Saturday 29 February 2020

कन्हैया : चार साल में आरोप पत्र तो सजा कितने साल में



9 फरवरी 2016 अर्थात चार साल से भी ज्यादा पहले दिल्ली के जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाये जाने की घटना हुई थी। उसमें तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार सहित अनेक लोगों पर देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ था। कुछ समय तक वे सभी जेल में भी रहे। प्रकरण की जाँच के बाद पुलिस ने दिल्ली सरकार से अदालत में आरोप पत्र पेश करने की अनुमति माँगी लेकिन केजरीवाल सरकार उसे दबाकर बैठी रही। इससे उसके ऊपर आरोप लगते रहे कि वह देशद्रोह के आरोपियों को बचा रही है। उक्त प्रकरण में आरोपित बाकी लोगों के बारे में तो जनसाधारण को ज्यादा पता नहीं है लेकिन कन्हैया डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के बाद राजनीति में उतर आया और अपने वामपंथी रुझान के अनुरूप विधिवत सीपीआई में शामिल होकर बिहार की बेगुसराय सीट से लोकसभा चुनाव लड़ बैठा और बुरी तरह से हारा। लेकिन बीते कुछ समय से वह बिहार में घूम-घूमकर आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अभियान चला रहा है। राजनीति के अनेक जानकार उसे महत्व भी दे रहे हैं। गत दिवस अचानक खबर आई कि दिल्ली सरकार ने कन्हैया और उसके साथ के सभी आरोपियों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति पुलिस को दे दी है। इस पर कन्हैया ने व्यंग्यपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए केजरीवाल सरकार को बधाई दी और लगे हाथ ये मांग भी कर दी कि प्रकरण फास्ट ट्रैक अदालत में भेजा जाये जिससे जल्द फैसला हो सके। इस बारे में ज्ञात हुआ है कि दिल्ली सरकार ने 400 दिन अनुमति देने  में लगाये। वह भी तब जब सम्बन्धित अदालत ने इस बारे में दबाव बनाया। किसी भी अपराधिक प्रकरण में जब तक आरोप पत्र दाखिल न हो तब तक मुकदमा आगे नहीं बढ़ता। ये मामला चार साल पहले का है। अव्वल तो पुलिस ने जांच में भरपूर समय लगाया और फिर बची-खुची कसर पूरी कर दी केजरीवाल सरकार ने। अनुमति मिल जाने के बाद अब पुलिस आरोप पत्र अदालत में दाखिल करेगी जहां पेशी दर पेशी सुनवाई टलती रहेगी। निचली अदालत से होते हुए सर्वोच्च न्ययालय तक का सफर पूरा होते-होते कितना समय लगेगा ये बड़े-बड़े भविष्यवक्ता भी नहीं बता सकते। सवाल ये है कि तेज फैसले करने के लिए मशहूर केजरीवाल सरकार ने इतने चर्चित और संवेदनशील मामले में अनुमति देनी में 400 दिन क्यों लगाये ? मामला छात्र आन्दोलन के दौरान होने वाले सामान्य झगड़ों से जुड़ा होता तब इस विलम्ब पर ध्यान नहीं जाता किन्तु देशद्रोह जैसी संगीन धाराओं में दर्ज मुकदमे में आरोप पत्र दाखिल करने में की गई देरी चौंकाने वाली है। कन्हैया एक चर्चित शख्सियत बन चुका है। हालाँकि उसके राजनीतिक भविष्य को लेकर कुछ कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि वह जिस सीपीआई से जुड़ा हुआ है वह अस्तित्वहीन होने की कगार पर है। दूसरी बात ये है कि बिहार में नीतीश सरकार के विरोधी दल उसे कितना भाव देंगे ये स्पष्ट नहीं है। लेकिन इन सबका देशद्रोह के प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है। राजनीति में उतरने के कारण कन्हैया को प्रताडि़त किया जाए ये अनुचित है। उसी तरह नेतागिरी में आने के बाद उसके अपराध को नजरंदाज किया जाना भी गलत है। कानून के सामने सभी बराबर होते हैं और कन्हैया भी अपवाद नहीं है। यही वजह है कि घटना के चार साल बाद जब गत दिवस उस पर आरोप पत्र पेश किये जाने की अनुमति दिल्ली सरकार से पुलिस को मिली और वह भी 400 दिन तक दबाए रखने के बाद तो कन्हैया और उसके साथ के बाकी आरोपी ही नहीं हर समझदार व्यक्ति को आश्चर्य के साथ गुस्सा भी आया। हमारे देश की न्याय व्यवस्था कितनी धीमी रफ्तार से चलती है उसका प्रमाण निर्भया प्रकरण के दोषियों की फांसी में हो रहे विलम्ब से मिल चुका है। दिल्ली के शाहीन बाग़ धरने को लेकर भी न्यायपालिका ने जिस तरह का टरकाऊ रवैया दिखाया वह भी शोचनीय है। लेकिन देशद्रोह के आरोपियों को सालों तक छुट्टा घूमने दिया जाए तो इससे कानून का मजाक उड़ता है। कन्हैया पर अब मुकदमे की शुरुवात होगी। गवाहों के बयान और उनका प्रति-परीक्षण चलेगा। इस सब में कितना समय लगेगा ये कोई नहीं बता सकता। अंतिम फैसला आते-आते कन्हैया युवा से प्रौढ़ हो चुका होगा। देश की राजनीति में भी न जाने कितना बदलाव आ जायेगा। लेकिन उससे भी बड़ी बात ये होगी कि लोगों की स्मृति से समूचा प्रकरण लुप्त होकर रह जाएगा। इस मामले में दिल्ली सरकार की मंशा सवालों के घेरे में आ गई है। इसके पीछे कारण राजनीतिक संरक्षण हैं या प्रतिशोध ये साफ होना चाहिए। जेएनयू को लेकर जितने भी विवाद हुए उनमें अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ने दूर से देखने की नीति अपनाई। कन्हैया एंड कम्पनी चूँकि मोदी सरकार को पानी पी-पीकर कोसती है इसलिए वह आम आदमी पार्टी को अच्छी लगती रही लेकिन कथित देश विरोधी गतिविधियों के कारण वह अपना दामन बचाने के लिए उससे दूरी भी बनाये रही। देशद्रोह के आरोप पत्र की अनुमति में विलम्ब के पीछे केजरीवाल सरकार की राजनीतिक सोच थी या फिर सामान्य प्रशासनिक आलस्य ये स्पष्ट होना चाहिए। लेकिन इतने चर्चित और संवेदनशील मामले के चार साल बाद भी आरोप पत्र दाखिल न हो पाना शर्म और चिंता दोनों का विषय है। कन्हैया कसूरवार है या नहीं ये तो अदालत तय करेंगी किन्तु न्याय में जितनी देरी होगी उतनी ही उसे सहानुभूति मिलती रहेगी। देशद्रोह के मामले में जब ये हाल है तब बाकी का क्या होता होगा इसका अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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