Tuesday 31 May 2022

गलतियों को सुधारने की बजाय दोहराने की गलती कर रही कांग्रेस



 देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस किसी परिचय की मोहताज नहीं है | कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से सिक्किम तक लोग उसे जानते हैं | भले ही बीते आठ  साल से वह केंद्र की सत्ता से बाहर है और बतौर विपक्ष भी संसद में उसकी उपस्थिति प्रभावशाली नहीं है किन्तु लोकतंत्र की भलाई चाहने वाले जो लोग मजबूत विपक्ष की चाहत रखते हैं उन सबकी नजर घूम – फिरकर कांग्रेस पर ही आकर टिकती है | और इसका कारण उसका राष्ट्रीय स्वरूप ही है  | यद्यपि  देश के बड़े हिस्से में उसका प्रभाव नगण्य हो गया है | राजस्थान और छत्तीसगढ़ के अलावा वह किसी और राज्य में अपने बलबूते सत्ता में नहीं है | पंजाब उसके हाथ से हाल ही में निकला हैं | महाराष्ट्र और झारखंड में वह गठबंधन सरकार में कनिष्ट हिस्सेदार है | संसद में मुख्य विपक्षी दल होने से भी वह वंचित है | वैसे इस स्थिति से किसी भी पार्टी को गुजरना पड़ सकता है | भाजपा भी 1984 की राजीव लहर में दो सीटों पर सिमटकर रह गई थी | लेकिन कांग्रेस की वर्तमान दुरावस्था पर देशव्यापी चर्चा इसलिए होती है क्योंकि उसने बीते 75 साल   में अधिकतर समय देश और प्रदेशों पर राज ही नहीं किया अपितु वह एक संस्कृति के तौर पर स्थापित हो चुकी थी | इसलिए चंद अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश राजनीतिक दल या तो उससे टूटकर बने या फिर उनकी नीति – रीति उससे प्रभावित है | यहाँ तक कि वामपंथी दल भी लम्बे समय तक कांग्रेस के पक्षधर रहे और दक्षिणपंथी कहे जाने वाले डा. मनमोहन सिंह की सरकार के सहारा बने | आज भाजपा अपने चरमोत्कर्ष पर है किन्तु आये दिन ये सुनने में आता है कि सत्ता की आपाधापी में उसका भी कांग्रेसीकरण होता जा रहा है | लेकिन इससे हटकर सवाल ये है कि इस ऐतिहासिक पार्टी का ये हाल आखिरकार कैसे हो गया और क्या वह इससे उबर सकेगी ?  2014 में जब नरेंद्र मोदी नामक धूमकेतु राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभरा तब ये किसी ने नहीं सोचा था कि कांग्रेस हाशिये पर जाने मजबूर हो जायेगी | लेकिन अपनी वापसी के लिए  संगठन और कार्यप्रणाली में जिस तरह का सुधार और संशोधन करना चाहिए था उसकी जगह वह अपने प्रतिद्वंदी की कमियां तलाशने की गलती करती रही | दुष्परिणाम ये हुआ कि उसका भविष्य समझे जाने वाले राहुल गांधी तक को केरल जाकर शरण लेना पड़ी | 2014 में उनको कड़ी टक्कर देने के बाद स्मृति ईरानी ने अमेठी निर्वाचन क्षेत्र में  आवाजाही बनाये रखी जबकि बतौर सांसद श्री गांधी महीनों वहां नहीं जाते थे | 2019 में इसी कारण उनका तम्बू वहां से उखड़ गया | उसके बावजूद भी न तो गांधी परिवार और न ही पार्टी के अन्य बड़े नेताओं ने उन गलतियों को जानकर  दूर करने का कोई प्रयास किया जो इस दुर्गति की वजह बनीं | 2014 से 2019 के बीच कांग्रेस सोनिया गांधी के हाथ से राहुल के नियंत्रण में आ गई थी | उन्होंने अपनी बहिन प्रियंका को भी पारिवारिक विरासत में हिस्सेदार बनाकर उ.प्र का प्रभार सौंप दिया | इस आधार पर  पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे इन दोनों के खाते में दर्ज हुए | राहुल ने जिम्मेदारी ली और अध्यक्ष पद छोड़ दिया |  महीनों चली अनिश्चितता के बाद बजाय किसी नये चेहरे को नेतृत्व सौंपने के घूम – फिरकर श्रीमती गांधी के कन्धों पर ही दोबारा बोझ लाद दिया गया जो बढ़ती आयु और अस्वस्थता के कारण पहले जैसी सक्रिय नहीं रह पाईं | इसका परिणाम पार्टी के भीतर बढ़ते असंतोष के तौर दिखने लगा | जिसका प्रमाण जी – 23 नामक नेताओं के एक गुट के खुलकर सामने आने से मिला जिसने संगठन चुनाव और कांग्रेस कार्यसमिति के पुनर्गठन के साथ ही पूर्णकालिक अध्यक्ष जैसे मुद्दे उठाये | इस गुट का अपराध ये जरूर रहा कि उसने अपनी मांगों को लेकर जो पत्र श्रीमती गांधी को भेजा उसे सार्वजनिक कर दिया और उसके बाद फिर बयानबाजी भी करते रहे | हालाँकि उस गुट के नेताओं में अग्रणी माने जा रहे गुलाम नबी आजाद , कपिल सिब्बल , आनंद शर्मा आदि ने हमेशा ये दोहराया कि वे पार्टी की बेहतरी चाहते हैं लेकिन उनकी बातों को बगावत समझा गया | इसी तरह पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को नीचा दिखने के लिए नवजोत सिद्धू को भेजने की मूर्खता हुई  | उनको प्रदेश अध्यक्ष बनाने का विरोध सांसद मनीष तिवारी और पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड तक ने किया | उसके बाद की दास्ताँ सबके सामने है | उ.प्र मे तो  खैर कोई  सम्भावना थी भी नहीं लेकिन उत्तराखंड और गोवा में कांग्रेस अपनी गलतियों से हारी | लेकिन इन सब विफलताओं का दायित्व किसके सिर पर आये ये सोचने की फुर्सत किसी को नहीं है | राजस्थान में गहलोत – पायलट विवाद उलझा पड़ा है | गुजरात में हार्दिक पटेल जैसे आये वैसे ही चलते बने | ऐसे में पार्टी द्वारा राज्यसभा उम्मीदवारों की घोषणा किये जाने के बाद  पूरे देश से ये सवाल उठ रहा है कि क्या गांधी परिवार कांग्रेस का बहादुर शाह जफर बनने को उतारू है ? राजस्थान  और छत्तीसगढ़ से पूरी की पूरी टिकिटें उन बाहरी नेताओं को दे दी गईं जो इस परिवार के दरबारी हैं | जी – 23 में रहे कपिल सिब्बल ने तो सपा से जुगाड़ भिडाकर राज्यसभा में आने का इन्तजाम कर लिया वहीं विवेक तन्खा को म.प्र में कमलनाथ ने दूसरा मौका दिलवा दिया | लेकिन गुलाम नबी आजाद और आनंद  शर्मा को जी – 23 बनाने की सजा दे दी गई  | पार्टी प्रवक्ता के रूप में अच्छा काम कर रहे पवन खेडा ने तो अपना दर्द सोशल मीडिया पर साझा भी कर दिया | राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आगामी साल चुनाव होने वाले हैं इसलिए बगावत तो शायद न हो लेकिन बताया जाता है वहां  के मुख्यमंत्री गांधी परिवार के इस रवैये से खिन्न हैं | ये सब देखते हुए जो लोग कांग्रेस की वापसी की लेशमात्र सम्भावना देखते थे वे भी हताश हो चले हैं | मोदी विरोधी अनेक पत्रकार और विश्लेषक भी राज्यसभा टिकिटों के वितरण को लेकर  ये कहते सुने जा सकते हैं कि उसका पुनरुद्धार सम्भव नहीं है | पता नहीं राहुल को जनभावनाओं के अलावा पार्टी के भीतर धधक रहे ज्वालामुखी का आभास है या नहीं क्योंकि जिस तरह एक के बाद एक गलती उनके द्वारा दोहराई जा रही है वह डूबते जहाज में नये  छेद करने जैसा ही है | प्रबंधन शास्त्र अपनी गलतियों से सीखने की समझाइश देता है , लेकिन विदेश से प्रबंधन में शिक्षित होने  के  बावजूद राहुल गांधी  गलतियों को दोहराने पर आमादा हैं | लगता है उदयपुर में हुए नव  संकल्प और चिंतन शिविर में बुद्धिविलास और उपदेश बाजी ज्यादा हुई काम की बातें कम। 


-रवीन्द्र वाजपेयी

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