Friday 6 May 2022

आरक्षण : मर्ज बढ़ता गया ज्यों – ज्यों दवा दी



म.प्र में पंचायत एवं नगरीय चुनाव में ओबीसी  ( अन्य पिछड़ा वर्ग ) के आरक्षण की सीमा कितनी रखी जावे इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय में चल रही सुनवाई गत दिवस रोचक मोड़ पर जा पहुंची जब न्यायालय ने राज्य सरकार को हड़काते हुए कहा कि वह ओबीसी की संख्या संबंधी आंकड़े आज उसके समक्ष पेश करे अन्यथा वह बिना आरक्षण के चुनाव करवाने का आदेश पारित कर देगा | इसके बाद सरकार हरकत में आई और पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग सहित मतदाता सूचियां अदालत में पेश करने की तैयारी कर ली गई | ओबीसी को 35 फीसदी आरक्षण की सिफारिश के साथ जरूरी दस्तावेज आज अदालत में पेश होंगे | समूचे विवाद के पीछे ओबीसी की जनसँख्या के अनुपात में आरक्षण दिये जाने की मांग है | इसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अतीत में दी गई वह व्यवस्था बाधा बन रही है जिसके अनुसार आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता | ऐसे में यदि 35 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना है तब संविधान में संशोधन करना होगा जो संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है | सर्वोच्च न्यायालय इस ,मामले में क्या फैसला देगा ये आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा | यदि वह राज्य सरकार द्वारा पेश किये गए दस्तावेजों से संतुष्ट न हुआ तब हो सकता है वह बिना आरक्षण के निर्वाचन करवाने का आदेश दे जैसा कि महाराष्ट्र को लेकर वह कर चुका है | जाहिर है उस पर भी राजनीति होगी क्योंकि तब विपक्ष सरकार पर आरोप लगाएगा कि उसने ओबीसी को उसका हक दिलवाने में लापरवाही की | और यदि सर्वोच्च न्यायालय ने 35 प्रतिशत आरक्षण ओबीसी हेतु निर्देशित कर दिया तब पूरा मामला संविधान संशोधन पर जाकर टिक जावेगा | कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि आरक्षण नामक व्यवस्था  राजनीति के जाल में फंसकर रह गई है | राजनीतिक दलों के मन में यदि आर्थिक , सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े रह गये वर्गों के उन्नयन के प्रति ईमानदारी होती तो कोई कारण नहीं है जो आजादी के 75 साल बाद भी पिछड़ेपन का रोना रोया जाता | जाति को अलग रखकर  देखें तो ये लगेगा कि सामाजिक के साथ ही  आर्थिक और शैक्षणिक  पिछड़ापन एक बड़े वर्ग के साथ जुड़ा हुआ है | सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो लेकिन उसका पूरा ध्यान वोटों पर लगा रहता है | वरना आरक्षित वर्ग के नेताओं की स्थिति में हुए सुधार से उनके सजातीय वंचित न रहते | ये देखते हुए लगता है कि आरक्षण अपने असली उद्देश्य से भटक चुका है | निश्चित तौर पर आजादी के समय अजा , अजजा को आरक्षण रूपी बैसाखी की जरूरत थी |  इस वर्ग को मुख्यधारा में लाना समाज का मानवीय दायित्व था | कालान्तर में ओबीसी को भी आरक्षण का लाभ जब दिया गया तब कुल आरक्षण के प्रतिशत का विवाद उठा | जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकतम सीमा तो तय कर दी लेकिन हर चुनाव के पहले नई – नई जातियां आरक्षण की सूची में शामिल हो जाती हैं | अब तो बात अति पिछड़े और अति दलित तक जा पहुँची है | इसका आशय ये भी है कि बीते 75 साल में आरक्षित वर्ग का सम्पूर्ण उत्थान तो हुआ नहीं उलटे उसके कुछ हिस्से और भी बुरी हालत में पहुँच गये जो आरक्षण नामक व्यवस्था की सार्थकता पर सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है | दरअसल जिन लोगों ने आरक्षण के नाम पर अपनी नेतागिरी चमकाई वे ही इस वर्ग के सबसे बड़े शत्रु साबित हुए | कभी – कभी तो लगता है अजा , अजजा और ओबीसी समुदाय की बदहाली के लिए उसके रहनुमा कहलाने वाले ही जिम्मेदार हैं | वरना बीते 75 साल में सामाजिक और आर्थिक विषमता पूरी तरह खत्म की जा सकती थी | म.प्र के स्थानीय निकाय एवं पंचायत चुनाव में ओबसी आरक्षण बढाने मात्र से यदि इस वर्ग का कल्याण होता हो तो संविधान में संशोधन करना भी उचित रहेगा लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि जातिगत आरक्षण अपने असली उद्देश्य में कामयाब नहीं हो सका | आज जब भारत दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का सामर्थ्य हासिल कर रहा है तब इस तरह के विवाद हमारी प्रगति में रोड़ा बनते हैं | सर्वोच्च न्यायालय ने यदि बिना आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाये चुनाव   करवाने का आदेश दिया तब उसे लेकर भी राजनीतिक रस्साकशी चलेगी | लेकिन इस सबसे ओबीसी का पिछड़ापन दूर होगा , इसकी सम्भावना नहीं लगती | कभी – कभी तो ऐसा लगता है मानों आरक्षण के नाम पर समाज को बांटने की मुहिम एक षडयंत्र है जिसका उद्देश्य जातिगत भेदभाव को मजबूत करते हुए सामाजिक सद्भाव को क्षति पहुँचाना है | आजादी के अमृत महोत्सव में बीते 75 साल के दौरान क्या खोया , क्या पाया का आकलन हो रहा है | लेकिन आरक्षण की समीक्षा करने के नाम पर ही बवाल होने लगता है | आरक्षण बेशक एक दवाई थी सदियों पुरानी सामजिक बुराई के इलाज की किन्तु ऐसा लगता है कि समय के साथ मर्ज बढ़ता गया ज्यों – ज्यों दवा दी वाली कहावत साबित हो रही है | यदि इसका लाभ हुआ होता तब आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाये जाने की बजाय घटाने की बात सोची जाती | लाख टके का सवाल ये है कि दलित और पिछड़े आखिर हैं ही क्यों ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment