Wednesday 1 January 2020

2020 : अर्थव्यवस्था पर केन्द्रित हो



बीता वर्ष 2019 बड़ी घटनाओं से भरा हुआ रहा। लोकसभा चुनाव के जरिये एक बार फिर मोदी सरकार का नारा साकार हुआ और भाजपा ने 300 का आंकड़ा पार करते हुए भारतीय राजनीति में कांग्रेस के बाद पहले ऐसे राजनीतिक दल के तौर पर खुद को स्थापित किया जिसे अपने दम पर लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल हो सका। मतदाताओं के उस फैसले ने सरकार को वह सब करने का हौसला दिया जिसे लगभग असंभव मान लिया गया था। जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 35 ए तथा 370 की विदाई जिस अंदाज में हुई वह किसी कारनामे से कम नहीं था। इसी तरह अयोध्या का सैकड़ों वर्ष पुराना विवाद भी सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह निपटाया वह भी ऐसी घटना है जिसे इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान मिले बिना नहीं रहेगा। इसके पहले तीन तलाक पर रोक जैसे संवेदनशील मामले में भी केंद्र सरकार को संसद में जो समर्थन मिला वह बड़ी उपलब्धि थी। इन सब वजहों से विपक्ष पूरी तरह निहत्था और बेबस होकर रह गया। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी के मूलभूत मुद्दों को अमल में लाने के कारण एक महानायक के तौर पर उभरे। निश्चित ही इन सबकी वजह से उनका मनोबल ऊंचा हुआ जिसका प्रमाण नागरिकता संशोधन विधेयक को पारित करवाकर कानून बनवाने के रूप में सामने आया। वर्ष 2019 के अंत में इस मुद्दे पर सरकार को संसदीय मोर्चे पर जो विजय मिली उससे विपक्षी दलों में ये भय व्याप्त हुआ कि भाजपा और श्री मोदी के विरुद्ध मोर्चेबंदी नहीं की गयी वे वह अप्रासंगिक होकर रह जाएंगे। और उसके बाद जो कुछ हुआ और हो रहा है वह देश के सामने है। यद्यपि केंद्र सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते ये मानना गलत नहीं होगा कि अंतत: इस मुद्दे पर भी विपक्ष को विफलता ही हाथ लगेगी क्योंकि मामला कानूनी से ज्यादा एक समुदाय विशेष पर आकर केन्द्रित हो गया। बीते वर्ष में लोकसभा की धमाकेदार जीत के बाद भी भाजपा ने दो राज्य गंवाए। लेकिन सबसे बड़ी बात हुई शिवसेना से उसका अलगाव। आने वाले कुछ महीनों में भाजपा को दिल्ली और बिहार जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। मौजूदा राजनीतिक हालातों में उसके लिए इनसे निपटना बेहद कठिन लागता है। ये बात भी सही है कि भाजपा का दबदबा उसके सहयोगी दलों पर अब पहले जैसा नहीं रहा। दिल्ली में न सही लेकिन बिहार में जरुर उसे नीतिश कुमार जैसे अनुभवी नेता से जूझना होगा। बंगाल में भी ममता बैनर्जी एक बड़ी चुनौती केंद्र के लिए हैं। नागरिकता संशोधन और उसके बाद राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर को लेकर अनेक गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारें जिस तरह से टकराहट के मूड में हैं उसे देखते हुए 2020 में देश की राजनीति को अप्रत्याशित घटनाचक्र से गुजरना पड़ सकता है लेकिन राजनीति से अलग हटकर सबसे बड़ी चुनौती देश और सरकार के सामने अर्थव्यवस्था की चिंताजनक स्थिति है। सरकार और विपक्ष दोनों के बीच चलने वाली रस्साकशी को एक बार छोड़ भी दें तो ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि बीते वर्ष देश का आर्थिक माहौल निराश करने वाला रहा। इसके लिए भले ही वैश्विक हालातों को जिम्मेदार मानकर मन को संतोष दे दिया जाये किन्तु केंद्र सरकार जिस तरह से अपनी उपलब्धियों का श्रेय लूटने में कंजूसी नहीं करती ठीक वैसे ही उसे आर्थिक मोर्चे पर छाई निराशा की जिम्मेदारी भी लेना चाहिए। मंदी की बजाय इसे आर्थिक सुस्ती माना जाए तब भी ये तो कहना ही पड़ेगा कि अच्छे दिन और सबका विकास जैसे नारे भी 1971 के गरीबी हटाओ के वायदे की कतार में आ खड़े हुए हैं। आर्थिक विशेषज्ञ और उद्योग जगत ये स्वीकार कर रहा है कि सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये कतिपय क़दमों से अर्थव्यवस्था की बदहाली दूर होने का रास्ता खुल गया है लेकिन इसमें कितना वक्त लगेगा ये दावे के साथ चूंकि कोई भी नहीं बता पा रहा इसलिए आम जनता के मन में घबराहट बढ़ती जा रही है। बैंकों की गिरती सेहत भी बड़ी चिंता का विषय है। नया रोजगार तो दूर की बात है उलटे नौकरी में लगे लोगों का काम छिन रहा है। सरकार कुछ नहीं कर रही ये कहना तो गलत होगा परन्तु उसकी कोशिशों का असर दिख नहीं रहा ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है। लोगों की ये अपेक्षा भी सही है कि प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था की स्थिति को लेकर देश से संवाद करें। जहां तक बात वित्त मंत्री द्वारा दी जाने वाली सफाई और आश्वासनों की है तो इस सरकार के बारे में ये धारणा पूरी तरह स्थापित हो चुकी है कि हर महत्वपूर्ण फैसला प्रधानमंत्री कार्यालय से ही होता है। इसलिए बेहतर हो अर्थव्यवस्था पर श्री मोदी राष्ट्र से मुखातिब हों और अपनी सरकार की कार्ययोजना प्रस्तुत करें। प्रधानमन्त्री के बारे में अभी भी जनमानस में भरोसा कायम है। बेहतर हो वे 2020 को अर्थव्यवस्था केन्द्रित रखते हुए प्राथमिकताएँ तय करें। दूरगामी उपायों की अपनी अहमियत है लेकिन आम जनता के लिए कुछ ऐसा भी किया जाना चाहिए जिससे तत्काल राहत मिले। आर्थिक क्षेत्र में तथाकथित सुधारों की चर्चा बीते तीन दशक से चली आ रही है लेकिन उसके परिणामों के बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। प्रधानमन्त्री को चाहिए कि वे उद्योग व्यापार जगत की परिशानियों को हल करने के लिए बेशक जरूरी कदम उठायें लेकिन आम जनता की क्रय शक्ति बढ़ाये बिना आर्थिक विकास का कोई भी लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। भारत पर निगाह रखे हुए आर्थिक विशेषज्ञ भी मान रहे हैं कि यहाँ का घरेलू उपभोक्ता बाजार ही इतना विशाल है कि बिना निर्यात किये भी भारत के उद्योगों का समूचा उत्पादन घरेलू बाजार में ही खप सकता है। इसलिए जिस तरह सरकार उद्योग व्यापार को बढ़ावा देने के लिए तरह-तरह की सुविधाएँ और रियायतें देती है ठीक उसी तरह आम करदाता का बोझ भी कम किया जाना चाहिए जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाये रखने में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भाजपा का उत्थान भी जिस मध्यमवर्ग के बूते हुआ वही आज के माहौल में सबसे ज्यादा परेशान है। छोटी पूंजी वाले व्यापारी को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। यदि मोदी सरकार 2020 में भारत के विशाल मध्यमवर्ग और घरेलू बाजार पर ध्यान केन्द्रित करते हुए नीतियों का निर्धारण और क्रियान्वयन करे तब उसके राजनीतिक फैसलों पर उठने वाले सवाल भी बेमानी होकर रह जायेंगे। दोबारा सत्ता में आने के बाद कुछ महीनों के भीतर ही प्रधानमन्त्री ने अपनी निर्णय क्षमता और दृढ़ता का जो परिचय दिया वैसा ही कुछ आर्थिक मोर्चे पर किया जाना समय की मांग है। रही बात दुनिया भर के विशेषज्ञों की टीका-टिप्पणियों की तो ये बात पक्के तौर पर समझ लेना चाहिए कि भारत की समस्याओं का इलाज घर में ही मौजूद है। उसके लिए किराये के आयातित दिमागों की जरुरत नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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