Tuesday 3 May 2022

और भी दर हैं ज़माने में सियासत के सिवा ....



एक जमाना था जब बाहुबली या रंगदार किस्म के लोग नेताओं की चुनाव में मदद करने के एवज में उनसे संरक्षण प्राप्त किया करते थे | कालान्तर में उन्हें लगा कि वे जब उनको जितवा सकते हैं तब खुद ही क्यों न विधायक - सांसद बन जाएँ | और उसके बाद भारतीय राजनीति की  चाल , चरित्र और चेहरा न सिर्फ बदला अपितु विकृत होता गया | दरअसल हमारा समाज इतना ज्यादा राजनीतिमय होकर रह गया है कि हर तबके के भीतर उसमें घुसने की ललक दिखाई देने लगी है | प्रशासनिक अधिकारी सेवा निवृत्त होते ही सियासत में ठिकाना तलाशने लगे हैं | उद्योगपति , कलाकार , सामाजिक कार्यकर्ता , लेखक , पत्रकार . अधिवक्ता और अभिनेता सभी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर राजनीति के मैदान में उतरने की लालसा पाल बैठे हैं | दरअसल समूची व्यवस्था पर राजनेता जिस प्रकार कुंडली मारकर बैठ गए हैं उससे ये अवधारणा मजबूत होती जा रही है कि राजनीति में आने से आपके हाथ में निर्णय क्षमता आ जाती है | वरना बतौर साधारण कानून पसंद नागरिक  आप मक्खी – मच्छर से ज्यादा कुछ भी नहीं | इसीलिये सार्वजानिक जीवन में कुछ अपवाद छोड़कर हर किसी की अंतिम मंजिल राजनीति बन जाती है | 1974 का छात्र आन्दोलन जिन समस्याओं को लेकर शुरू हुआ वे आज भी यथावत हैं जबकि उसी आन्दोलन से निकले अनेक युवा नेताओं ने सत्ता में आकर  अपनी भावी पीढ़ियों तक का उद्धार कर लिया | गुजरात में हार्दिक पटेल पाटीदार समाज के लिए बड़ा आन्दोलन खड़ा करने के बाद आखिरकार राजनीति के जंजाल में आकर उलझ गए | आम आदमी पार्टी के रूप में दिल्ली में जो दल सत्ता में आया वह भी अन्ना हजारे के उस आन्दोलन की कोख से  निकला जो बड़े सामाजिक बदलाव के लिए किया गया था | आज अन्ना तो अपने गाँव में बुढ़ापा काट  रहे हैं वहीं  उनके नाम के सहारे सत्ता में आये अरविन्द केजरीवाल को इतनी भी फुर्सत नहीं कि कभी जाकर उनके हालचाल पूछ आयें | कहने का आशय ये है कि राजनीति ने हमारी सोच को इस हद तक जकड़ लिया है कि योग्य से योग्य व्यक्ति तक को  लगने लगा है कि उसकी काबिलियत तब तक बेकार है जब तक उसके पास राजनीति नामक ब्रह्मास्त्र न हो | हालाँकि ये भी उतना ही सही है कि उसमें अच्छे लोगों का आना ही नहीं अपितु बने रहना बेहद जरूरी है | लेकिन कटु सत्य ये है कि जिस तरह खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है उसी तरह खराब लोगों की वजह से अच्छे लोग राजनीति में घुटन महसूस करने लगते हैं | लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि समाज ने राजनीति को ही अपना भाग्य विधाता मान लिया है | यही वजह है कि दूसरों के लिए चुनावी रणनीति बनाने के लिए प्रसिद्ध हुए प्रशांत किशोर ने भी अंततः राजनीतिक दल बनाने का निर्णय कर डाला | कुछ दिन पहले तक उनके कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा जोरों पर थी लेकिन अब अपने गृह राज्य से वे नई पार्टी की शुरुवात करते हुए जल्द ही लोगों के बीच जाकर आगे की रूपरेखा तय करेंगे | वे बिहार तक ही सीमित रहेंगे या राष्ट्रीय स्तर पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराएँगे ये तो आने वाला समय ही बताएगा  | वैसे जहां तक बात आम आदमी पार्टी की है तो वह दिल्ली जैसे महानगर से ऊपर उठी और उसके चुनावी मुद्दे भी नगरीय स्तर के ही थे | आज भी उसका चिंतन मुफ्त बिजली – पानी जैसे मुद्दों में ही उलझा हुआ है |  पंजाब में मिली सफलता के पीछे भी मुफ्त संस्कृति का ही योगदान है | ऐसे में प्रशांत किस बात को लेकर जनता के बीच जायेंगे ये बड़ा सवाल है क्योंकि  दूसरों को चुनाव जीतने के गुर सिखाना अलग बात है और खुद मैदान फतह करना अलग | श्री किशोर के मन में ये पीड़ा हो सकती है कि उनका सहारा लेकर सत्ता तक पहुँचे नेता भी  उन्हीं  घिसे - पिटे तरीकों से काम कर रहे हैं जिनके विरुद्ध उन्हें जनादेश प्राप्त हुआ | लेकिन इसमें उनका दोष भी कम नहीं हैं क्योंकि वे राजनीतिक नेताओं को सत्ता में आने के तौर - तरीके तो सिखाते रहे लेकिन आदर्शवादी शासन व्यवस्था कायम करने के बारे में कोई सीख  किसी को दी हो ये शायद ही किसी ने सुना होगा | वरना वे बिहार में नीतिश के साथ लालू के गठबंधन को विजयी बनाने में सहायक न बनते | यही बात प. बंगाल के बारे में कही जा सकती है | और फिर ममता को प्रधानमंत्री बनवाने की मुहिम को बीच में छोड़कर वे कांग्रेस के पुनरुद्धार में क्यों लग गये इसका भी संतोषजनक जवाब उनके पास नहीं होगा | 2014 में नरेंद्र मोदी की चुनावी रणनीति बनाने के बाद से वे प्रकाश में आये और फिर  अनेक पार्टियों ने उनकी  सेवाएं लीं | उन सभी के साथ उन्होंने जुड़ने का प्रयास भी किया परन्तु ज्यादा देर तक  टिके नहीं और अंततः अपनी पार्टी बनाकर उन  महत्वाकांक्षाओं को जमीन पर उतारने का मन बना बैठे जिससे वे अब तक इंकार किया करते थे | लेकिन उन जैसे तीक्ष्ण बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति को ये बात क्यों नहीं समझ में आ रही  कि जिस तरह उन्होंने कहा था कि कांग्रेस को नए नेता की नहीं अपितु बड़े बदलाव की जरूरत है , उसी तरह देश को नए राजनीतिक दल की बजाय एक बड़े सामाजिक आन्दोलन की आवश्यकता है , जो राजसत्ता पर अंकुश का काम कर सके |  आजादी के बाद महात्मा गांधी भी इसी भूमिका में आना चाहते थे किन्तु जल्दी ही उनका अवसान हो गया | लम्बे अन्तराल के बाद जयप्रकाश नारायण सम्पूर्ण क्रांति के नारे के साथ मैदान  में उतरे परन्तु उनकी मुहिम भी सत्ता परिवर्तन के साथ दम तोड़ बैठी और ऐसा ही कुछ हुआ अन्ना हजारे के आन्दोलन के साथ जिसके कन्धों पर चढ़कर केजरीवाल एंड कम्पनी ने सत्ता हथिया ली लेकिन उनको दूर धकेल दिया | मौजूदा व्यवस्था के प्रति प्रशांत की निराशा समझ में आती है किन्तु वे अपनी प्रतिभा और क्षमता का उपयोग राजनीति के दलदल में उतरकर करेंगे तो उसमें फंसकर रह जायेंगे | बेहतर हो अपने अध्ययन और अनुभव के आधार पर वे  एक गैर   राजनीतिक मंच तैयार करें जो सत्ता पर दबाव बनाने में सक्षम हो | समाज में आज भी ऐसा एक तबका है जो पद , प्रतिष्ठा और पैसे की भूख  से निर्लिप्त रहकर देश की भलाई के लिए कुछ करना चाहता है लेकिन उचित  मंच न मिलने से वह बुद्धिविलास तक सीमित है | प्रशांत को चाहिए ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ें जो सत्ता के आकर्षण से मुक्त हैं  | यदि वे ऐसा करते हैं तब उनकी आवाज देश भर में फैलते देर नहीं  लगेगी | उनको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि नई पार्टी बनाने के बाद सामाजिक परिवर्तन  के लिए उनको चुनाव लड़ना ही नहीं अपितु जीतना भी पड़ेगा और उसके लिए किये जाने वाले धतकरमों से वे बखूबी परिचित हैं |  इसलिए बेहतर तो यही होगा वे एक सामाजिक आन्दोलन का सूत्रपात करें जिसकी वर्तमान हालात में सख्त जरूरत है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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