Tuesday 7 June 2022

पंजाब में खालिस्तानी आतंक को पनपने से पहले कुचलना ज़रूरी



1984 में अमृतसर के ऐतिहसिक स्वर्णमंदिर परिसर में हुए ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार की बरसी पर गत दिवस वहां जिस तरह से खालिस्तान समर्थक नारेबाजी के बीच जरनैल सिंह भिंडरावाले के पोस्टर लहराए गए उससे  साबित हो गया कि पंजाब की जमीन में दबे अलगाववाद के बीज अनुकूल माहौल पाते ही अंकुरित होने लगे हैं | कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली में किसान संगठनों के धरने के दौरान खालिस्तान समर्थक तत्व खुलकर सामने आये थे और वहां भी भिंडरावाले के चित्र वाले टी शर्ट और पोस्टर देखने मिले थे | उस आन्दोलन के समर्थन में कैनेडा और ब्रिटेन में जिस तरह से सिख संगठनों ने अन्दोलन किया उसमें भी खालिस्तान समर्थकों की भूमिका का संकेत मिला था | आन्दोलन खत्म होते ही पंजाब में विधानसभा चुनाव आ  गये जिसमें कांग्रेस  और  अकाली दल को मात देकर आम आदमी पार्टी प्रचंड बहुमत के  साथ सत्ता में आई | जिस तरह से बादल परिवार, अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू आदि हारे वह इस सीमावर्ती राज्य की राजनीति में बड़े बदलाव  के रूप में सामने आया | आम आदमी पार्टी की जो सरकार दिल्ली में है उसने आम जनता को जो मुफ्त सुविधाएँ दीं उसका जादू  पंजाब के मतदाताओं के भी सिर पर चढ़कर बोला | लोगों को उम्मीद थी कि भगवंत सिंह मान के नेतृत्व में बनी सरकार जनहित के काम करते हुए राज्य को स्वच्छ प्रशासन देगी | शुरुवात में ऐसा लगा भी किन्तु उसके साथ ही जिस तेजी से खालिस्तानी ताकतें पंजाब में सिर उठाने लगीं उससे तकरीबन चार दशक पहले का खूनी दौर लौटने की आशंका उत्पन्न होने लगी | खालिस्तान  विरोधी जुलूस पर  हमले के बाद हिन्दू मंदिर में घुसकर तोड़फोड़ मचाना , ख़ुफ़िया मुख्यालय पर रॉकेट लाँचर से हमला और उसके बाद मूसेवाला की हत्या जैसी वारदातों से ये संदेह होने लगा कि पंजाब में बड़ा राजनीतिक बदलाव किसी षडयंत्र का हिस्सा तो नहीं था | यद्यपि इस बारे में कुछ आरोप भी लगे लेकिन  कोई पुख्ता आधार सामने नहीं आने से उनकी सत्यता प्रमाणित नहीं सकी | इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद से खालिस्तानी आतंक धीरे – धीरे दम तोड़ बैठा | लेकिन बतौर विचारधारा वह बना रहा और समय – समय पर उसके भाव व्यक्त्त होते रहे | लेकिन कैनेडा में जिस तरह से सिख आबादी का वर्चस्व बढ़ता गया उसकी वजह से वहां खालिस्तान समर्थक संगठनों के पास काफी पैसा आने लगा और उसी के बलबूते वे सात समन्दर पार बैठकर भारत में उस आन्दोलन को दोबारा खड़ा करने के प्रयास में जुटे रहे | वैसे  पंजाब में जो भी सरकार रही उसने खालिस्तानी आन्दोलन को पनपने का अवसर नहीं दिया | हालांकि अकाली दल आनंदपुर साहेब प्रस्ताव को दोहराना नहीं भूला किन्तु भाजपा के साथ गठबंधन सरकार चलाने की वजह से वह अलगाववादियों से दूर ही रहा | दूसरी तरफ कांग्रेस की राज्य सरकार भी  दूध की जली हुई होने से खालिस्तानी तत्वों को गले लगाने से बचती रही | लेकिन किसान आन्दोलन ने पंजाब में सिखों को एक बार फिर मुख्यधारा से काटने में उल्लेखनीय  भूमिका का निर्वहन किया | इसे लेकर आन्दोलन पर आरोप भी लगे जिन्हें सरकारी प्रचार बताकर उपेक्षित कर दिया गया | गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के लालकिले में  जिस तरह से निहंगों ने आतंक मचाया उसे पूरी दुनिया ने देखा | उसके बाद भी राकेश टिकैत जैसे नेताओं ने सच्चाई देखने की बजाय आँखें मूँद लीं | किसान आन्दोलन को खालिस्तान प्रवर्तक या समर्थक कहना तो सही नहीं है लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि किसानों की आड़ लेकर खालिस्तानी तत्व एक बार फिर सड़कों पर आने में सफल हो गए | पंजाब के किसान तो दिल्ली के धरने में व्यस्त रहे और इधर राज्य के भीतरी हिस्सों में खालिस्तानी जनता  के मन में  भारत विरोधी भावनाओं का संचार करने में लग गए | राजनीतिक सत्ता बदलने का  लाभ  पंजाब की आम जनता को कितना मिला ये तो फिलहाल  साफ़ नहीं है लेकिन खालिस्तानी संगठनों को नई सरकार बनने के बाद अपने लिये सुविधाजनक माहौल मिलने लगा और यही कारण है अचानक  खूनी घटनाओं का सिलसिला शुरू हो गया | इसके कारण मान सरकार की जो किरकिरी हो रही है वह तो अपनी जगह है लेकिन  पंजाब में अलगाववाद की ये बयार  राष्ट्रीय चिंता  का विषय है | अकाली दल के एनडीए से अलग  होने के बाद उसके नेताओं की भाषा भी बदलती  लग रही है | इस प्रकार गत  दिवस स्वर्णमंदिर परिसर में खालिस्तान समर्थक नारेबाजी और भिंडरावाले के पोस्टरों का प्रदर्शन साधारण घटना नहीं है | 1984 में इसी स्थान पर सेना ने ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के दौरान भिंडरावाले को मारा था | उसी के चलते अकाल तख़्त को भी भारी  नुकसान हुआ  | उस सैन्य अभियान की प्रतिक्रिया स्वरूप ही दो सिख अंगरक्षकों ने इंदिरा जी की उनके ही निवास पर हत्या कर दी थी और उस अभियान के निर्देशक जनरल वैद्य को पुणे में मार दिया गया | यद्यपि पंजाब का सिख समुदाय खालिस्तानी आन्दोलन के साथ सीधे तौर पर चूंकि कभी नहीं जुड़ सका इसलिए वह मुहिम अंततः कमजोर पड़ते – पड़ते खत्म हो गई | लेकिन  कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद आतंकवाद की जिस तरह कमर टूटी उसके बाद से पाकिस्तान ने खालिस्तानी आन्दोलन को पुनर्जीवित करने का खेल रचा जिसे कैनेडा आदि से मदद मिल रही है | पंजाब की नई सरकार राजनीतिक तौर पर अभी उतनी अनुभवी और परिपक्व नहीं है कि इस तरह के हालात को संभाल सके | हालांकि मुख्यमंत्री श्री मान ने दिल्ली जाकर केन्द्रीय गृहमंत्री से अतिरिक्त सुरक्षा बल मांगे थे | लेकिन जिस तरह का वातावरण वहाँ बन रह है , उसमें राजनीतिक सूझबूझ की बेहद जरूरत है | पिछले मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस के होने के बावजूद केंद्र से अच्छे रिश्ते बनाए रखते थे | लेकिन आम आदमी पार्टी और केंद्र सरकार के बीच छत्तीस का आंकड़ा दिल्ली से ही बना हुआ है | ऐसे में दोनों के बीच संवादहीनता सुरक्षा की दृष्टि से बेहद सम्वेदनशील इस राज्य के लिए खतरनाक साबित हो सकती है | बेहतर हो केंद्र और पंजाब सरकार ऐसे मामलों में राजनीति से ऊपर उठकर काम करें क्योंकि आन्तरिक सुरक्षा राजनीतिक नफे – नुकसान से कहीं ऊपर है |

- रवीन्द्र वाजपेयी


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