Wednesday 1 June 2022

राज्यसभा : केवल नाम के लिए उच्च सदन रह गई



ये बड़ा ही रोचक है कि आम चुनाव के जरिये बनने वाली लोकसभा को संसद का निम्न सदन और राज्यों के विधायकों के मतों से चुनी जाने वाली राज्यसभा उच्च सदन कहलाती है | जब भी बात संसद की होती  है तब पहले राज्यसभा और बाद में लोकसभा का उल्लेख होता है |  जहां तक शक्तियों का सवाल है तो किसी भी सरकार के लिए लोकसभा में बहुमत होना अनिवार्य है जबकि  राज्यसभा में अल्पमत  के बाद भी सरकार  सत्ता पक्ष की भूमिका में रहती है | यद्यपि  किसी भी विधेयक को पारित करने के लिए राज्यसभा की स्वीकृति भी जरूरी होती है और उस दृष्टि से सरकार में रहने वाली पार्टी उच्च सदन में भी बहुमत चाहती है और न होने पर निर्दलीय सदस्यों के अलावा छोटे दलों से समन्वय बनाकर काम निकालती है | प्रश्न ये है कि उच्च सदन क्यों बनाया गया है ? और इसका सीधा उत्तर है संसदीय प्रक्रिया में समाज के उस वर्ग को शामिल करने के लिए जो चुनाव की राजनीति या झंझट से दूर रहता है | इसमें राजनीति के अलावा , कला – संस्कृति , खेल , उद्योग – व्यवसाय , समाजसेवा    , विज्ञान  शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत प्रतिभाशाली और समर्पित लोग आते हैं | `राज्यसभा  सदस्य को मंत्रीपरिषद में भी शामिल किया जा सकता है | सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये कभी भंग नहीं होती इसीलिये इसे स्थायी  सदन कहा जाता है | लोकसभा भंग रहने की स्थिति में कामचलाऊ सरकार राज्यसभा के  माध्यम से विधायी प्रक्रिया को जारी रखती है | इसके सदस्यों का कार्यकाल छह वर्षों का होता है | एक तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष में चुने जाते हैं | 12 सदस्यों का मनोनयन सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं | इस का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह हमेशा इसी सदन के सदस्य रहे | देश के अनेक दिग्गज राजनेता भी उच्च सदन के जरिये ही संसदीय प्रक्रिया से जुड़े | कई  राजनेता जो लोकसभा चुनाव हार जाते हैं उन्हें उनकी पार्टी राज्यसभा में ले आती है | इस प्रकार  उच्च सदन जनता द्वारा सीधे न चुने जाने के बाद भी महत्व रखता है | सार्वजानिक जीवन की अनेक विभूतियों को इसकी सदस्यता दी जाती रही है | आजादी के बाद के कुछ दशक तक तो इसकी गरिमा और गुणवत्ता कायम रही लेकिन अस्सी का दशक आते तक उच्च शब्द के साथ खिलवाड़ शुरू हुआ और ये सदन उन  नेताओं का आश्रयस्थल बनने लगा जो जनता का विश्वास अर्जित करने में विफल रहते हैं | हालाँकि चुनाव हार जाने वाले किसी नेता की उपयोगिता के मद्देनजर पार्टी उन्हें राज्यसभा में लाती है तो वह गलत नहीं लगता | लेकिन अनेक व्यक्ति  राजनीति में कोई भूमिका न होने के बावजूद अपने संपर्कों अथवा पैसे के दम पर उच्च सदन में जगह पा जाते हैं | निर्दलीय विधायकों के अलावा किसी दल के पास अतिरिक्त मतों के मोटे दाम लगते हैं | छोटे – छोटे क्षेत्रीय दल तो इस मामले में बदनाम हैं ही लेकिन राष्ट्रीय पार्टियां भी ऐसे अनेक लोगों को उपकृत करती हैं जिनके आने से उच्च सदन की छवि को धब्बा लगता है | विजय माल्या इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण था | शिवसेना भी एक सीट किसी न किसी ऐसे व्यक्ति को  देती रही है जो पार्टी से बाहर का होता है | प्रसिद्ध  उद्योगपति स्व. राहुल बजाज उनमें से एक थे | देश के अनेक दिग्गज अधिवक्ता भी राजनीतिक दलों के मुकदमे लड़ने के एवज में उच्च सदन की सदस्यता हासिल करते रहे हैं | कपिल सिब्बल इसका ताजा  उदाहरण हैं जिन्होंने कांग्रेस में दल न गलने के कारण समाजवादी पार्टी को पटाकर राज्यसभा में लौटने का इंतजाम कर लिया | इन दिनों राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव चल रहे हैं | जिसे लेकर एक बार फिर वही बातें सामने आ रही हैं जिनका शुरू में जिक्र किया गया है | कांग्रेस द्वारा जो उम्मीदवार घोषित किये गए उनकी जमकर आलोचना पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह हो रही है क्योंकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान से जिन लोगों को प्रत्याशी बनाया वे सभी बाहरी हैं | इसके अलावा अनेक ऐसे प्रत्याशी है जिन्हें किसी और राज्य से लड़ाया जा रहा है जबकि वे अपने राज्य से चुने जा सकते हैं | महाराष्ट्र से इमरान प्रतापगढ़ी नामक उ.प्र के व्यक्ति  को कांग्रेस ने टिकिट  दी जबकि उस राज्य के मुकुल वासनिक को किसी और राज्य से | कोई पार्टी किसे उम्मीदवार बनाये ये उसका अधिकार है लेकिन कांग्रेस की टिकिटों को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वे इस बात का द्योतक हैं कि उच्च सदन का स्तर किस तरह गिराया जा रहा है | भाजपा भी इस खेल में पीछे नहीं है | उसने भी महाराष्ट्र ,कर्नाटक और राजस्थान में  एक अत्तिरिक्त प्रत्याशी खडा कर कांग्रेस के लिए चिंता उत्पन्न कर दी है | इनमें सबसे ज्यादा चर्चा राजस्थान से लड़ रहे सुभाष चंद्रा की है जो ज़ी टीवी सहित अनेक बड़ी कंपनियों के मालिक हैं | 2016 में  वे हरियाणा से इसी तरह अतिरिक्त मत बटोरकर राज्यसभा में आ गये थे | उनकी उम्मीदवारी से कांग्रेस को चिंता हो गई है जिसने निर्दलीय और छोटी पार्टियों के विधायकों के समर्थन की उम्मीद पर अपना एक प्रत्याशी उतार दिया है | राजनीतिक दल तो व्हिप के जरिए अपने मतों को सहेजकर रखते हैं लेकिन निर्दलीय विधायक को अपनी तरफ खींचना आसान होने से धनकुबेर उम्मीदवार अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं | जबसे राजनीति में जातिगत समीकरण होने लगे हैं तबसे राज्यसभा में भी  इसकी झलक दिखाई देने लगी है | उस लिहाज से पूरे देश पर निगाह डालें तो जिन उम्मीदवारों को राजनीतिक पार्टियों ने राज्यसभा हेतु पेश किया है उनमें से ज्यादातर उनके अपने काम के तो हो सकते हैं किन्तु उच्च सदन की छवि और गरिमा की कसौटी पर  कमतर ही नजर आते हैं | और फिर जो सदस्य अतिरिक्त मतों को येन केन प्रकरण प्राप्त कर सांसदी  हथिया लेते हैं उनकी संसदीय प्रक्रिया में कम और अपने स्वार्थ साधने में ज्यादा रुचि रहती है | हालाँकि लोकसभा में भी अनेक ऐसे  सदस्य लहर के सहारे जीतकर आ जाते हैं जो कभी मुंह तक नहीं खोलते | लेकिन राज्यसभा में तो ऐसे सदस्यों की भरमार है जो  मिट्टी के माधो बने बैठे रहते हैं | यही वजह है कि उच्च सदन में बहस निम्नस्तर पर आती जा रही है | इसके लिए किसी एक पार्टी को जिम्मेदार ठहराए जाने की बजाय पूरे राजनीतिक समुदाय को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है क्योंकि चाहे राष्ट्रीय दल हों या छोटी पार्टियां सभी ने उच्च सदन को मजाक बनाने में कसर नहीं छोड़ी है  |     
-रवीन्द्र वाजपेयी

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