Tuesday 11 February 2020

यदि शाहीन बाग वीआईपी इलाके में होता तब ....??




दिल्ली का शाहीन बाग़ इलाका इसके पहले कभी इतना चर्चित नहीं हुआ। बीते डेढ़ महीने से वहां मुस्लिम महिलाएं बीच सड़क पर बाल-बच्चों सहित धरना दिये बैठी हैं। उसके कारण यातायात अवरुद्ध है। हजारों लोगों को रोज लम्बा चक्कर लगाकर अपने गन्तव्य तक पहुंचना पड़ रहा है। इस धरने का कारण सीएए का विरोध है। कुछ दिन पूर्व धरने पर बैठी महिला का चार महीने का शिशु सर्दी की वजह से जान गँवा बैठा। महिला अपने बच्चे के अंतिम संस्कार के बाद दोबारा धरने पर आ बैठी। आन्दोलन के समर्थकों ने उस महिला के जज्बे की तारीफ  की तो विरोधियों ने उसे निर्मोही बताते हुए आलोचना कर डाली। इस घटना से व्यथित एक बालिका ने सर्वोच्च न्यायालय को पत्र भेजकर ये सवाल उठाया कि क्या एक नौनिहाल को भीषण सर्दी में इस तरह आन्दोलन में ले जाना उचित था? इस सवाल का न्यायालय ने भी संज्ञान लिया और गत दिवस चार महीने के बच्चे को आन्दोलन का हिस्सा बनाये जाने पर तीखे सवाल दागे। शाहीन बाग़ में सड़क रोककर बैठे रहने पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा कि आखिर कितने दिनों तक आप लोगों को परेशान कर सकते हैं? धरना देने के लिए आम सड़क और सार्वजनिक पार्क  आदि के उपयोग पर भी अदालत ने ऐतराज जताया और पहले से पेश की गई एक याचिका पर दिल्ली और केंद्र दोनों सरकारों को नोटिस जारी करते हुए 17 फरवरी को सुनवाई रखी गई। शाहीन बाग़ का धरना दिल्ली विधानसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा बना रहा। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने जहां मुस्लिम मतों के लालच में धरने का समर्थन किया वहीं भाजपा ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए हिन्दू मतों को अपने पाले में खींचने की रणनीति पर काम किया। ये सवाल भी बार-बार उठा कि हजारों लोगों की परेशानी के सबब बने इस धरने को हटाने के लिए दिल्ली की पुलिस और प्रशासन ने कोई कदम क्यों नहीं उठाया? उल्लेखनीय है पुलिस केंद्र सरकार के अधीन होने से दिल्ली की सरकार ने इस मामले से अपना पल्ला झाड़ लिया। ये आरोप भी लगा कि भाजपा जानबूझकर शाहीन बाग़ के धरने को खत्म नहीं करवा रही जिससे हिन्दू मतदाता गोलबंद हो सकें। लेकिन राजनीति से अलग हटकर देखें तो क्या इस मामले में न्यायपालिका भी अपनी भूमिका के प्रति उदासीन नहीं रही? दिल्ली देश की राजधानी है जहां न्यायपालिका की सर्वोच्च पीठ भी विराजमान है। शाहीन बाग़ का धरना एक राष्ट्रीय खबर बना रहा। समाचार माध्यमों में इसे लेकर खूब बहस और चर्चा भी हुई। ऐसे में ये आश्चर्य की बात है कि छोटी-छोटी बातों का संज्ञान लेकर शासन और प्रशासन को हड़का देने वाले सर्वोच्च न्यायालय ने भी शाहीन बाग़ मामले में पेश के गई याचिका पर इतनी सुस्ती दिखाई? जो न्यायपालिका किसी आतंकवादी की फांसी रोकने के लिए देर रात बैठकर सुनवाई कर सकती है उसने देश की राजधानी में चल रहे एक ऐसे आन्दोलन को रोकने के लिए अपनी जागरूकता और प्रभाव का उपयोग क्यों नहीं किया जिसकी वजह से दिल्ली के हजारों लोगों को डेढ़ माह से जबर्दस्त परेशानी हो रही है। ये सवाल भी उठ सकता है कि दिल्ली का प्रशासन चला रही केजरीवाल सरकार और पुलिस का नियंत्रण करने वाली केंद्र सरकार ने भी शाहीन बाग़ में सड़क रोककर बैठी मुस्लिम महिलाओं को हटाने के लिए क्या किया? इसका जवाब ये है कि एक तो दिल्ली में चुनाव हो रहे थे और दूसरा धरने पर महिलाएं बैठी थीं जिन पर बल प्रयोग करना राजनीतिक दृष्टि से नुकसानदेह साबित होता। उससे भी बड़ी बात ये थी कि धरना स्थल पर बैठीं महिलाएं मुस्लिम थीं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय तो राजनीतिक हानि लाभ से उपर है। यदि वह शाहीन बाग़ के धरने का संज्ञान लेते हुए जनता को हो रही परेशानी के मद्देनजर दिल्ली और केंद्र दोनों सरकारों को निर्देशित करता तब आन्दोलनकारियों पर भी दबाव पड़ता। इस बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि यदि किसी माननीय न्यायाधीश का उस रास्ते से आना जाने होता और धरने की वजह से उन्हें लंबा चक्कर लगाना पड़ता तब शायद न्यायपालिका स्वत: संज्ञान लेकर अपना असर दिखाती। हालाँकि ये बात सही है कि न्यायपालिका की अपनी सीमायें हैं और शासन-प्रशासन के सामान्य कार्यों में उसकी दखलंदाजी उचित नहीं मानी जाती लेकिन अनेक ऐसे ज्वलंत मामले हैं जहां जनहित को देखते हुए न्यायालय ने पहल करते हुए शासन-प्रशासन को कार्रवाई करने कहा है। विधायिका के अधिकार क्षेत्र तक में उसने दखल देने से परहेज नहीं किया। ऐसे में शाहीन बाग़ में बीच सड़क पर चल रहे धरने को हटवाने में न्यायपालिका की सुस्ती समझ से परे है। शाहीन बाग़ का धरना केवल एक खबर नहीं अपितु एक नजीर बन गया। उसकी देखासीखी सीएए के विरोध में देश के अनेक शहरों में मुस्लिम महिलाओं द्वारा बीच सड़क या अन्य किसी सार्वजनिक स्थल पर धरना शुरू कर दिया गया। जहां-जहां पुलिस और प्रशासन ने रोकने की कोशिश वहां-वहां आन्दोलन के नाम पर हिंसा की गयी। जैसा शुरू में कहा गया चूँकि मामला महिलाओं और वह भी मुस्लिमों का था इसलिए सरकार में बैठे राजनेता तो बचते रहे लेकिन न्यायपालिका को तो खुलकर ऐसे प्रकरणों में अपना मत रखना चाहिए। इस बारे में ये सवाल भी स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या लुटियंस की दिल्ली कहे जाने वाले वीआईपी इलाकों में और सर्वोच्च न्यायालय के करीब शाहीन बाग जैसा नजारा होता तब क्या उसे इतने लम्बे समय तक बर्दाश्त किया जाता?

- रवीन्द्र वाजपेयी

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