Friday 3 January 2020

विडंबना : किसान उगाए - सरकार सड़ाए



बीते कुछ दिनों से देश के अनेक हिस्सों में बारिश हो रही है। पहाड़ों पर बर्फबारी के बाद मैदानी इलाकों में कोहरा और बरसात इस मौसम में होती ही है। उधर दक्षिण भारत में तो शीतकालीन वर्षा (विंटर मानसून) प्रकृति चक्र का स्थायी हिस्सा है। शीतऋतु का आनंद उठाने वालों के लिए तो कुदरत के ये नजारे सुखद होते हैं लेकिन इसका नुकसान खेती के साथ सरकार द्वारा खरीदे गए अनाज के खराब होने के रूप में भी देखने मिलता है। आज आई जानकारी के अनुसार बीते दो-तीन दिनों की बरसात में ही मप्र के अनेक हिस्सों में सरकार द्वारा समर्थन मूल्य पर खरीदी गयी लगभग 150 करोड़ रूपये की धान खराब हो गयी। इसका कारण नया नहीं है। प्रतिवर्ष देश भर से आने वाली खबरों के अनुसार रबी और खरीफ  दोनों ही फसलों के बाद सरकार द्वारा किसानों से खरीदे गए अनाज की बड़ी मात्रा महज इसलिए खराब हो जाती है क्योंकि उसका ठीक तरह से भंडारण नहीं होने के कारण वह खुले में पड़ा रहता है। आज़ादी के कुछ वर्षों बाद देश में अनाज की कमी के चलते हरित क्रांति का सूत्रपात करते हुए खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता तो हासिल कर ली गयी लेकिन भंडारण क्षमता में वृद्धि के बारे में समय रहते नहीं सोचा गया। सार्वजानिक वितरण प्रणाली (राशन दूकान) एवं सूखा आदि की स्थिति से निबटने के लिए देश में अनाज का सुरक्षित भंडार रखने के उद्देश्य से सरकार किसानों से सीधे अनाज खरीदकर गोदामों में रखती है। पहले केवल भारतीय खाद्य निगम के पास ही अपनी गोदामें हुआ करती थीं। लेकिन जब वे अपर्याप्त पडऩे लगीं तब निजी क्षेत्रों को बैंकों से कर्ज दिलवाकर गोदामें बनवाने की पहल भी हुई। बावजूद इसके भंडारण क्षमता का अपेक्षित विकास नहीं होने से सरकार द्वारा खरीदा गया अनाज खुले मैदान में रखे रहने पर बारिश में भीगकर खराब हो जाया करता है। बड़े-बड़े चबूतरों पर टीन शेड बनाकर तिरपाल से उन्हें ढंककर रखने का इंतजाम भी बदहाली का शिकार होने से साल दर साल सोना कहलाने वाला अनाज या तो सड़ जाता है या उसकी गुणवत्ता कम हो जाती है। गोदामों के भीतर रखे अनाज को चूहों द्वारा कुतर दिए जाने की खबरें तो आम है ही किन्तु गोदाम के भीतर जाने के पहले ही बरसाती पानी से उनका खराब हो जाना भी नियमित घटना बन गयी है। निजी गोदामों को किराये पर लेने की जो व्यवस्था है वह भी सरकारी ढर्रे का शिकार है। समय पर गोदाम मालिकों का भुगतान नहीं होने से वे भी परेशान होकर रह जाते हैं। अनेक ऐसे गोदाम मालिक हैं जिन्हें सरकार से समय पर किराया नहीं मिलने की वजह से उन पर बैंक का कर्ज और ब्याज बेतहाशा बढ़ गया। गोदामों के आवंटन में भी भारी भ्रष्टाचार है। सरकारी अधिकारी इस काम में जमकर पैसे खाते हैं। राजनीतिक तौर पर प्रभावशाली लोग तो अपने रसूख से किराया वसूलने में सफल हो जाते हैं लेकिन दीगर गोदाम मालिकों को नौकरशाही खून के आंसू रुलाने से बाज नहीं आती। ये सिलसिला निरंतर जारी है। किसान धूप में पसीना बहाकर जो अनाज उगाता है वह सरकारी खरीद के बाद धूप  और पानी में पड़े रहने से बर्बाद होता है। हरित क्रांति के समय ही यदि बढ़ते उत्पादन के समुचित भंडारण का प्रबंध किये जाने के बारे में सोचा गया होता तब इस विसंगति से बचा जा सकता था। बीते कुछ दशकों में किसानों ने अनाज से इतर फल और सब्जियों के उत्पादन पर भी काफी ध्यान दिया लेकिन भंडारण और प्रसंस्करण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने से उनकी उपलब्धि का सही लाभ उन्हें और देश दोनों को नहीं मिल पाता। करोड़ों रूपये के फल और सब्जियां इस वजह से नष्ट हो जाते हैं। 21 वीं सदी के भारत में एक तरफ  तो चाँद और मंगल को छूने जैसी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की ललक और आत्मविश्वास हिलोरें मारता दिखाई देता है वहीं दूसरी तरफ  धरती की उर्वरा शक्ति से अर्जित अन्न, फल और सब्जियों के सुरक्षित भंडारण और उनके प्रसंस्करण की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने से किसानों की मेहनत पर पानी फिर जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। बीते कुछ दशकों में किसानों ने उत्पादन बढ़ाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। लेकिन ये कहना पूरी तरह से सही है कि इसका पूरा-पूरा लाभ देश को नहीं मिल पा रहा। वैसे तो हर सरकार भंडारण और प्रसंस्करण को प्रोत्साहित करने का इरादा व्यक्त करती है किन्तु उस पर अपेक्षित अमल नहीं हो पाने से आगे पाट पीछे सपाट की स्थिति बरकरार है। इसका लाभ सरकारी अमला भी जमकर लेता है जो खराब होने वाले खाद्यान्न के अतिरंजित आंकड़े प्रचारित कर अपना और अपने राजनीतिक संरक्षकों की तिजोरियां भरता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment