Wednesday 11 May 2022

बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव : भाजपा – कांग्रेस की अग्नि परीक्षा



आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने म.प्र में बिना ओबीसी आरक्षण के ही नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव करवाने का आदेश दे दिया | प्रदेश सरकार द्वारा इस वर्ग को 35 फीसदी आरक्षण दिए जाने की मांग उसने ये कहते हुए अस्वीकार कर दी कि वह आवश्यक विवरण उपलब्ध नहीं  करा सकी किन्तु उसके अभाव में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को टालते रहना गलत होगा | राज्य चुनाव आयोग ने भी न्यायालय के निर्देशानुसार चुनाव हेतु अपनी स्वीकृति दे दी | लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ओबीसी आरक्षण के साथ ही चुनाव करवाने की प्रतिबद्धता दोहराते हुए ये घोषणा भी कर डाली कि  सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार  याचिका लगाई जावेगी | वहीं अनेक विधि  विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अब  पुनर्विचार याचिका की कोई गुंजाईश ही नहीं है | कांग्रेस और भाजपा के बीच एक – दूसरे को ओबीसी विरोधी साबित करने के लिए आरोप – प्रत्यारोप का दौर भी चल पड़ा है | यदि सर्वोच्च न्यायालय ने पुनर्विचार याचिका स्वीकार नहीं की तब ओबीसी आरक्षण के बिना चुनाव करवाने की बाध्यता होगी | और उस स्थिति में जैसा कहा जा रहा है कि राजनीतिक दल ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवारी ओबीसी वर्ग के लोगों को देकर उनकी नाराजगी से बचना चाहेंगे | जो कुछ भी होना है वह आने वाले कुछ दिनों में ही स्पष्ट हो जायेगा किन्तु सर्वोच्च न्यायालय का रुख देखने से लगता है कि वह अपने  आदेश पर ही कायम रहेगा | ऐसे में ये मानकर चला जा सकता है कि चुनाव जल्द होंगे | चूँकि मानसून सिर पर है इसलिए  चुनाव आयोग के सामने  भी बड़ी दिक्कतें आयेंगीं | विशेष रूप से पंचायत चुनावों में बरसात  बाधा बन सकती है | जहाँ तक बात म.प्र सरकार की है तो भाजपा के लिए भी ये बड़ी चुनौती है | यद्यपि अपने मजबूत संगठन के बलबूते वह कांग्रेस पर भारी नजर आती है लेकिन ये चुनाव स्थानीय मुद्दों पर केन्द्रित होने से पूरे प्रदेश में एक जैसे समीकरण होना जरूरी नहीं रहता | यद्यपि ओबीसी वर्ग में  भाजपा का जनाधार काफी मजबूत है | स्वयं मुख्यमंत्री उसका प्रतिनिधित्व करते हैं और आम जनता के साथ उनका सम्पर्क भी बेहद जीवंत है | लेकिन कांग्रेस द्वारा भाजपा पर ओबीसी विरोधी होने का जो आरोप लगाया जा रहा है उसकी काट निकालना उसके लिए आसान नहीं होगा | और फिर ओबीसी के तुष्टीकरण के लिए उन्हें ज्यादा टिकिटें देने  के अलावा सामान्य वर्ग के प्रभुत्व वाली सीटों से उतारे जाने पर उच्च जातियों के नाराज होने का नुकसान भी संभावित है  | यद्यपि ये समस्या कांग्रेस  के सामने भी रहेगी |  2023 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के  लिए स्थानीय निकायों और पंचायत चुनाव जीतना  जरूरी होगा क्योंकि इनके नतीजों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव विधानसभा चुनाव पर पड़े बिना नहीं रहेगा | कांग्रेस के लिए भी ये  जीवन – मरण का सवाल होंगे | यदि वह इनमें सफलता हासिल कर सकी तो उसके लिए 2023 का मुकाबला जीतना आसान हो जायेगा , अन्यथा उसका मनोबल टूटे बिना नहीं रहेगा | इसी तरह भाजपा के लिए भी ये चुनाव इस पार या उस पार वाले होंगे | 2018 के विधानसभा चुनाव की कडवी यादें वह शायद ही भूली होगी | मुख्यमंत्री भी इस बात को समझते हैं कि ये चुनाव  उनके राजनीतिक भविष्य का निर्धारण करने वाले होंगे | मार्च 2020 में सत्ता हासिल होने के बाद चूंकि कोरोना लग गया , उस कारण सरकार को कार्य करने का समुचित अवसर नहीं मिला | इस वजह से आधे – अधूरे पड़े काम भाजपा के लिए मुसीबत बन सकते हैं | उस  काल में सांसद – विधायक भी ज्यादा कुछ न कर सके | कमलनाथ सरकार ने आते ही चूंकि स्थानीय निकाय भंग कर दिए थे इसलिए उनमें नौकरशाही हावी है | जिसके भ्रष्टाचार का खामियाजा  भाजपा के खाते आ सकता है | लेकिन इससे भी बड़ी समस्या जो भाजपा और कांग्रेस दोनों के सामने आने वाली है वह है एक अनार सौ बीमार वाली | यदि चुनाव हुए तो बरसों से टिकिट की आस  लगाये कार्यकर्ताओं की उम्मीदें सातवें आसमान पर होंगीं | ऐसे में जो उससे वंचित रह जायेंगे उनकी नाराजगी दोनों बड़ी पार्टियों को इस चुनाव के बाद विधानसभा के मुकाबले में भी काफ़ी महंगी साबित होगी |  जहाँ तक प्रश्न ओबीसी आरक्षण का है तो ये मुद्दा कानून से ज्यादा राजनीतिक बन गया है | भाजपा और कांग्रेस दोनों अपने को ओबीसी का हितचिन्तक  साबित करने में जुटी हैं  | भाजपा के पास कहने को ये है कि उसने उमाश्री भारती , बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान के रूप में लगातर तीन ओबीसी मुख्यमंत्री दिए जबकि कांग्रेस  के पास प्रदेश स्तर पर पिछड़ी जाति का कद्दावर नेता नहीं है | अरुण यादव को जिस तरह पीछे धकेला गया उसकी वजह से पार्टी  कमजोर हुई है | सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस  ओबीसी आरक्षण के बिना ही चुनाव करवाने का जो आदेश दिया उसके परिप्रेक्ष्य में भाजपा और कांग्रेस दोनों को अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा | आरक्षण का प्रावधान हुए बिना भी वे इस वर्ग को कितना अवसर देंगीं यह  इन चुनावों से स्पष्ट हो जाएगा | यदि उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व बिना  आरक्षण के ही मिल सके तब हो सकता है भविष्य में इसे लेकर बनाया जाने वाला दबाव कुछ कम हो | वैसे भी राजनीतिक दलों को अपने स्तर पर इस तरह की रचना  करनी चाहिये जिससे समाज के सभी वर्गों के साथ न्याय हो सके और विकास की मुख्यधारा से कोई भी इसलिए वंचित न रहे क्योंकि वह दलित अथवा पिछड़ी जाति में जन्मा है | इसी के साथ ये भी जरूरी है कि आरक्षित वर्ग के जो राजनीतिक नेता स्थापित हो चुके हैं वे  अपने परिवार के दायरे से निकलकर समूचे  समाज के वंचित वर्ग के उत्थान को प्राथमिकता दें  जो कि आरक्षण का मूल उद्देश्य है |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


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