Friday 24 June 2022

जब सबने मना कर दिया तब यशवंत सिन्हा बलि के बकरे बनाए गये



राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू की विजय तो उनकी उम्मीदवारी घोषित होते ही सुनिश्चित हो गयी थी जब उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने अपनी पार्टी बीजू जनता दल का समर्थन देने की घोषणा कर दी | ज्ञातव्य है श्रीमती मुर्मू उड़ीसा की ही मूल निवासी हैं | इसके बाद ये खबर भी आ गई कि झारखंड मुक्ति मोर्चा भी उन्हें समर्थन दे सकता है | इसका कारण झारखंड के मुख्यमंत्री हेमत सोरेन और श्रीमती मुर्मू का संथाल आदिवासी होना है | झारखंड की राज्यपाल रहते हुए दोनों के बीच रिश्ते भी काफी अच्छे रहे | यद्यपि श्री सोरेन ने इस आशय की घोषणा नहीं की है क्योंकि वे कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं और संयोगवश विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार बने यशवंत सिन्हा भी मूलतः झारखंड के ही हैं | फिर सुनने में आया  कि छत्तीसगढ़ के अनेक आदिवासी विधायक पार्टी सीमा से ऊपर उठकर श्रीमती मुर्मू का समर्थन करने के इच्छुक हैं | वैसे भी राष्ट्रपति चुनाव में सांसदों और विधायकों के लिए व्हिप जारी किये जाने की व्यवस्था नहीं है | कुछ और क्षेत्रीय पार्टियाँ आदिवासी  मतदाताओं को खुश करने के लिए उनके पक्ष में मतदान कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा | आन्ध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने अपेक्षानुसार एनडीए उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा कर उनकी विजय को और पक्का कर दिया | आज नामांकन भर रही श्रीमती मुर्मू के पक्ष में जिस तरह से चौतरफा समर्थन आ रहा है उसे देखते हुए आगामी 24 जुलाई को उनका राष्ट्रपति पद पर आसीन होना संदेह से परे है | सबसे बड़ी बात ये हुई कि केवल श्री सिन्हा को छोड़कर अन्य किसी ने भी आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाए जाने पर ऐतराज नहीं जताया | श्री सिन्हा ने अवश्य ये तंजा कसा कि राष्ट्रपति रबर स्टाम्प नहीं होना चाहिए लेकिन उनका समर्थन कर रही बाकी पार्टियों ने श्रीमती मुर्मू के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करने से खुद को रोके रखा है | अब जबकि ये तय है कि श्री सिन्हा महज सांकेतिक विरोध ही कर सकेंगे और श्रीमती मुर्मू बहुत लम्बे अंतर से उन्हें पराजित कर देंगीं तब विपक्षी दलों को चाहिए कि वे  अपने प्रत्याशी का नाम वापिस लेकर निर्विरोध चुनाव का मार्ग प्रशस्त करें |  उल्लेखनीय है 2002 में  केंद्र की  वाजपेयी सरकार के समय प्रो. एपीजे कलाम को जब एनडीए ने राष्ट्रपति प्रत्याशी बनाया तब अटल जी के अनुरोध पर सोनिया गांधी और मुलायम सिंह यादव ने कलाम साहब का समर्थन किया था |  हालांकि वामपंथी दलों ने सर्वसम्मति नहीं होने दी और  कैप्टन लक्ष्मी सहगल को अपना उम्मीदवार बनाकर मतदान की स्थिति पैदा कर दी  | दरअसल कलाम साहब को जिस तरह का व्यापक समर्थन मिला उसका एक कारण उनका गैर राजनीतिक होना था | बतौर वैज्ञानिक वे पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के साथ  काम कर चुके थे | इसलिए उनका समर्थन करने में प्रमुख दलों को परेशानी नहीं हुई | और उन्होंने भी उसका मान रखते हुए राष्ट्रपति भवन पर पक्षपात का आरोप नहीं लगने दिया | श्रीमती मुर्मू ने भी झारखंड की राज्यपाल रहते हुए पहले भाजपा और फिर झामुमो सरकार के साथ बेहतर समन्वय बनाकर काम किया | मुख्यमंत्री श्री सोरेन तो उन्हें बुआ कहकर संबोधित करते हैं | ऐसे में यदि विपक्ष उनके विरुद्ध अपना उम्मीदवार न उतारे तो इससे पूरी दुनिया  में ये सन्देश जायेगा कि भारत में  समाज के सबसे पिछड़े और वंचित वर्ग का उत्थान करने के प्रति व्यापक राजनीतिक सहमति है | जहां तक बात श्री सिन्हा की है तो उनके सांसद बेटे जयंत सिन्हा ने भी ये स्पष्ट कर दिया कि वे अपने पिता की बजाय अपनी पार्टी भाजपा समर्थित श्रीमती मुर्मू को मत देंगे | यही नहीं तो यशवंत जी की  धर्मपत्नी तक ने श्रीमती मुर्मू को अच्छा प्रत्याशी बताते हुए उनकी जीत को सुनिश्चित बताया | देश के राजनीतिक हालात भी लगातार श्रीमती मुर्मू की ऐतिहासिक  जीत के प्रति आश्वस्त कर रहे हैं | ऐसे में श्री सिन्हा को खुद होकर उम्मीदवारी वापिस लेने की घोषणा कर देना चाहिए | सही बात ये है कि वे अपने हिस्से की राजनीति कर चुके हैं | बीते कुछ सालों से वे जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत और नीतिगत हमले करते आ रहे हैं उसकी वजह से उनकी अपनी छवि तो धूमिल हुई ही , उनके सुयोग्य पुत्र की राजनीति को भी नुकसान हुआ | मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में जयंत मंत्री थे लेकिन पिता के नकारात्मक रवैये ने उनको बाहर करवा दिया | यशवंत जी आईएएस की नौकरी छोड़कर राजनीति में आये और केंद्र में मंत्री बने | 2014 में उन्होंने खुद होकर अपनी हजारीबाग़ सीट जयंत को दिलवा दी | लेकिन बाद में उनकी अतृप्त महत्वाकांक्षाएँ जोर मारने लगीं जिनके फेर में भटकते – भटकते वे तृणमूल की शरण में जा पहुंचे | लेकिन ममता द्वारा खुद बुलाई गई विपक्षी दलों की बैठक में  राष्ट्रपति पद हेतु श्री सिन्हा को भूलकर गोपालकृष्ण गांधी के साथ डा. फारुख अब्दुल्ला का नाम प्रस्तावित किया गया | उसके पूर्व वे शरद पवार से भी आग्रह कर  चुकी थीं | लेकिन जब सभी ने इंकार कर दिया तब बलि के बकरे के तौर  पर यशवंत जी  को आगे कर दिया गया जिसका औचित्य उनके प्रायोजक दल भी साबित नहीं कर पा रहे क्योंकि वे राजनीति में अभिजात्य वर्ग के चेहरे जो हैं   |  दूसरी और अनु,जनजाति से होने के कारण श्रीमती मुर्मू बड़े सामाजिक बदलाव की जीवंत प्रतीक बनेंगी | आज से नामांकन प्रक्रिया प्रारंभ हुई है | इसलिए अभी भी विपक्ष के पास समय है | यदि वह अपना उम्मीदवार वापिस ले लेता है तो इसका दूरगामी असर देश की राजनीति ही नहीं वरन सामाजिक ढांचे पर भी पड़ेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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