Thursday 5 May 2022

संस्कृत को प्रोत्साहन देना बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय



बीते कुछ समय से देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के मसले पर विवाद की स्थिति बनी हुई है | दक्षिण के राज्यों के अलावा प. बंगाल से भी हिन्दी के विरोध में आवाजें उठी हैं | क्षेत्रीय भाषाओं के पैरोकार भी इस मामले में मुखर हो उठे हैं | लेकिन इस सबके बीच म.प्र की शिवराज सरकार ने संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए उसका अध्ययन करने वाले छात्रों को छात्रवृत्ति देने की घोषणा कर डाली | अक्षय तृतीया के दिन मुख्यमंत्री ने परशुराम चरित्र को पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का ऐलान किया था | राजनीतिक चश्मे से देखें तो श्री चौहान का उक्त फैसला आगामी विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण मतदाताओं को खुश करने का दांव है | उल्लेखनीय है 2018 के चुनाव में कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता जैसे उनके बयान ने सवर्ण मतदाताओं को नाराज कर दिया था |  मुख्यमंत्री स्वयं अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं और गाहे – बगाहे प्रदेश में 62 फीसदी ओबीसी जनसंख्या का आंकड़ा उनके द्वारा बताया जाता है | भाजपा के भीतर भी परम्परागत सवर्ण  समर्थक वर्ग इस बात से आहत अनुभव करने लगा है कि उसकी मेहनत से उठी पार्टी ओबीसी , अजा / अजजा को ज्यादा महत्व देने लगी है | सत्ता में बने रहने के लिए लिए सामाजिक न्याय वाली राजनीति का सफल प्रयोग उ.प्र में करने के बाद भाजपा का हौसला काफ़ी बुलंद है | अधिकतर ओबीसी और अजा / अजजा उसके साथ आ जाने से ही वह देश और अनेक प्रदेशों की सत्ता पर काबिज हो सकी | हालांकि  स्थायी रूप से उससे जुड़े रहे सवर्ण मतदाता भले ही उसके साथ बने हुए हैं लेकिन उनके मन में अपनी उपेक्षा के कारण नाराजगी तो है | शिवराज सिंह चूँकि अतीत में इसका नुकसान उठा चुके हैं इसलिए आगामी चुनाव में किसी भी तरह का जोखिम उठाने से बचते हुए वे ब्राह्मणों को रिझाने में जुट गए हैं | भोपाल में परशुराम की  विशालकाय प्रातिमा के अनावरण के दौरान ही उनके चरित्र को पाठ्यकम का हिस्सा बनाने के बाद संस्कृत पढने के इच्छुक छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करने के साथ ही उसके शिक्षकों की भर्ती जैसे फैसले भी लिए गए | वोट बैंक की राजनीति से अलग हटकर देखने पर राज्य सरकार के इस निर्णय में सार्थकता प्रतीत होती है | संस्कृत को देव भाषा मानते हुए अधिकतर भारतीय भाषाओँ की जननी कहा जाता है | हमारे देश का ज्यादातर पौराणिक साहित्य मूल रूप से संस्कृत में होने से यह धार्मिक कर्मकांड की भी भाषा है | इससे भी बढ़कर अब ये साबित होता जा रहा है कि कम्प्यूटर की भाषा के तौर पर संस्कृत बेहद उपयोगी है | ऐसे में यदि उसके अध्ययन हेतु छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाती है और उसे पढ़ाने के लिए शिक्षक नियुक्त होते हैं तब इस प्राचीन भाषा को उपेक्षा की खाई से निकालकर पुनः प्रतिष्ठित किया जा सकता है | कुछ दशक पूर्व तक विद्यालयीन पाठ्यक्रम में संस्कृत में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था | लेकिन कालान्तर में उसे गैर जरूरी बना दिया गया | अंकसूची के  कुल अंकों में संस्कृत के अंक नहीं जोड़े जाने से उसके अध्ययन के प्रति रूचि में कमी आई | ये कहना भी गलत न होगा कि उसे दोयम दर्जे की भाषा समझा जाने लगा | म.प्र सरकार के इस निर्णय पर भी नाक सिकोड़ने वाले निकल आयें तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए |  लेकिन वर्तमान  हालातों पर दृष्टिपात करने पर  महसूस किया जा सकता है कि संस्कृत के जानकारों को देश के साथ विदेशों में भी उसी तरह सम्मान सहित रोजगार हासिल हो सकता है जैसा बीते कुछ सालों से योग का शिक्षण लेकर निकले छात्रों को हुआ  है | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब योग को  वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया और उसके बाद विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में योग के पाठ्यक्रम प्रारम्भ करवाए तब शुरुवात में वह निर्णय  उपहास का पात्र बना | लेकिन बीते कुछ  सालों के भीतर हजारों योग प्रशिक्षक विदेशों में जाकर अच्छा ख़ासा कमा रहे हैं | इसी तरह भारत में योग की विधिवत शिक्षा प्राप्त किये युवा नौकरी अथवा निजी प्रशिक्षक के तौर पर आजीविका चलाने में सक्षम हुए हैं | उल्लेखनीय है कि संस्कृत की उपेक्षा के कारण  अच्छे कर्मकांडी पुरोहितों का अभाव नजर आने लगा है | इस दृष्टि से म.प्र  सरकार ने भाषा के  तौर पर संस्कृत को प्रोत्साहित करने को जो फैसला किया वह हर दृष्टि से समयोचित है | इसे केवल सनातन धर्म से जोड़कर देखना मूर्खता होगी क्योंकि भारतीय आध्यात्म , दर्शन और ज्ञान कोष  के अध्ययन के लिए इस भाषा का ज्ञान किसी के लिए भी उपयोगी हो सकता है | यूँ भी भाषा की जानकारी व्यक्तित्व की चमक में वृद्धि करती है | मसलन स्व. हरिवश राय बच्चन हिंदी भाषी होने के बाद भी अंग्रेजी के प्राध्यापक थे किन्तु उनकी प्रतिष्ठा हिंदी  कवि के तौर पर थी | इसी प्रकार स्व. रघुपति सहाय जो  फिराक गोरखपुरी के नाम से लोकप्रिय हुए , हिन्दी भाषी होने के बाद भी अंग्रेजी के प्राध्यापक हुए किन्तु उनकी समूची साहित्य साधना उर्दू में थी | उक्त दोनों विभूतियों ने साबित कर दिया कि भाषा का ज्ञान आपको कितनी ऊंचाइयों तक पहुँचा सकता है | इसलिए शिवराज सरकार ने  संस्कृत  के शिक्षण के लिए जो कदम उठाया वह स्वागतयोग्य है | पाठ्यक्रम से उपेक्षित होती जा रही यह प्राचीन भाषा अपने व्याकरण और वैज्ञानिकता के लिए किसी प्रशंसा या प्रमाणपत्र की मोहताज नहीं रही | जर्मनी में तो अनेक दशकों से संस्कृत के साथ ही प्राचीन भारतीय ग्रंथों का अध्ययन होता आ रहा है | म.प्र की तरह अन्य राज्य भी यदि संस्कृत को प्रोत्साहित करने के लिए ऐसे ही कदम  उठायें तो बड़ी बात नहीं कि आने वाले कुछ सालों के बाद विश्व संस्कृत दिवस का आयोजन भी होने लगेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


No comments:

Post a Comment