Tuesday 7 January 2020

जेएनयू : विवाद की जड़ जानना भी जरूरी



दिल्ली के जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विवि)) परिसर में बीते रविवार की शाम कुछ नकाबपोशों ने घुसकर जो मारपीट की उसके दृश्य टीवी चैनलों के जरिये पूरे देश ने देखे। मारपीट करने वाले कौन थे ये अभी तक पता नहीं चल पाया है लेकिन घटना के तुरंत बाद ही ये आरोप लगाया जाने लगा कि नकाबपोश अभाविप (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) के थे जिसे भाजपा समर्थित छात्र इकाई माना जाता है। चूंकि जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष भी हमले में घायल हो गईं इसलिए वामपंथी लॉबी के प्रचार को और बल मिल गया। पूरी घटना विवि. परिसरों के भीतर छात्रों के गुटों में होने वाले सामान्य झगड़े तक ही सीमित रहती लेकिन प्रो. योगेन्द्र यादव ने जेएनयू पहुंचकर परिसर में घुसने की कोशिश की किन्तु पुलिस ने उन्हें रोक लिया। इस दौरान उनके साथ धक्कामुक्की भी हुई जिसके बाद उन्होंने पूरी तरह पेशेवर राजनेता की तरह वामपंथी धारा के अनुरूप बयान देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे सीताराम येचुरी, डी. राजा और ऐसे ही अन्य नेता भी जेएनयू पहुंच गये। घायल छात्रों को देखने कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा अस्पताल जा पहुंची। राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल के ट्वीट भी आने लगे। जो कुछ भी हुआ वह दर्दनाक और शर्मनाक कहा जाएगा। जेएनयू देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में माना जाता है। लेकिन बीते काफी समय से इसकी चर्चा नकारात्मक कारणों से होने लगी है। इसकी वजह वहां वामपंथी एकाधिकार के लिए उत्पन्न खतरा ही है। एक समय था जब इस संस्थान में छात्र और शिक्षकों में वामपंथी रुझान वाले ही ज्यादा थे। दूसरी विचारधारा के लोगों की हालत दांतों के बीच में जीभ जैसी थी। लेकिन कुछ साल पहले से जब वहां अभाविप ने भी छात्र राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना शुरू की तबसे वामपंथी कुनबे के पेट में दर्द शुरू हो गया। गौरतलब ये है कि कहने को तो कांग्रेस की छात्र इकाई एएसयूआई भी जेएनयू में सक्रिय है लेकिन उसका होना न होना एक जैसा है। अभाविप का जनाधार बढऩे के पूर्व जेएनयू में विभिन्न वामपंथी गुट ही आपस में टकराते रहते थे। कुछ साल पहले जब वहां छात्रसंघ चुनाव में अभाविप का पदाधिकारी जीत गया तब वामपंथी गुटों को अपने वर्चस्व के लिए खतरा महसूस हुआ और उसके बाद के चुनावों में वे एकजुट होकर मैदान में उतरे। योगेन्द्र यादव जिस आम आदमी पार्टी के संस्थापक रहे उसकी छात्र इकाई ने भी जेएनयू में हाथ आजमाया लेकिन निराशा हाथ लगी। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि छात्रसंघ राजनीति में अभाविप अकेली ही संयुक्त वामपन्थी ताकत की प्रतिद्वंदी है। अभाविप का प्रभाव बढ़ते जाने का असर ये हुआ कि जेएनयू परिसर और छात्रावासों में होने वाली आपत्तिजनक गतिविधियों की जानकारी बाहर आने लगी। बेहद मामूली फीस होने के कारण यहां पढऩे वाले छात्रों का खर्च बहुत कम है। इसलिये वे लम्बे समय तक किसी न किसी बहाने छात्रावासों में पड़े रहते हैं। कई छात्र तो 40-45 साल के होने पर भी शोध की आड़ में वहां जमे हुए हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने जब शिक्षण और छात्रावास शुल्क में वृद्धि की तो छात्रों ने आन्दोलन शुरू कर दिया। अभाविप ने भी उसमें समर्थन दिया। सरकार ने काफी कुछ रियायत दे दी और आगे विचार का आश्वासन भी दिया जिसके बाद अभाविप तो आन्दोलन से अलग हो गयी लेकिन वामपंथी छात्र संगठन अड़े हुए हैं। मौजूदा विवाद के पीछे भी यही आन्दोलन है। नए सेमेस्टर हेतु छात्रों के पंजीयन की अंतिम तिथि घोषित हो चुकी थी। अधिकतर छात्र उस हेतु प्रयासरत थे किन्तु वामपंथी छात्रसंघ पंजीयन को बाधित कर परीक्षा को रोके रखना चाहते थे। रविवार 5 जनवरी को पंजीयन की आखिऱी तिथि थी। एक दिन पहले से छात्रसंघ पदाधिकारी पंजीयन करवाने आये छात्रों को रोकने का काम कर रहे थे जिस कारण छुटपुट तनाव था जो कि जेएनयू के लिए सामान्य बात है। लेकिन जब उन्हें लगा कि बहुमत उनके विरुद्ध जा रहा है तब उन्होंने पंजीयन कार्यालय की संचार व्यवस्था तहस नहस कर डाली। इसका विरोध करने वाले छात्रों को भी वामपंथियों ने धमकाया और कुछ के साथ हाथापाई किये जाने की भी खबर है। ऐसे छात्रों में अनेक ऐसे भी थे जिनका किसी राजनीतिक विचारधारा से सम्बन्ध नहीं है और वे केवल पढऩे के लिए जेएनयू में आये हैं। छात्रसंघ चुनाव में वामपंथी उम्मीदवारों को वोट देने वाले सभी छात्र उनके वैचारिक अनुयायी हैं ये मान लेना गलत है। ऐसे अनेक छात्र पंजीयन रोके जाने का विरोध कर रहे थे। नकाबपोश कौन थे, वे परिसर में कैसे घुसे, पुलिस की क्या भूमिका रही ये सब जांच का विषय हैं। हिंसा करने वाले और उसे संरक्षण देने वाले किसी भी व्यक्ति या विचारधारा का समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन जेएनयू या किसी अन्य शिक्षा संस्थान में एक ही विचारधारा का पोषण किया जाना कहां तक उचित है? जेएनयू में वैचारिक स्वतंत्रता और जागरूकता अच्छी बात है लेकिन उसके नाम पर केवल साम्यवादी विचारधारा थोपने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती। किसी विवि. में कश्मीर की आजादी और देश के टुकड़े-टुकड़े होने जैसे नारे लगाने वालों पर शिकंजा कसा जाना किस तरह से अनुचित है, ये बड़ा सवाल है। बीते रविवार जो हुआ उसके लिये यदि अभाविप जिम्मेदार है तो बेशक उसके विरुद्ध कानून सम्मत कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन विवि की परीक्षा को बाधित करने वाले छात्रसंघ के नेताओं का कृत्य भी तो अपराध की श्रेणी में आता है। प्रौढ़ावस्था में प्रविष्ट होने के बाद भी जेएनयू में जमे बैठे अंकलनुमा छात्रों का लक्ष्य क्या है ये तो वे ही जानें किन्तु अधिकतर छात्र ऐसे हैं जो समय पर परीक्षा पास करने के बाद अपनी राह चुनना चाहते हैं। ऐसे में परीक्षा रोकने से ऐसे छात्रों का जो नुकसान होता है उसके बारे में क्या योगेन्द्र यादव और सीताराम येचुरी कभी सोचते हैं? डी. राजा की तो बेटी भी जेएनयू की छात्रा है। गत दिवस इस संस्थान के पूर्व छात्र रहे विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने कहा भी कि वे जिस जेएनयू में पढ़े उसमें टुकड़े-टुकड़े गैंग नहीं होती थी। जयशंकर भारतीय विदेश सेवा के बेहतरीन अधिकारी माने जाते हैं। जब उन्हें मोदी सरकार में विदेश सचिव बनाया गया तब विपक्ष ने भी उनके चयन की तारीफ़  की थी। दोबारा सत्ता में आने पर नरेंद्र मोदी ने उन्हें विदेश मंत्री बना दिया। उन पर आज तक किसी विचारधारा का ठप्पा नहीं लगा। ऐसे में उनकी ताजा टिप्पणी का संज्ञान लिया जाना जरूरी है। जेएनयू का ताजा बवाल दरअसल किसी तात्कालिक घटना का नतीजा न होकर वामपंथी प्रभुत्व को मिल रही कड़ी चुनौती का परिणाम है। परिसर में सीसी कैमरे लगाने, महिला छात्रवासों में पुरुष छात्रों का बेरोकटोक प्रवेश और देर रात तक स्वछंदता के माहौल पर रोक जैसे क़दमों को अभिव्यक्ति की आजादी पर आघात मानकर प्रलाप करने वाले लोग दरअसल कुंठाग्रस्त हैं। कन्हैयाकुमार को रातों-रात राष्ट्रीय नेता बनाने की कार्ययोजना फ्लॉप हो चुकी है। गुजरात में हार्दिक पटेल का आकर्षण भी ढलान पर है। बंगाल का वामपन्थी किला मलबे में तब्दील हो चुका है। त्रिपुरा में भी साम्यवादी सत्ता पतन का शिकार हो गयी। केरल में ही उसका बचा खुचा आधार है जिसे जबरदस्त चुनौती मिलने लगी है। ऐसे में दुष्प्रचार ही एकमात्र सहारा बच रहा है, वामपंथियों के पास। रही बात बाकी पार्टियों और नेताओं की तो उनकी नीतिगत पहिचान नष्ट होने से वे भी अंधे विरोध की राह पर चल पड़ते हैं। जेएनयू में हुई मारपीट के विरोध में आसमान सिर पर उठाने वालों को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि विवि के सैकड़ों छात्रों को परीक्षा देने रोकने का षडयंत्र रचने वाले क्या असामाजिक तत्व नहीं हैं और उन्हें संरक्षण देना किस तरह की सियासत है? जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विवि के छात्रों का बिना देर किया जेएनयू जा पहुंचना महज संयोग नहीं हो सकता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment