देश की राजधानी दिल्ली में बीते तीन-चार दिनों में जो कुछ भी घटित हुआ उसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए ये बड़ा ही जटिल प्रश्न है। इसके लिए जरुरी है पूरे घटनाक्रम पर नजर डाली जाए । सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के विरोध को लेकर शुरू हुआ आन्दोलन जिस मुकाम पर जा पहुंचा था उसकी परिणति यही होना थी। दिल्ली पुलिस , प्रशासन , केंद्र सरकार और चंद नेताओं पर लग रहे आरोपों के बीच इस बात पर ध्यान देना भी जरूरी है कि जामिया मिलिया और उसके बाद शाहीन बाग़ में जिस तरह से उक्त कानून के विरोध में कानून हाथ में लिया गया उससे ये संकेत गया कि अल्पसंख्यकों के नाम पर समूची व्यवस्था को चुनौती देने की हिमाकत की जा सकती है। इस बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि जामिया मिलिया में दिल्ली पुलिस द्वारा की गई कार्रवाईको लेकर जिस प्रकार आलोचनाओं के पहाड़ खड़े किये गये उससे उसका मनोबल कमजोर हुआ जिसकी वजह से शाहीन बाग़ में सड़क पर दिए गये धरने को हटवाने के बारे में कड़ा कदम उठाने से वह हिचकती रही। वरना पहले दिन ही शाहीन बाग़ में शुरू हुआ धरना हटवा दिया जाता और दिल्ली का वातावरण इस कदर नहीं बिगड़ता। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय दोनों ने ही नेताओं के बयानों के अलावा पुलिस के गैरपेशेवर रवैये पर तीखी टिप्पणियाँ कीं। उनके बाद से राजनीति और तेज हो गयी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने केंद्र सरकार पर सवालों की झड़ी लगाते हुए गृह मंत्री अमित शाह से इस्तीफा माँगा। लेकिन उच्च न्यायालय की उस टिप्पणी पर कुछ नहीं कहा कि बड़े ओहदों पर बैठे जेड सुरक्षा प्राप्त नेतागण उपद्रव से प्रभावित क्षेत्रों में जाकर लोगों में विश्वास जगाएं। उल्लेखनीय है पूरा गांधी परिवार इस इस श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त है। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तो ऐसे अवसरों पर वैसे भी सामान्य है। लेकिन तीखी टिप्पणियों के जरिये अपना रुतबा कायम करने वाली न्यायपालिका को भी क्या आत्मावलोकन नहीं करना चाहिए ? शाहीन बाग़ के धरने के विरुद्ध प्रस्तुत याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय को साफ-साफ कहना था कि सड़क घेरकर यातायात अवरुद्ध करना गैर कानूनी है और पुलिस तथा प्रशासन तुरंत धरने को हटवाकर यातायात शुरू करवाएं। लेकिन जनहित के इतने महत्वपूर्ण मसले पर भी नोटिस और पेशियों का चिर-परिचित सिलसिला शुरू हुआ। और काफी समय गंवाने के बाद सड़क पर प्रदर्शन को गलत मानते हुए भी मध्यस्थों को भेजकर आन्दोलनकारियों के भाव बढ़ा दिए गए। उनसे किसी और स्थान पर जाकर आन्दोलन करने की मनुहार की जाती रही लेकिन वार्ताकारों को खरी-खोटी सुनाकर चलता किया गया। उन्होंने जो रिपोर्ट न्यायालय में पेश की उसे भी गोपनीय रखा गया जबकि उसे सार्वजानिक किये जाने से आन्दोलन की असलियत सामने आ जाती। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय में शाहीन बाग़ प्रकरण की सुनवाई पर पूरे देश की नजरें थीं। लेकिन उसने दिल्ली के ताजा हालात के मद्देनजर ये टिप्पणी करते हुए कि सड़कें प्रदर्शन के लिये नहीं होतीं और दिल्ली पुलिस पेशेवर नहीं है, सुनवाई होली के बाद तक टाल दी। उधर दिल्ली के उच्च न्यायालय ने भी एक लाइन से नेताओं , पुलिस, सरकार सभी को फटकारा लेकिन वहां से भी ऐसा आदेश जारी नहीं हुआ जिससे ये साफ़ होता कि न्यायपालिका चाहती क्या है? उसका ये कहना एकदम सही है कि पुलिस पेशेवर नहीं है। लेकिन क्या यही बात हमारी न्याय व्यवस्था पर भी लागू नहीं होती? विदेशों में पुलिस की निर्णय क्षमता का हवाला भी माननीय न्यायाधीशों द्वारा दिया गया किन्तु उन्हें ये भी तो सोचना चाहिए था कि शाहीन बाग़ का धरना खत्म करवाने में पुलिस क्यों आगे नहीं बढ़ी? जामिया मिलिया में उपद्रवियों पर की गई पुलिस कार्रवाई को लेकर जिस तरह का प्रलाप किया गया उसके बाद पुलिस भी ठंडी पड़ी। शाहीन बाग़ के आन्दोलन को मिले समर्थन के बाद दिल्ली के जाफराबाद में भी अचानक सड़क घेरने का दुस्साहस किया गया। यहाँ तक कि मेट्रो स्टेशन तक पर कब्ज़ा कर लिया गया। ये तब हुआ जब शाहीन बाग़ में वार्ताकार सड़क पर बैठी मुस्लिम महिलाओं से दूसरी जगह जाने का अनुनय-विनय कर रहे थे। फसाद जाफराबाद के धरने के बाद से ही शुरू हुए। शाहीन बाग़ का धरना लंबा खींचने के बाद जाफराबाद में भी सड़क पर कब्जे के स्थायी होने के अंदेशे में जब उसका विरोध हुआ तब आन्दोलनकारियों ने हिंसा का सहारा लेकर जो उग्र रूप दिखाया उसकी चिंगारी ही दूसरे क्षेत्रों में भड़की। जो कुछ भी हुआ या हो रहा है वह किसी भी दृष्टि से न तो स्वीकार्य है और न ही किसी के हित में है। लेकिन ऐसे मामलों में न्यायपालिका को भी अपनी भूमिका स्पष्ट करनी चाहिए। यदि शाहीन बाग़ से धरना उठवाना उसका काम नहीं है तब उसे संबंधित याचिकाओं की सुनवाई भी नहीं करनी चाहिए थी। और यदि उन्हें विचारयोग्य समझा तो फिर मामले की नजाकत समझते हुए ऐसा निर्णय करना था जिससे समस्या का त्वरित हल हो पाता। महिलाओं के धरने पर बल प्रयोग की सलाह कोई भी समझदार नहीं देगा। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय सड़क घेरने को गैर कानूनी करार देता तब अन्दोलनकारियों का मनोबल टूटता और वे भी दूसरा स्थान तलाशते। लेकिन न्यायपलिका ने सांकेतिक शब्दों में धरने को गलत बताते हुई वार्ताकार भेजकर सड़क घेरकर बैठी महिलाओं को वीवीआईपी होने का एहसास करवा दिया। दिल्ली के समूचे घटनाक्रम का वस्तुवादी विश्लेषण होना जरूरी है। अमेरिका के राष्ट्रपति के आगमन के समय हुए फसाद के पीछे कोई षड्यंत्र था या नहीं ये भी विचारणीय है। सोनिया जी ने अमित शाह और केंद्र सरकार पर आरोप के साथं ही अरविंद केजरीवाल पर भी निशाना साधा है। आईबी के एक कर्मी की हत्या के लिए आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन पर आरोप लग रहे हैं। कल श्री केजरीवाल ने उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों का दौरा भी किया। वे इसके पहले शाहीन बाग़ की सड़क खुलवाने क्यों नहीं गये ये भी बड़ा सवाल है। केंद्र का गृह विभाग और उसके मातहत दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी से कोई इनकार नहीं करेगा लेकिन ये भी स्वीकार करना चाहिए कि शाहीन बाग़ को दी गई शह ने जाफराबाद पैदा किया जिसकी वजह से दिल्ली जल उठी। अच्छा होगा न्यायपालिका समझाइश देने के साथ ही सही-गलत का फैसला करने में समय न गंवाए जिससे समस्या का इलाज वक्त रहते किया जा सके।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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