनके सत्ता में आते ही मरुस्थल में बदलकर रह जाता है। कांग्रेस ने बेरोजगारी भत्ता देने की बात भी कही लेकिन असली जरूरत तो नए रोजगार उत्पन्न करना है। जिसके लिए कांग्रेस ही नहीं अपितु अन्य दलों के पास भी कोई पुख्ता योजना नहीं है। चुनाव आयोग ने कुछ समय पहले घोषणापत्र को शपथ पत्र के समकक्ष रखते हुए उसे पूरा करने की वैधानिक अनिवार्यता की बात कही थी। वायदों को पूरा करने हेतु आर्थिक संसाधनों के प्रबंध सम्बन्धी कार्ययोजना पेश करने जैसी बात भी उठी थी किन्तु दुर्भाग्यवश एक भी पार्टी ने उक्त प्रस्ताव पर उत्साह और रुचि नहीं दिखाई। चुनावी वायदों को पूरा करने सम्बन्धी कोई फार्मूला किसी पार्टी के पास नहीं होने से वे इसकी टोपी उसके सिर रखने की कोशिश करते हैं। शिवराज सरकार ने किसानों के बिजली बिल माफ  किये किन्तु उसकी भरपाई शहरी उपभोक्ताओं की बिजली दरें बढ़ाकर कर ली। इसी तरह जितनी भी जनकल्याणकारी योजनाएं चलाकर श्री चौहान अपनी लोकप्रियता बढऩे का दावा करते हैं उनके लिए मप्र में पेट्रोल-डीजल पर देश में सर्वाधिक करारोपण किया जाता है। इस तरह राजनीतिक दल अर्थ प्रबंधन समझे बिना जो दरियादिली दिखाते हैं उसका बोझ आखिरकार जनता के उस वर्ग पर पड़ता है जिसे सत्ताधारी सोने की मुर्गी समझते हैं। ये देखते हुए चुनाव घोषणापत्र को जिसे चाहे वचनपत्र कहा जाए या फिर दृष्टिपत्र, एक वैधानिक दस्तावेज का रूप देना जरूरी हो गया है। वायदे पूरे करने की समय सीमा और उस हेतु वित्तीय संसाधन जुटाने की कार्ययोजना भी साथ-साथ पेश किये जाने की कानूनी अनिवार्यता से ऐसे वायदों पर रोक लग सकेगी जिनको पूरा करना साधारणतया सम्भव नहीं होता। वैसे नीतिगत वायदों से अलग हटकर किये जाने वाले वायदे वस्तुत: घूस ही कहे जाएंगे। मसलन मोटर सायकिल, लैपटॉप, मिक्सर, मंगलसूत्र सरीखी चीजें देने का वायदा अचार संहिता का खुला उल्लंघन है। पता नहीं चुनाव आयोग ने अब तक इसका संज्ञान क्यों नहीं लिया? कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं होगा कि चुनाव घोषणापत्र भी राजनीतिक नेताओं की तरह अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं। किसी कवि की ये पंक्तियां इस संदर्भ में बेहद प्रासंगिक लगती हैं :-

सब कुछ है मेरे देश में रोटी नहीं तो क्या,
वायदे लपेट लीजिए लंगोटी नहीं तो क्या?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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