Wednesday 12 February 2020

प्रशंसा और बधाई के हकदार हैं केजरीवाल



दिल्ली विधानसभा चुनाव में जैसा अनुमानित था वैसा ही हुआ। इस चुनाव से रहीम की लिखी ये बात एक बार सही साबित हो गई कि जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवार ? अर्थात एक महानगरीय राज्य में स्थानीय मुद्दों पर पिछली सरकार का वायदों पर खरा उतरना ज्यादा कारगर सिद्ध हुआ। भाजपा को लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम और काम का जो लाभ मिला ठीक वही फायदा अरविन्द केजरीवाल के खाते में आकर जुड़ा। मोदी के विरूद्ध जिस तरह विपक्ष ने खूब हायतौबा मचाया वैसा ही केजरीवाल के साथ हुआ। लोकसभा में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अपनी उपलब्धियों के नाम पर संसद की सीटें मांगीं लेकिन दिल्ली की जनता ने उसे तीसरे नम्बर पर धकेल दिया। लेकिन मात्र आठ महीने बाद ही उसी आम आदमी पार्टी को फिर सिर आँखों पर बिठा लिया और सातों लोकसभा सीटें जीत चुकी भाजपा को 8 सीटों पर समेट दिया। इस चुनाव परिणाम के दो संकेत हैं। पहला ये कि भाजपा को प्रादेशिक स्तर पर गंभीर किस्म के सक्षम नेतृत्व को आगे लाना होगा और वहीं आम आदमी पार्टी के लिए भी ये संदेश है कि अपनी सीमा से बाहर निकलकर हाथ पाँव मारने से बचें क्योंकि राष्ट्रीय स्तर तो बड़ी बात है किसी पड़ोसी राज्य में भी आम आदमी पार्टी को दिल्ली जैसी सफलता मिलना जागती आँखों से सपने देखने जैसा होगा। आम आदमी पार्टी में जाने के बाद लौटकर दोबारा पत्रकार बने आशुतोष की ये बात काबिले गौर है कि किसी और को ये अहंकार न रहे कि दिल्ली की जीत में उसका हाथ है क्योंकि ये केवल और केवल श्री केजरीवाल के करिश्मे और विश्वसनीयता की जीत है। जहां तक बात उनके राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभरने की है तो ये काफी मुश्किल है क्योंकि आम आदमी पार्टी एक क्षेत्रीय भी नहीं अपितु महानगरीय पार्टी ही है और उसका अस्तित्व भी तभी तक है जब तक वह दिल्ली में केन्द्रित रहेगी। भारतीय राजनीति की तासीर ये रही है कि क्षेत्रीय या स्थानीय पार्टी के नेता ने जब भी राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की कोशिश की उसका मूल जनाधार कमजोर होता गया। तमिलनाडु सहित दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों ने इस फार्मूले को अपनाते हुए  अपने प्रभावक्षेत्र को समझकर उससे बाहर निकलने का दुस्साहस नहीं किया जिसकी वजह से वे अनेक दशकों से अपनी ताकत संजोकर रख सकीं। वैसे दिल्ली के चुनाव में भाजपा ने एक तरह से अपनी वापिसी कर ली वरना ये आशंका भी थी कि कहीं केजरीवाल नामक करिश्मे में उसकी हालत भी कांग्रेस जैसी होकर न रह जाए। आम आदमी पार्टी आन्दोलन से निकली पार्टी और अरविन्द केजरीवाल ही उसके चेहरे हैं। उन्हें मालूम है कि आन्दोलन के साथियों को बराबरी से बिठाने पर उनकी महत्वाकांक्षाएं परवान चढऩे लगती हैं। और वे अपनी कीमत मांगने लगते हैं। इसीलिए 2015 की ऐतिहासिक जीत के बाद उन्होंने बड़ी ही चतुराई से पार्टी खड़ी करने के लिए एक करोड़ का का चन्दा देने वाले शांति भूषण के अलावा प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास और प्रोफे. अरुण कुमार जैसे नींव के पत्थरों को निकाल बाहर किया। योगेंद्र यादव के साथ तो धक्का मुक्की तक की गई। इस चुनाव में उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया का मतगणना में काफी देर तक पीछे बने रहना भी एक संकेत है कि दूसरे स्थान वाला अपने को पहले के लायक समझने की भूल न करे। चुनाव नतीजों को भाजपा और उसके द्वारा उठाये जा रहे राष्ट्रीय मुद्दों और हिन्दू मतों के धु्रवीकरण की पराजय मानने वाले दरअसल सतही आकलन करने की गलती कर रहे हैं। इस परिणाम को शाहीन बाग की जीत बताने वालों की राजनीतिक समझ पर भी हंसी आती है। एक राष्ट्रीय पार्टी किसी चुनाव में अपनी हैसियत के लिहाज से बात करे तो उसमें गलत क्या है ? कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दिल्ली की अपनी रैलियों में नरेंद्र मोदी की नीतियों की आलोचना की क्योंकि वे भी एक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय नेता हैं। उन्होंने भी श्री केजरीवाल पर झूठे वायदे करने का आरोप लगाया। ये बात अलहदा है कि आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को इस लायक भी नहीं समझा कि उस पर कोई टिप्पणी की जाए। चुनावी नतीजे भाजपा के लिए तो निश्चित तौर पर विचारणीय हैं क्योंकि बीती मई में आम आदमी पार्टी को चारों खाने चित्त करने के बाद वह उस जन समर्थन को अपने साथ जोड़कर नहीं रख सकी। इसके लिए नेता का चेहरा न होना कारण बना या कमजोर संगठन ये जाँच का विषय हैं लेकिन कांग्रेस के लिए ये चिंता का विषय है जो 1998 से 2013 तक दिल्ली की सत्ता में रहने के बाद 2014 और 2019 के लोकसभा के अलावा 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में शून्य से आगे नहीं बढ़ सकी। यदि उसे इस बात की खुशी है कि भाजपा 1998 से लगातार पांच विधानसभा चुनाव हार गई तो उसे ये याद रखना चाहिए कि भाजपा ने अपना मत प्रतिशत काफी हद तक सुरक्षित रखा जबकि कांग्रेस तो दयनीयता के स्तर तक आ गई है। जहां तक बात पूरे देश में केजरीवाल फार्मूले को अपनाकर चुनाव जीतने की है तो ये गलतफहमी होगी। हर राज्य की अपनी प्राथमिकतायें, आवश्यकताएं और भौगोलिक परिस्थितियाँ अलग हैं। दिल्ली में बीते पांच साल तक आम आदमी पार्टी सरकार ने बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर जो भी उल्लेखनीय कार्य किये उन्हें उसी तेजी से जारी रखना कठिन होगा। छत्तीसगढ़ और मप्र में तमाम कल्याणकारी योजनायें चलाने के बाद अंतत: भाजपा के हाथ से सत्ता खिसक ही गई। आम आदमी पार्टी सरकार के सामने असली चुनौती नए कार्यकाल में होगी। जनता की उम्मीदों को आसमान पर चढ़ाकर हमेशा के लिए राज नहीं किया जा सकता। शीला दीक्षित ने 15 साल के शासन में दिल्ली में जो विकास किया वह अभूतपूर्व था किन्तु आखिरकार वे खुद चुनाव हार गईं। दिल्ली के मुद्दे पूरी तरह से स्थानीय और नगरीय निकाय के स्तर के थे। चूंकि उनसे गरीब और निम्न आय वर्ग के लोगों को लाभ हुआ इस कारण आम आदमी पार्टी की वापिसी का रास्ता खुल गया। अब दूसरी पारी में केजरीवाल सरकार क्या करेगी इस पर उसका भविष्य निर्भर करेगा। जहां तक बात भाजपा की है तो ये नतीजे उसके लिए धक्का हैं क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार ने जिस प्रभावशाली तरीके से अपने घोषणापत्र के मुख्य वायदों को अमली जामा पहिनाया उसके बाद भी राज्यों के चुनाव में पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन शोचनीय है। इसकी वजह प्रादेशिक नेतृत्व को कमजोर करने की कोशिश है या प्रदेश स्तर के नेताओं का केन्द्रीय नेतृत्व पर पूरी तरह आश्रित हो जाना , इसका विश्लेषण होना जरूरी है। अरविन्द केजरीवाल ने लगातार दो बार अपना करिश्मा दिखा दिया लेकिन ऐसा करने वाले वे पहले नेता नहीं हैं। तमिलनाडु, आन्ध्र, तेलंगाना, उड़ीसा, बिहार, उप्र आदि में अनेक क्षेत्रीय नेता ऐसी ही सफलता अर्जित कर राष्ट्रीय पार्टियों को जमीन दिखा चुके हैं। केजरीवाल फिलहाल तो सुपर हीरो की तरह उभरे हैं। दो बार नरेंद्र मोदी के सामने जीतना बड़ी बात है। उनकी अपनी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है जो उनका सबसे मजबूत पक्ष है। जिसके कारण उन्हें सभी दलों के समर्थकों का समर्थन मिला लेकिन कालान्तर में यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बनेगी क्योंकि वे दिल्ली में किसी और को नहीं घुसने देना चाहेंगे और इसी तरह दूसरे नेता उनकी पार्टी को अपने इलाके में बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे। बावजूद इसके फिलहाल वे भाजपा विरोधी राजनीति के एक बड़े चेहरे बनकर उभरे हैं। राष्ट्रीय राजधानी में होने की वजह से उन्हें समाचार माध्यमों के जरिये काफी प्रचार भी मिल जाता है वरना उड़ीसा जैसे राज्य में तो नवीन पटनायक लगातार पांचवी बार मुख्यमंत्री बने लेकिन उनको समाचारों में उतना महत्व नहीं मिलता। इस चुनावी सफलता के लिए श्री केजरीवाल निश्चित रूप से प्रशंसा और बधाई के हकदार हैं क्योंकि उन्होंने अर्जुन की तरह केवल अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित रखा।
-रवीन्द्र वाजपेयी


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