Saturday 14 May 2022

चिंतन शिविर : कर्ज उतारने की शुरुवात प्रथम परिवार ही क्यों न करे



कांग्रेस का बहुप्रतीक्षित नव संकल्प चिंतन शिविर गत दिवस राजस्थान के उदयपुर शहर में शुरु हुआ | तीन दिन के  इस आयोजन में पार्टी अपनी भावी योजनाओं के साथ ही उस रणनीति का निर्धारण करेगी जिससे वह 2024 में सत्ता में भले न आ सके किन्तु कम से कम वजनदार विपक्ष के तौर पर तो संसद में उसकी उपस्थिति हो | पांच राज्यों के हालिया चुनाव में मुंह के बल गिरने के बाद उसको चिंतन का खयाल आया | शिविर के कुछ दिन पूर्व कांग्रेस की डूबती नैया को पार लगाने के लिए प्रशांत किशोर उभरे थे जिन्होंने कुछ सुझाव और कार्ययोजनाएं आला नेतृत्व के सामने रखीं | उस दौरान उनके कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा काफी तेजी से चली किन्तु जल्द ही उन्होंने खुद होकर उसका खंडन कर दिया  | लेकिन जैसे संकेत उदयपुर से आ रहे हैं उनके अनुसार उनके ही  सुझावों में से अनेक पर पार्टी  विचार कर रही है जिनमें मुख्यतः युवा चेहरों को आगे लाना है | एक परिवार एक उम्मीदवार के सिद्धांत को लागू करने के साथ ही किसी पद पर आने से पहले पांच साल संगठन का काम करने की शर्त के साथ ही ये भी तय किये जाने की खबर है कि एक बार पद पर रहने के बाद दोबारा उपकृत किये जाने के लिए तीन वर्ष प्रतीक्षा करनी होगी | लेकिन गांधी परिवार इस नियम से ऊपर रहेगा | शिविर स्थल पर नेताओं के जो पोस्टर लगाये गए हैं उनमें नेहरू - गांधी परिवार के बजाय सरदार पटेल , नेताजी सुभाष चन्द्र बोस , बाबू राजेन्द्र प्रसाद आदि को महत्व दिया गया है | प्रथम दिन पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टीजनों से आह्वान किया कि पार्टी ने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन जब वह संकट में है तो हमें उसके उपकारों का बदला चुकाना चाहिये | उल्लेखनीय है शिविर में शामिल 400 नेताओं में अधिकतर  गांधी परिवार समर्थक ही हैं इसलिए उम्मीद तो यही है कि अंततः उसी का प्रशस्तिगान करते हुए सब अपने घर लौट जायेंगे | पार्टी वाकई चाहती है कि वह  दुरावस्था से बाहर आये  तो उसे यथास्थितिवाद त्यागना होगा ? श्रीमती गांधी का ये कहना बहुत सही है कि पार्टी ने जो दिया उसे लौटाना सबका कर्तव्य है किन्तु क्या इस नेक कार्य की शुरुवात उनके परिवार से ही नहीं होनी चाहिए क्योंकि अपने पूर्वजों की पुण्याई के नाम पर कांग्रेस का सबसे ज्यादा लाभ तो मौजूदा गांधी परिवार ने ही उठाया और आज भी उसे सारी बंदिशों से परे रखने का राग दरबारी ये डर दिखाकर गाया जा रहा है कि वरना पार्टी बिखर जायेगी | शिविर में अतीत की गलतियों पर विचार करते हुए भविष्य में उन्हें न दोहराए जाने का संकल्प लिए जाने की बात  कही जा रही है | लेकिन जब तक उनके जिम्मेदार लोगों को दंड न दिया जाए तब तक शायद ही कुछ हासिल हो सकेगा | पिछले लोकसभा चुनाव के तीन साल बाद हो रहे इस शिविर में सबसे पहले इस बात पर विचार होना चाहिए कि 2019 की  हार के बाद जब राहुल गांधी ने नैतिकता के नाम पर अध्यक्ष पद छोड़कर किसी गैर गांधी को आगे लाये जाने की बात कही थी तब महीनों अनिश्चितता बनाये रखकर आख़िरकार श्रीमती गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त करने का औचित्य क्या था , जो स्वास्थ्य संबंधी कारणों से मैदानी प्रचार करने में असमर्थ हो चुकी थीं | दूसरी बात ये है कि जब श्री गांधी ने अध्यक्षता त्याग दी तब बजाय दूसरे युवा नेताओं में संभावनाएं तलाशकर आगे करने के वे और उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा ही पार्टी में सारे निर्णय लेती रहीं | यदि पार्टी की कमान किसी अन्य के पास आई होती तो बीते तीन साल में उसकी छवि और पहिचान राष्ट्रीय स्तर पर बन जाती | देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के कारण  भले ही चुनावी मैदान में वह पहले जैसी दमदार न रही हो लेकिन राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर उसी का नाम लिया जा सकता है | विपक्ष का कोई भी गठबंधन उसके बिना कारगर नहीं हो सकता | बुरे से बुरे दौर में भी  उसके पास प्रतिबद्ध मतदाता हैं किन्तु एक ही  खूंटे  से बंधे रहने के कारण उसकी चेतना शिथिल पड़ गई | ऐसे में आवश्यकता है वह अपने मौजूदा ढांचे के साथ ही सोच भी बदले अन्यथा ये शिविर भी आये , बैठे , खाये  – पिये खिसके से ज्यादा कुछ साबित नहीं होगा | कांग्रेस में जितने भी असंतुष्ट हैं उनकी  शिकायत केवल  और केवल गांधी परिवार के एकाधिकार को लेकर है | उन्हें ये लगता है और जो सही भी है कि लगातार दो लोकसभा चुनाव हारने और संसद में मान्यता प्राप्त विपक्ष का दर्जा तक गंवाने के बाद भी शीर्ष नेतृत्व किसी अन्य को अवसर देने राजी नहीं है | संगठन के चुनाव न हो पाने से नई पौध तैयार नहीं हो पा रही | जनाधार और अच्छी छवि के लोगों को दूर रखते हुए परिवार की परिक्रमा करने वालों को उपकृत किया जाता है | जब गांधी परिवार के नेतृत्व को देश का जनमानस केंद्र और राज्य दोनों में लगातार अस्वीकृति करता आ रहा है तब किसी और को आजमाने में हिचक क्यों है , इस प्रश्न का समुचित उत्तर तलाशे बिना ऐसे कई चिन्तन शिविर भी कांग्रेस को  दुरावस्था से नहीं  निकाल पाएंगे | आगामी लोकसभा चुनाव के पहले अनेक राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं जिनमें कुछ ऐसे भी हैं जहां वह भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी है | इनमें से राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसकी सरकार है | हिमाचल और गुजरात में वह मुख्य विपक्षी दल है लेकिन आम आदमी पार्टी उससे वह दर्जा छीनने के लिए कमर कस रही है | इन्हें लेकर पार्टी कितनी गम्भीर है इसका एक उदाहरण गुजरात कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल का ताजा बयान है जिसके अनुसार उन्होंने  राहुल गांधी से मिलने का समय माँगा तब जवाब मिला अभी व्यस्त हूँ और दो सप्ताह बाद बताऊंगा | नाराज चल रहे हार्दिक न्यौते के बावजूद उदयपुर शिविर में शरीक नहीं हुए | ऐसी ही बेरुखी राहुल ने बरसों पहले असम कांग्रेस के बड़े नेता हेमंता बिस्वा शर्मा के साथ दिखाई थी जिससे रुष्ट होकर वे भाजपा में चले गए और आज असम के मुख्यमंत्री हैं | हार्दिक के भी भाजपाई बनने की अटकलें जोरों पर हैं | यदि वैसा हुआ तब गुजरात में कांग्रेस लड़ाई से पहले ही पराजयबोध  का शिकार हो जायेगी | राजस्थान की गुत्थी उलझाये रखने में भी गांधी परिवार की अनिर्णय की प्रवृत्ति है | और यदि फैसला होता भी है तो पंजाब जैसा जिसकी वजह से अच्छा भला राज्य हाथ से निकल गया | उदयपुर में हो रहे इस आयोजन में लिए जाने वाले निर्णय  आज या कल सामने आयेंगे  लेकिन  कांग्रेस वाकई अपना उदय चाहती है तब उसे अपनी सेना का पुनर्गठन करते हुए ,किसी  ऊर्जावान सेनापति के हाथ कमान सौंपनी होगी वरना प. बंगाल और उ.प्र जैसे शर्मनाक नतीजे अन्य राज्यों में भी उसे देखने मिल जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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