Tuesday 21 June 2022

राष्ट्रपति चुनाव : विपक्ष इतना दयनीय पहले कभी नहीं रहा



राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी एकता का प्रयास दरअसल अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा विरोधी गठबंधन की बुनियाद को मजबूती प्रदान करने की दिशा में बढ़ाया गया कदम था | इसकी शुरुवात प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी द्वारा गत 15 जून को दिल्ली में बुलाई गई विपक्षी दलों की बैठक से की गई थी | हालाँकि उसके पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव ने भी दिल्ली में गैर भाजपा दलों के नेताओं से बात कर विपक्षी एकता का पांसा चला था | लेकिन राष्ट्रपति चुनाव संबंधी पहल ममता द्वारा ही की गयी | उस बैठक में कुछ भी ठोस निकलकर सामने नहीं आया क्योंकि अनेक विपक्षी दल उससे दूर ही रहे | वामपंथी दलों को तो बैठक बुलाने के तरीके पर ही आपत्ति थी | लेकिन उसे बिना किसी फैसले के खत्म होने की तोहमत से बचाने के लिए सुश्री बैनर्जी ने गोपाल कृष्ण गांधी और डा. फारुख अब्दुल्ला का नाम उछालकर औपचारिकता पूरी कर दी | उल्लेखनीय है शरद पवार बैठक के पूर्व ही राष्ट्रपति चुनाव लड़ने से इंकार कर चुके थे | उधर  भाजपा ने भी इस दौरान आम सहमति बनाने के लिए सभी दलों से संपर्क साधने के लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को  तैनात किया किन्तु अधिकतर ने यही कहा कि पहले भाजपा अपना उम्मीदवार बताये उसके बाद वे अपनी मंशा व्यक्त करेंगे | लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि विपक्ष अपना प्रत्याशी तय करने में सफल नहीं हो रहा | इसी बीच श्री पवार ने भी एक बैठक बुलाई किन्तु ममता उसमें शामिल नहीं हुईं जिससे विरोधी दलों के बीच आपसी सामंजस्य का अभाव सामने आ गया  | और उसी के बाद गत दिवस गोपाल कृष्ण गांधी और डा. अब्दुल्ला ने भी मैदान में उतरने से इंकार कर दिया | स्मरणीय है श्री गांधी पिछले चुनाव में भी विपक्ष के संयुक्त प्रत्याशी थे किन्तु भाजपा ने रामनाथ कोविंद को उतारकर जो दलित कार्ड चला उसने विपक्ष के समीकरण बिगाड़ दिए | हालाँकि एनडीए के पास इस बार कुछ मत कम पड़ रहे हैं लेकिन उसका आत्मविश्वास ये दर्शा रहा है कि उसने लगभग 2 प्रतिशत मतों के उस टोटे को बीजू जनता दल और वाई.एस.आर कांग्रेस की मदद से ही पूरा कर लिया है | बावजूद उसके भाजपा विपक्षी दलों से सम्पर्क कर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है | उसे पता है विपक्ष इस चुनाव में अपना प्रत्याशी जितवा नहीं सकेगा लेकिन चुनाव सर्वसम्मति से हो जाये तो भी जनता के बीच ये संदेश जायेगा कि विपक्ष में लड़ने का मनोबल नहीं बचा | बहरहाल श्री गांधी और डा. अब्दुल्ला द्वारा इंकार कर दिए जाने के बाद अब  विपक्ष  के पास कोई  ऐसा चेहरा नहीं है जिसे आगे करके वह भाजपा पर दबाव बना सके | यद्यपि  एक ज़माने में कांग्रेस के  मुकाबले विपक्ष के काफी कमजोर होने से राष्ट्रपति चुनाव इकतरफा हुआ करता था | केवल  1969 छोड़कर जब स्व. इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी के विरुद्ध तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी गिरि को उतारकर आत्मा की आवाज पर मतदान का आहवान करते हुए कांग्रेस के विभाजन का रास्ता साफ़ कर दिया | वामपंथी दलों ने इंदिरा जी का साथ दिया और कशमकश भरे चुनाव में श्री गिरि ने दूसरी वरीयता के मतों में 15 हजार की बढ़त लेकर भारतीय राजनीति में इंदिरा युग की शुरुवात कर दी | हालाँकि राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला आगे भी होता रहा लेकिन वैसा रोमांच दोबारा देखने नहीं मिला | विपक्ष ने अनेक मर्तबा मुकाबले की औपचारिकता भी निभाई | क्षेत्रीयता के नाम पर उसमें  बिखराव भी हुआ | मसलन श्रीमती प्रतिभा पाटिल को शिवसेना ने मराठी भाषी होने के नाते समर्थन दिया | प्रणब मुख़र्जी भी शिवसेना का समर्थन हासिल करने में सफल रहे जिसमें अंबानी परिवार की भूमिका बताई जाती है | लेकिन कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी आज इस स्थिति में नहीं है कि राष्ट्रपति चुनाव में अपनी ओर से एक प्रत्याशी का नाम तक विपक्ष को सुझा सके | क्षेत्रीय दलों के सामने वह किस कदर दबी – दबी नजर आने लगी है उसका ताजा प्रमाण यह चुनाव है जिसमें देश की सबसे पुरानी पार्टी की कोई भूमिका नजर नहीं आ रही | शेष  विपक्ष के बिखराव का कारण भी कांग्रेस की उदासीनता ही है | श्री पवार द्वारा आहूत बैठक से सुश्री बैनर्जी का किनारा कर लेना विपक्ष के बीच विश्वास की कमी के साथ ही अहं की लड़ाई का संकेत है | राष्ट्रपति चुनाव सही मायनों में लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा  को घेरने का सबसे अच्छा अवसर हो सकता है | लेकिन लगता है कांग्रेस की तरह से ही शेष विपक्ष भी नीतिगत भटकाव का शिकार होकर निर्णय क्षमता गँवा बैठा है | यही वजह है कि बजाय सत्ता पक्ष को चुनौती देने के वह आपसी खींचतान से ही नहीं उबर पा रहा | नामांकन की तिथि करीब है किन्तु अभी तक विपक्ष की  रणनीति समझ से परे है  | ये जानते हुए भी कि एनडीए के पास निर्वाचक मंडल के केवल 48 फीसदी मत ही हैं उसकी तरफ से मुकाबले की  तैयारी नजर ही नहीं आ रही | वैसे कांग्रेस को चाहिए वह अपनी ओर से पहल करते हुए किसी ऐसे  प्रत्याशी का नाम पेश करे जिसे देखकर एनडीए भी पशोपेश  में पड़ जाए | लेकिन उसका पूरा ध्यान तो गाँधी परिवार को नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी से बचाने में लगा हुआ है | शेष विपक्ष भी उसकी इस कमजोरी को भांपकर उसे भाव न देने की नीति अपना चुका है | केंद्र में पहले भी भारी बहुमत वाली सरकार रही है | लेकिन संसद में कम संख्या के बावजूद विपक्ष कभी भी इतना दिशाहीन और अनिर्णय का शिकार नहीं दिखा | और इसका प्रमुख कारण राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का लगातर पराभव और क्षेत्रीय दलों का उभरना है जो उसके उभार को अपने लिए खतरा मानकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिए कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को मूर्त रूप देने में परोक्ष रूप से सहयोग दे रहे हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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