Friday 31 January 2020

बजट सत्र : हमेशा की तरह हंगामेदार रहेगा



संसदीय प्रणाली में कुछ परम्पराओं का पालन कर्मकांड की तरह से होता है। उन्हीं में से एक है संसद का सत्र शुरू होने से पहले अध्यक्ष द्वारा सर्वदलीय बैठक बुलाकर सत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए सबसे सहयोग का वायदा ले लेना। इस बैठक में सरकार विपक्ष को अपने मुद्दे उठाने का अवसर देने का आश्वासन देती है तो विपक्ष भी सहयोग का वायदा करता है। इसी कर्मकांड के निर्वहन हेतु गत दिवस लोकसभा अध्यक्ष ने सर्वदलीय बैठक बुलाई जिसमें हमेशा की तरह सत्ता और विपक्ष की तरफ  से संसद की गरिमा बनाए रखने की प्रतिबद्धता दोहराई गई। बजट सत्र होने से  इसका विशेष महत्व है। जैसी संसदीय कार्य मंत्री ने जानकारी दी उसके मुताबिक सरकार 45 नए विधेयक इस दौरान पेश करना चाह रही है। नई लोकसभा बनने के बाद बीते दो सत्रों में सत्ता पक्ष ने जिस तरह की तेजी दिखाई वैसा ही इस बार भी उसका इरादा है वहीं विपक्ष ने कल की बैठक में संकेत कर दिया कि सीएए को लेकर जो उथलपुथल देश भर में है उस पर वह सरकार को घेरने का भरपूर प्रयास करेगा। पिछले सत्र में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित करवाकर सरकार ने विपक्ष को शिकस्त दे दी थी किन्तु उसके क़ानून बन जाने के बाद पहले पूर्वोत्तर राज्यों और उनके बाद देश के अनेक हिस्सों में जिस तरह का संगठित विरोध सामने आया उससे विपक्ष का हौसला मजबूत हुआ है। खास तौर पर दिल्ली के जामिया विवि और जेएनयू में हुई घटनाएं तथा शाहीन बाग़ में चल रहे मुस्लिम महिलाओं के धरने की प्रतिक्रियास्वरूप पूरे देश में जो आन्दोलन हो रहे हैं उसके कारण विपक्ष के पास आक्रामक होने के पर्याप्त मुद्दे होंगे। और फिर बजट तो वैसे भी अपने आप में सबसे बड़ा मुद्दा है। अर्थव्यवस्था की चिंताजानक स्थिति की वजह से यूँ भी सत्ता पक्ष रक्षात्मक ही रहेगा। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में छात्र संगठन सीएए की आड़ में उग्र बने हुए हैं। मुस्लिम समुदाय ने तो इस कानून के विरोध में आसमान सिर पर उठा रखा है। ऐसी स्थिति में सरकार पर लोक-लुभावन बजट पेश करने का दबाव है जो कि आर्थिक स्थिति के मद्देनजर काफी कठिन कार्य है। सरकार की चिंता का एक और कारण आगामी सप्ताह होने जा रहा दिल्ली विधानसभा का चुनाव भी है। कुछ दिन पहले तक जितने भी अनुमान और आकलन आये उनके अनुसार वहां 2015 की ही तरह अरविन्द केजरीवाल की इकतरफा लहर थी लेकिन ताजा संकेतों के मुताबिक शाहीन बाग़ में चल रहे मुस्लिम महिलाओं के धरने की वजह से दिल्ली में मतों का धु्रवीकरण होने की संभावना भी है जिसके कारण भाजपा को लड़ाई में लौटने की उम्मीद नजर आ रही है। दिल्ली में अगर केजरीवाल सरकार पूर्वानुमानों के मुताबिक अच्छे-खासे बहुमत से लौटी तब बजट सत्र के उत्तरार्ध में विपक्ष के पास हमलावर होने का जबर्दस्त अवसर होगा। ये सब देखते हुए ये आशंका गलत नहीं है कि गत दिवस आयोजित सर्वदलीय बैठक में हुईं अच्छी-अच्छी बातें सत्र शुरू होते ही भुला दी जावेंगी। यूँ भी विपक्ष को गत दिवस जामिया मिलिया विवि में गोली चलने की घटना ने जबर्दस्त हथियार दे दिया है। सीएए को लागू नहीं किये जाने की घोषणा अनेक गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों द्वारा किये जाने की वजह से भी सत्ता और विपक्ष के बीच आक्रमण और प्रत्याक्रमण का खेल चलेगा। जम्मू-कश्मीर की ताजा स्थिति पर भी सरकार के ऊपर जवाबदेही का दबाव रहेगा। चूँकि बिहार और बंगाल में विधानसभा चुनाव का माहौल बनने लगा है इसलिए भी विपक्ष सरकार पर हावी होने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगा। ये भी देखने वाली बात होगी कि बीते दो सत्रों में विपक्षी एकता में सेंध लगाने में सफल हुआ सत्ता पक्ष इस सत्र में भी उस सफलता को दोहरा सकेगा या नहीं? खास तौर पर राज्यसभा में उसके लिए बहुमत का इंतजाम बड़ी समस्या हो सकती है। बावजूद इसके सरकार के पक्ष में भी अनेक बातें हैं। मसलन सीएए के विरोध को लेकर विपक्ष में एक राय नहीं है। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस खुलकर इस मुद्दे पर केंद्र से टकराव ले रही है लेकिन वह कांग्रेस और और वामपन्थी दलों द्वारा किये जा रहे आन्दोलन से भी दूरी बनाये हुए है। इसी तरह शिवसेना भी भले ही कांग्रेस और एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार चला रही हैं लेकिन वीर सावरकर के विरुद्ध कांग्रेसी नेताओं द्वारा की गयी बयानबाजी और उसके बाद शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत द्वारा पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी के तस्कर सरगना करीम लाला से मिलने आने का खुलासा किये जाने से भी विपक्षी एकता की कमजोरी उजागर हुई है जिसका लाभ सत्ता पक्ष बेशक उठाएगा। खुदा न खास्ता दिल्ली के चुनाव में भाजपा ने विपक्ष के तौर पर भी यदि सम्मानजनक सीटें हासिल कर लीं तब प्रधानमंत्री का हौसला निश्चित रूप से बुलंद होगा। लेकिन ऐसा न हुआ तब विपक्ष सीएए को वापिस लेने के दबाव के अलावा एनपीआर और एनआरसी के बारे में प्रधानमन्त्री से सरकार की नीति स्पष्ट करने का दबाव बनाये बिना नहीं रहेगा। इन विषयों पर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के बयानों में थोड़ा अंतर होने से सरकार को शर्मसार होना पड़ा था। देश के मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि ये सत्र भी काफी हंगामेदार रहेगा। यदि निर्मला सीतारमण ने आर्थिक हालातों का हवाला देते हुए बजट में दरियादिली नहीं दिखाई तब सरकार को सदन और बाहर दोनों तरफ  से आलोचनाएं झेलनी पड़ सकती हैं। वैसे बजट अच्छा होने के बाद भी विपक्ष सरकार को बख्श देगा इसकी संभावना शून्य ही हैं क्योंकि वह इस समय अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। मोदी सरकार ने दूसरी पारी प्रारम्भ करते ही जिस ताबड़तोड़ तरीके से अपने घोषणापत्र के आधारभूत वायदों को जमीन पर उतारने का सिलसिला शुरू किया उसकी वजह से विपक्ष में घबराहट भरी सतर्कता है। जहां तक जनता की अपेक्षा है तो वह चाह रही है कि अर्थव्यवस्था के साथ ही अन्य ज्वलंत विषयों पर सार्थक बहस और देशहित में निर्णय हों। यद्यपि इसकी संभावना कम ही है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में जिस कर्तव्यबोध की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है वह तो न जाने कब का हवा-हवाई हो चुका है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

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