Friday 13 May 2022

ज्ञानवापी : 31 साल बाद भी मामला प्रारंभिक स्थिति में



अक्सर अदालतों में बैठे न्यायाधीश सरकार को आदेश देते हैं कि फलां काम इस तारीख तक हो जाना चाहिए  | ऐसा न करने पर मानहानि का खतरा रहता है | दो दिन पहले म.प्र में ओबीसी आरक्षण के पचड़े में रुके पंचायत और नगरीय चुनाव संबंधी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निश्चित तारीख तक कुछ  दस्तावेज सौंपने कहा था जो वह पेश नहीं कर सकी और तब उसने बिना आरक्षण के ही चुनाव करवाने का फरमान जारी कर दिया | इसी तरह दशकों तक लटके रहे राम जन्मभूमि के विवाद को सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दैनिक सुनवाई की गई | आशय ये है कि जिन मामलों को न्यायपालिका सुलझाना चाहती है उनका निराकारण तेजी से हो जाता है वरना  पेशी  बढ़ती जाती है | हालाँकि न्यायपालिका की कार्यपद्धति  कानून द्वारा  बनाये कायदों से नियंत्रित रहती है | लेकिन जो मामला समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करता हो ,  उसको प्राथमिकता के साथ निपटाना जरूरी होता है  | ऐसा इसलिए आवश्यक  है क्योंकि अपीलों का सिलसिला  सर्वोच्च न्यायालय तक चलता है | ऐसे में  प्राथमिक न्यायालयीन प्रक्रिया ही  बीरबल की खिचड़ी जैसी रही तो अंतिम निर्णय होने में कितना वक्त लगेगा इसका अंदाजा साधारण व्यक्ति तक लगा सकता है | उस दृष्टि से सही मायनों में वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में बनी ज्ञानवापी  मस्जिद संबंधी  मामले में गत दिवस निचली अदालत ने जो आदेश दिया उसकी तह में जाने से पता चला कि वर्ष 1991 में कुछ लोग इस दावे के साथ अदालत जा पहुंचे कि उक्त मस्जिद 1669 में औरंगजेब के  शासनकाल में विश्वनाथ मंदिर तोड़कर बनाई गयी थी | बीते 31 साल से इस मामले में न्यायालय ने क्या किया ये शोध का विषय है | यद्यपि बीते कुछ समय से  इसमें  गति आई और अदालत ने एक अधिवक्ता को बतौर कमिश्नर मस्जिद में जाकर दावे की सत्यता पता करने कहा |  लेकिन जब वे  वहां गये तब उपस्थित मौलवियों और मुस्लिम जनता ने उनको घुसने से ही रोका | मस्जिद के कुछ हिस्से ताले  में बंद हैं जिनके बारे में वादी का कहना है कि उनकी ठीक से जाँच करने पर हिन्दू मंदिर के प्रमाण मिल जायेंगे | मुस्लिम समुदाय की तरफ से तमाम  ऐतराज पहले भी लगाये जा चुके हैं और वर्तमान में भी अदालती आदेश को मानने के बारे में असहमति के स्वर सुनाई दे रहे हैं | सम्भवतः इसी से रुष्ट होकर गत दिवस अदालत ने कड़ा रुख दिखाते हुए दो अतिरिक्त कमिश्नर और नियुक्त करते हुए आदेश पारित किया कि मस्जिद में तहखाने से लेकर हर जगह का  सर्वेक्षण और वीडियोग्राफी करवाकर 17 मई तक पूरी रिपोर्ट  पेश की जावे | साथ ही कह दिया कि जहां ताले बंद हैं उन्हें या तो खोला जाए या फिर तोड़ दिया जाए | उसने ये निर्देश भी दिया कि सर्वे के दौरान कमिश्नरों के अलावा सम्बंधित अधिवक्ता और  प्रशासनिक अमला ही रहेगा | इस  आदेश से  लगता है जैसे 31 साल पहले प्रस्तुत  मामले का संज्ञान अब जाकर लिया गया है | सर्वे दल जो रिपोर्ट देगा उस आधार पर  फैसला हो जायेगा ये मान लेना मूर्खता होगी क्योंकि ऐसे विषयों में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की जाँच ही प्रामाणिक मानी जाती है |  राममंदिर मसले का हल भी खुदाई में मिले प्राचीन  अवशेषों के आधार पर ही संभव हो सका | ज्ञानवापी मस्जिद में भी यही तरीका आजमाना अपेक्षित है  | बहरहाल जब अदालत ने  मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाये जाने के दावे की पुष्टि हेतु ऐतिहासिक प्रमाण एकत्र करने की पहल की है तब ये उम्मीद की जा सकती है कि इस विवाद को अदालत द्वारा हल किया जाना संभव हो जाएगा | लेकिन इस उम्मीद के साथ ही ये विसंगति भी  है कि तीन दशक से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी यदि ये प्रकरण सबूत जुटाने की प्रारम्भिक अवस्था में ही है तब अंतिम तौर पर निराकरण होते – होते तो न जाने गंगा जी में कितना पानी और बह चुका होगा ? सोचने वाली बात ये है कि इस जैसे मसले के बारे में , जिसका सम्बन्ध न सिर्फ वाराणसी अपितु पूरे देश से है , अदालती प्रक्रिया की गति इतनी धीमी है  | बहरहाल उसने सुस्ती त्यागकर तेज गति से आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति प्रदर्शित की है तब मुस्लिम पक्ष से भी  अपेक्षा है कि  सर्वे का काम  सुचारू ढंग से होने दे क्योंकि उसमें बाधा डालने से चोर की दाढी में तिनके वाली उक्ति चरितार्थ हो रही है | वैसे भी  सनातन धर्म के प्राचीनतम आस्था केंद्र के परिसर में मस्जिद होना किसी भी दृष्टि से हजम होने वाली बात नहीं है | सर्वविदित है कि औरंगजेब इस्लामी कट्टरता का प्रतीक था |  विश्वनाथ मंदिर का हिस्सा प्रतीत होती ज्ञानवापी  मस्जिद निश्चित तौर पर उसकी धर्मान्धता का प्रमाण है | आश्चर्य का विषय है कि आजादी के बाद मुगलकालीन अत्याचारों के इन प्रमाणों को नष्ट करने के बारे में क्यों नहीं सोचा गया ? और जब अदालत में मामला दर्ज हुआ तब वहां कछुआ से भी धीमी चाल का नजारा देखने मिला | ऐसे में ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि जो आदेश अदालत द्वारा अब दिया गया यही बरसों पहले दिया गया होता तो बड़ी बात नहीं अब तक दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता | बहरहाल अब जब शुरुवात हो ही चुकी है तब इस प्रकरण को भी सर्वोच्च प्राथमिकता  के आधार पर जल्द से जल्द निष्कर्ष तक पहुँचाना चाहिए | इसी तरह मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि से सटाकर बनाई गयी शाही मस्जिद का विवाद भी अदालत में  आ चुका है | बेहतर तो ये होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इन मामलों को उ.प्र उच्च न्यायालय द्वारा अपने हाथ में लिए जाने का निर्देश दे जिससे कि कानूनी लड़ाई का सफर छोटा किया जा सके | अन्यथा इनके लंबित रहने से सामजिक स्तर पर तनाव बना रहेगा | चूंकि ये मामले धार्मिक आस्था से जुड़े हैं इसलिए पूरा देश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर इनमें रूचि लेता है | और फिर राजनीति करने वालों को भी उनमें अपना हित नजर आने लगता है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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